जानिए किस छुकछुक गाड़ी ने सफ़र तय किया एक शताब्दी का

एक शताब्दी के बाद छुकछुक गाड़ी का सफ़र दूसरी बार छोटा हुआ। पहले यह रायपुर जंक्शन से चलती थी, छत्तीसगढ़ बनने के बाद शहर की आबादी में वृद्धि हुई और शहर के बीच तीन-चार क्रासिंग होने के कारण इसका परिचालन रिंगरोड़ तेलीबांधा से किया जाने लगा। जिसमें सिटी स्टेशन खत्म हो गया।

अब कल से इसका सफ़र बीस किमी और कम हो गया, जिसमें रायपुर से अभनपुर जंक्शन के मध्य के माना एवं भटगांव स्टेशन बंद हो गये। आज से छुकछुक गाड़ी का परिचालन केन्द्री स्टेशन से प्रारंभ हो गया। रेल्वे इसे निखट्टू पूत मानता है कहीं ऐसा न हो कि एक दिन यह सफ़र छोटा होते होते समाप्त हो जाए।

यह ट्रेन दो हिस्सों में चलती है, रायपुर से धमतरी एवं अभनपुर से राजिम। रायपुर एवं धमतरी के 70 किमी मार्ग के बीच अभनपुर जंक्शन है, यहाँ से धमतरी एवं राजिम के बीच ट्रेन चलती है। आज इस लाईन पर ट्रेन चले 116 वर्ष हो गए। कभी यह नेरोगेज बी एन आर (बंगाल नागपुर) रेल्वे का हिस्सा थी। अंग्रेजों के शासन काल में इस रेलमार्ग का निर्माण हुआ।

ज्ञात हुआ इसकी परिकल्पना 1875 के आस पास प्रारंभ हुई। अंग्रेजों को रेल लाईन के विस्तार के लिए लकड़ी के स्लीपरों की आवश्यकता थी और इन जंगलों में साल की लकड़ी की प्रचूर मात्रा होने के कारण संभवत: रेल्वे के लिए स्लीपर की आपूर्ति के उद्देश्य से इस रेलमार्ग का निर्माण हुआ।

कहते हैं कि 1896 के अकाल की स्थिति का अंग्रेजों लाभ उठाया और 45/74 मील रेलमार्ग का निर्माण ब्रिटिश इंजीनियर ए एस एलन की अगुवाई में प्रांरंभ हुआ, जो 1901 में पूर्ण हुआ और इस मार्ग पर रेल का परिचालन प्रारंभ हुआ। तब से लेकर आज तक इस नेरोगेज का सफ़र जारी है।

इन सौ से अधिक बरसों में इस रेल से आस पास के गांव के लोग भावनात्मक रुप से भी जुड़ गए। किसी ने नव दाम्पत्य जीवन का सफ़र इस ट्रेन से प्रारंभ किया तो किसी के लिए यह ट्रेन उच्च शिक्षा ग्रहण करने का माध्यम बनी। आस पास के गांव के लड़के लड़कियां इस ट्रेन से रायपुर उच्च शिक्षा ग्रहण करने जाने लगे, इस तरह यह शिक्षा क्रांति का भी संवाहक बनी। लगभग आठ वर्ष पूर्ण मैने पाकिस्तान में रहने वाली एक लेखिका का भावनात्मक संस्मरण अखबार में पढा था, जिसे पाकिस्तान में बसने के बाद भी इस रेल की याद आ रही थी।

रायपुर से धमतरी के बीच रायपुर सिटी, माना, भटगाँव, केन्द्री, अभनपुर, चटौद, सिर्री, कुरुद, सरसोंपुरी, सांकरा नामक स्टेशन हैं तथा अभनपुर से राजिम के बीच सिर्फ़ माचिकचौरी स्टेशन है। एक समय था जब अभनपुर में चिकित्सा के साधन नहीं थे तो इस ट्रेन से लोग नवापारा राजिम या रायपुर चिकित्सा के लिए जाते थे।

अभनपुर के व्यापार का केन्द्र भी नवापारा राजिम था। आज भले ही अभनपुर कस्बे ने तरक्की की हो परन्तु आज भी ग्रामीण अंचल के लोग नवापारा राजिम से लेन-देन करना पसंद करते हैं क्योंकि यह रेलमार्ग से जुड़ा हुआ है।

इस मार्ग पर 1980 तक स्टीम इंजन चला। उसके बाद डीजल इंजन आ गया, ट्रेन ने गति पकड़ी। अभनपुर से रायपुर तक का सफ़र पौन घंटे में होने लगा। वैसे अभनपुर सड़क मार्ग से भी जुड़ा हुआ है। परन्तु किराया कम होने के कारण रेल से ही ग्रामीण अंचल के लोग सफ़र करते थे और आज भी कर रहे हैं।

कल हमने जब सफ़र किया तो अभनपुर से धमतरी का किराया प्रति व्यक्ति 10 रुपए दिया, जबकि सड़क मार्ग से यही दूरी 40 रुपए में तय होती है। इससे सस्ती यात्रा कहीं भी नहीं हो सकती।

स्टीम इंजन के परिचालन के लिए कोयले और पानी की आवश्यकता होती थी। जब यह ट्रेन रायपुर से चलती तो भटगांव में पानी का इंतजाम होता, फ़िर अभनपुर एवं कुरुद में। तीन जगह यह कोयला पानी लेकर धमतरी तक पहुंचती। कोयला और पानी लेने के कारण इन स्थानों पर आधे घंटे से अधिक का ठहराव हो जाता था।

पानी की समस्या होने के कारण रायपुर से पानी के टैंकर इस गाड़ी के साथ पहुंचते थे और बड़ी टंकियों से इंजन में पानी डाला जाता था। स्टेशन के आस पास के लोग मुफ़्त के कोयले का उपयोग भोजन बनाने के लिए करते थे। सुबह एवं सांझ के वक्त घरों से उठता धुंआ बता देता था कि किस किस के घर में रेल्वे के कोयले की अंगीठी (सिगड़ी) से भोजन पक रहा है।

ग्रामीण अंचल में पुराने लोग आज भी इसे “दू डबिया गाड़ी” कहते हैं, जब यह प्रारंभ हुई तब इसमें दो ही डिब्बे लगते थे। उसके बाद डिब्बों की संख्या बढी होगी। तब इसमें सिर्फ़ बड़े लोग अधिकारी, मालगुजार आदि ही सफ़र करते होंगे। फ़िर डिब्बों की संख्या बढा कर आम आदमी के लिए यात्रा सुलभ की गई होगी।

स्टीम इंजन से संचालित ट्रेन से सफ़र करके आने वाले व्यक्ति की शक्ल ही बता देती थी कि वो रेलगाड़ी से आया है। चेहरे पर एवं कपड़ों पर जमी हुई कालिख सारी कहानी खुद ही कह देती थी। डीजल इंजन लगने के बाद यह समस्या दूर हो गई। एक समय था जब इस छोटी ट्रेन का जलवा था। एक फ़र्स्टक्लास की बोगी भी इसमें लगती थी और टी टी भी ट्रेन के साथ चलता था। पता नहीं कितने लोगों ने इस ट्रेन से मुफ़्त की यात्रा की होगी।

इस ट्रेन का परिचालन सिस्टम वही है, जो आज से सौ साल पहले था, सारी मशीनरी भी वही है, उनमें कुछ भी बदलाव नही हुआ है। यहाँ तक कि बुकिंग ऑफ़िस भी जस के तस हैं। गेट खोलने के लिए वही बड़ी चाबियों का इस्तेमाल होता है।

एक स्टेशन पर से ट्रेन चलने के बाद अगले स्टेशन में मशीन से रांगे का गोला निकलता है और वही ट्रेन के ड्रायवर को दिया जाता है, जो गाड़ी आगे ले जाने की अनुमति होता है, उसे अगले स्टेशन पर दे दिया जाता है। यह प्रक्रिया आज भी उसी तरह चल रही है, जिस तरह सौ बरस पहले चलते थी।

आज भी पुट्ठे की टिकटें मिलती हैं, अभनपुर जंक्शन में लगभग दस बरस से कम्प्युटराईज टिकटें मिलने लग गई। परन्तु छोटे स्टेशनों पर वही पुट्ठे की टिकटें मिलती है।

सभी के संस्मरण इस ट्रेन के साथ जुड़े हैं, सभी की कहानी कई मुद्दों को लेकर एक जैसी होगी तो अलग भी हो सकती है। कहना चाहिए कि यह ट्रेन 47/74 मील की जीवन रेखा है। छत्तीसगढ़ बनने के बाद रायपुर में निर्माण कार्यों की बाढ आ गई।

मजदूरी भी अच्छी मिलने लगी तो इस ट्रेन के माध्यम से कुरुद तक के मजदूर रायपुर आने लगे। सुबह एवं शाम की ट्रेन में पैर रखने की जगह नहीं मिलती। सस्ते किराये एवं मंथली पास ने उनकी यह दूरी घटा दी। अब जब इसका परिचालन रायपुर से 20 किमी पहले ही रोक दिया गया तो मजदूरों को समस्या होना तय है।

इस ट्रेन से आम आदमी भावनात्मक रुप से जुड़ा हुआ है। मेरा मानना है कि सौ वर्ष से अधिक होने पर यह वैसे भी हैरिटेज की श्रेणी में आ चुकी है। इसके डिब्बों को आरामदेह बनाकर हैरिटेज ट्रेन के रुप में चलाई जा सकती है, जिससे पर्यटक छुकछुक गाड़ी का आनंद ले सकें। इस ट्रेन से भारत के पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने भी सफ़र किया था।

कई बार नेताओं ने इसके ब्राडगेज होने की घोषणा कर शिलान्यास किया। परन्तु आज तक स्थिति जस की तस है। रेल्वे इसे कमाऊ पूत नहीं समझता। इस मार्ग पर रेल का परिचालन घाटे का सौदा मानता है और इसकी गर्दन पर बंद होने की तलवार भी लटक रही है। किसी एक आदेश से इसे बंद भी किया जा सकता है। अगर यही स्थिति रही तो एक दिन धीरे धीरे एक शताब्दी पुरानी यह नेरोगेज दम तोड़ देगी और सिर्फ़ स्मृतियों में रह जाएगी।

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आलेख एवं फ़ोटो

ललित शर्मा