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आजादी के बाद भोपाल भी था कश्मीर बनने की राह पर : भोपाल विलय दिवस

संघर्ष, बलिदान और आँदोलन के एक लंबे सिलसिले के बाद 1 जून 1949 भोपाल रियासत भारतीय गणतंत्र का अंग बनी।

भारत को स्वाधीनता 15 अगस्त 1947 को मिल गई थी लेकिन भोपाल रियासत में अंग्रेजों और पाकिस्तान के समर्थक माने जाने वाले नबाब हमीदुल्ला खाँ का शासन बना रहा। इसके लिये भोपाल वासियों ने पुनः संघर्ष किया इसे विलीनीकरण आँदोलन नाम माला और अंततः स्वतंत्रता के लगभग पौने दो वर्ष बाद 1जून 1949 को भोपाल रियासत भी भारतीय गणतंत्र का अंग बन गई।

भोपाल में स्वाधीनता संघर्ष की कहानी बहुत लंबी है। भोपाल में नबाबी शासन की स्थापना धोखे और रक्तपात से हुई थी। मुक्ति संघर्ष की दास्तान भी नबाबी शासन शुरु हुई और भारतीय गणतंत्र में विलय के साथ समाप्त हुई। आरंभ में यह संघर्ष सशस्त्र रहा लेकिन 1857 की क्रांति की असफलता के बाद अहिसंक जन जागरण के माध्यम से निरन्तर हुआ। लेकिन इस संघर्ष को दबाने केलिये भी नबाबी शासन ने सख्ती दिखाई। सीहोर, बरेली और उदयपुरा में गोलियाँ चलीं, आँदोलनकारी बलिदान हुये। जेल की प्रताड़नाओं से भी आँदोलन कारियों के प्राण गये।

आरंभिक संघर्ष नागरिक सम्मान और असामाजिक तत्वों से मुक्ति के लिये था जो बाद में नबाबी से मुक्ति का विलीनीकरण आँदोलन बना। एक जून 1949 को भारतीय गणतंत्र का अंग बनने के बाद भोपाल रियासत क्षेत्र को एक पृथक और स्वतंत्र राज्य का दर्जा दिया गया। प्रथक विधानसभा और राज्य सरकार बनी। यह स्थिति 1 नवम्बर 1957 तक रही। फिर मध्यप्राँत के कुछ भाग, विन्ध्य प्रदेश, महाकौशल, बुन्देलखण्ड का कुछ भाग और मध्यभारत आदि के साथ भोपाल राज्य मिलाकर मध्यप्रदेश अस्तित्व में आया और भोपाल इसकी राजधानी बना।

इतिहास में जहाँ तक दृष्टि जाती है भोपाल परिक्षेत्र का उल्लेख मिलता है। यह क्षेत्र वैदिक काल में भी था और रामायण काल में भी। सुप्रसिद्ध पुरातात्व वेत्ता वाकणकर जी ने भोपाल नगर और इसके आसपास लाखों वर्ष पुराने मानव बसाहट के चिन्ह खोजे हैं। फिर भी मौर्यकाल, गुप्तकाल के भी चिन्ह हैं किन्तु अधिकांश निर्माण दसवी शताब्दी के आसपास परमार काल में हुआ। दिल्ली सल्तनत के लगाता हमलों से 1325 में परमारों का पतन हुआ तब भोपाल में गौंडवांना शासन प्रारंभ हुआ। गौंडवांना का मुख्यालय गिन्नौरगढ़ था तथा भोपाल नगर उपकेन्द्र। गौंडवांना की अंतिम रानी कमलापति थीं। 1720 में रानी का बलिदान हुआ दोस्त मोहम्मद ने अधिकार करके नबाबी कायम की। नबाबी से मुक्ति का संघर्ष सतत चला और सैकड़ों बलिदान हुये।

मुक्ति संघर्ष : नवाबीकाल के आरंभ से 1857 तक

भोपाल में मुक्ति का संघर्ष नबाबी काल के पहले दिन से आरंभ हुआ। यह माना गया था कि नबाब हमीदुल्ला खान ने धोखे से भोपाल पर अधिकार किया और गौंडवांना की अंतिम रानी कमलापति का बलिदान हुआ। इसलिये जनता में रोष था। 1723 में नबाबी स्थापित होने के साथ पहला संघर्ष बैरागढ़ मार्ग पर हुआ। इस संघर्ष में रक्तपात के कारण ही इस स्थान का नाम “लालघाटी” पड़ा। सभी संघर्ष कर्ताओं को बंदी बनाकर जहाँ मौत के घाट उतारा गया। उस स्थान का नाम “हलालपुर” पड़ा। भोपाल की मुक्ति का दूसरा बड़ा संघर्ष 1824 में हुआ। यह नरसिंहगढ़ के के राजकुमार कुँअर चैनसिंह ने किया उन्होंने आधे से अधिक क्षेत्र को मुक्त करा लिया था। अंततः उनका बलिदान हुआ। सीहोर में जिस स्थान पर उनका बलिदान हुआ वहाँ उनकी स्मृति में एक “छत्री” बनी हुई है।

इसके बाद बीच बीच में कुछ स्थानीय संघर्ष के विवरण मिलते हैं लेकिन बड़ा संघर्ष 1857 में हुआ। देश भर में आरंभ सशस्त्र क्रांति का प्रभाव भोपाल राज्य पर भी पड़ा। उन दिनों सीहोर मेंसैन्य छावनी हुआ करती थी। 1857 की क्रान्ति के लिये महू और इंदौर से संदेश आये और सैनिक महावीर कोठ, वली मोहम्मद और रमजूलाल ने सीहोर छावनी में क्राँति का झंडा बुलन्द किया। यह 8 जुलाई 1857 का दिन था। इन्हें आदिल मोहम्मद और फाजिल मोहम्मद का सहयोग मिला और समानांतर सरकार “सिपाही बहादुर” अस्तित्व में आ गई।

इस सरकार का प्रतीक चिन्ह “निशाने महावीर” और “निशाने मोहम्मद” रखा गया। निशाने मोहम्मद हरे रंग में था तो निशाने महावीर भगवा रंग में। इस निशान को हिन्दू मुस्लिम एकता का प्रतीक माना गया। इसकी चिंगारी दूर तक फैली। 14 जुलाई को शुजाअत खाँ ने बैरसिया में, गढ़ी अंबापानी में हटे सिंह और उनकी बेटी हंसा ने और छीपानेर में दौलत सिंह ने स्वाधीनता का ध्वज फहराया। समय के साथ अपनी क्रूरता और धोखे से सफलता पाने केलिये इतिहास प्रसिद्ध अंग्रेज कमांडर ह्यूरोज के नेतृत्व में दिसम्बर 1957 के अंतिम सप्ताह में अतिरिक्त कुमुक महू आई, वहाँ से इंदौर और देवास आष्टा होकर सीहोर पहुँचा। सभी क्राँतिकारियों का क्रूरता पूर्ण दमन किया गया।

14 जनवरी 1858 को सीहोर छावनी के 356 सैनिकों को पेड़ो से लटकाकर सामूहिक फाँसी दी गई। बैरसिया, रायसेन, बेगमगंज और छीपानेर में भी क्रूरता से क्रान्ति का दमन हुआ । किसी को भी जीवित नहीं छोड़ा गया ।इसका विवरण इतिहास के पन्नों में सजीव है ।

जन जागरण और अहिसंक आँदोलन

1857 की क्रांति के पूर्व का संघर्ष सशस्त्र था किंतु सीमित। लेकिन 1857 की क्रान्ति में हुई जन भागीदारी से देश में सामाजिक जाग्रति का वातावरण बना और पूरे देश में राष्ट्रीय चेतना का संचार हुआ। जन आँदोलनों का जो सिलसिला चला वह स्वाधीनता के साथ ही रुका। भोपाल रियासत में आरंभ हुये इन आँदोलनों में आर्यसमाज और उसके संतों की भूमिका महत्वपूर्ण रही। 1890 में मित्र सभा का गठन हुआ। 1905 तक इसका विस्तार भोपाल नगर सहित पूरी रियासत क्षेत्र में हुआ और 1915 में मित्रसभा ने ही आर्यसमाज का आकार ग्रहण किया।

भोपाल क्षेत्र में हुये आरंभिक जन आदोलनों में परदे के पीछे रहकर आर्यसमाज के लोगों की भूमिका महत्वपूर्ण रही। 1921 में गाँधीजी के आव्हान पर असहयोग आँदोलन आरंभ हुआ। बच्चों की प्रभात फेरी के रूप में इस आँदोलन के समर्थन में पहली गतिविधि 1922 में देखी गई। कुछ नाम उभरे। परदे के पीछे लक्ष्मण भैया, ठाकुर लालसिंह, और लक्ष्मीनारायण सिंहल का एवं भोपाल में बच्चों के एकत्रीकरण के लिये एक दस ग्यारह वर्षीय बालक उद्धवदास का नाम सामने आया।

भोपाल के अतिरिक्त सीहोर, रायसेन बेगमगंज आदि में भी ऐसी प्रभात फेरियाँ निकली। इसके बाद अनेक सामाजिक संगठन सामने आये। कुछ समाचार पत्रों का भी प्रकाशन आरंभ हुये जिससे जन चेतना जागृत हुई। इस जन चेतना से जो आँदोलन आरंभ हुये, नबाब प्रशासन द्वारा उनका दमन भी उतना ही क्रूरता से हुआ। भोपाल की विभिन्न समस्याओं के प्रति गाँधीजी का ध्यान भी आकर्षित कराया गया। उनके हस्तक्षेप से भोपाल नबाब ने ईशनिंदा कानून रद्द कर दिया एवं कुछ नागरिक सुविधाओं में वृद्धि भी कर दी।

1931 के बाद भारत विभाजन और संभावित नये देश पाकिस्तान की चर्चा होने लगी। भोपाल नबाब हमीदुल्ला खान का सद्भाव पाकिस्तान अभियान के प्रति था। इसका कारण उनका अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से जुड़ा होना था। इस विश्वविद्यालय के अनेक पूर्व छात्र पाकिस्तान अभियान से जुड़े थे। समय अपनी रफ्तार से आगे बढ़ा। भोपाल रियासत में हिन्दु महासभा और प्रजा मंडल जैसे राजनैतिक दल अस्तित्व में आये। प्रभामंडल को काँग्रेस से संबंधित माना जाता था।
अंततः भारत की स्वतंत्रता सुनिश्चित हो गई।

भोपाल नबाब ने दूरदर्शिता से हिन्दु महासभा और प्रजा मंडल दोनों को विश्वास में लेकर अप्रैल 1947 में एक सर्वदलीय मंत्रीमंडल बना लिया। नबाब हमीदुल्ला खान ने जन समस्याओं से संबंधित निर्णय लेने के अधिकार तो इस मंत्रीमंडल को दिये लेकिन केंद्रीय शक्ति और नीतिगत निर्णय लेने के अधिकार अपने पास रखे। इसके साथ नबाब हमीदुल्ला खान ने अपनी रियासत को पाकिस्तान से संबंध रखने का संकेत भी दिया। इसके लिये उन्होंने कराँची क्षेत्र में भूमि क्रय की और अपनी एक बेटी आबिदा सुल्तान को पाकिस्तान भेज दिया। जिनके पुत्र शहरयार खान आगे चलकर पाकिस्तान के विदेश सचिव बने थे।

आज़ादी के 2 साल तक नहीं फहराया गया तिरंगा 

15 अगस्त 1947 को भारत स्वतंत्र हुआ। स्वतंत्रता की इस खुशी में भोपाल में भी प्रभात फेरी निकाली गई। लेकिन किसी भवन से नबाब का झंडा न उतरा। उस समय तनाव फैल गया जब भोपाल के जुमेराती और बैरागढ़ स्थित पोस्ट ऑफिस पर वहाँ के कर्मचारियों ने तिरंगा फहराया तो उसे फाड़ दिया गया। विभाजन की त्रासदी, हिंसा और शरणार्थी समस्या में केन्द्र सरकार उलझ गई। इसका लाभ भोपाल सहित कुछ रियासतों ने उठाया उन्होंने अपनी रियासतों को भारतीय गणतंत्र में विलीन करने में हीला हवाला करने लगीं।

भोपाल नबाब भी उनमें एक थे। अपनी रियासत को भारतीय गणतंत्र में विलीन करने के विषय पर नबाब हमीदुल्ला खान की प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल और अधिकारी वीपी मेनन से कई दौर की बातचीत चली पर नतीजा नहीं निकला। इससे सर्वदलीय मंत्रीमंडल में हिन्दु महासभा के प्रतिनिधि मास्टर भैरों प्रसाद सक्सेना ने त्यागपत्र देकर आँदोलन की घोषणा कर दी। प्रजा मंडल निर्देश की प्रतीक्षा कर रही थी। प्रजा मंडल की इस असमंजस का लाभ भोपाल नबाब ने उठाया और मंत्रीमंडल का पुनर्गठन करके प्रजा मंडल के सदस्यों की संख्या बढ़ा दी।

मंत्रीमंडल में प्रजा मंडल की इस सहभागिता पर प्रजा मंडल की कार्यकारिणी भीतर मतभेद उभरे। मई 1948 तीसरे सप्ताह में प्रजा मंडल ने समस्या का समाधान निकालने एक बैठक बुलाई गई। इस चार दिवसीय बैठक का समापन 24 मई को हुआ लेकिन कोई सहमति न बन सकी। जून 1948 में एक नया समाचार पत्र नई राह का प्रकाशन आरंभ हुआ जिसके संपादक भाई रतन कुमार गुप्ता थे। इस समाचार पत्र में भोपाल नबाब और मंत्रीमंडल में शामिल प्रजा मंडल के सदस्यों के बीच हुये “कथित गुप्त समझौते” का विवरण था।

इससे वातावरण बदल गया और प्रजा मंडल में नबाब समर्थक समूह अलग थलग पड़ गया लेकिन वे मंत्रीमंडल में बने रहे। उन्होंने नबाब के समर्थन में सभा सम्मेलन भी आरंभ कर दिये। जुलाई अगस्त दो माह पूरी रियासत में सर्वदलीय बैठकों का सिलसिला चला। इसकी पहल भाई उद्धवदास मेहता और ठाकुर लाल सिंह ने की। इनका साथ लक्ष्मीनारायण मुखरैया, रामचरण राय, रतन कुमार गुप्ता, शिव नारायण वैद्य, अक्षय कुमार जैन, मथुरा बाबू आदि नेताओं ने दिया और पूरी रियासत की यात्रा की।

विलय की  पूर्व पीठिका

हर गाँव कस्बे में स्थानीय नेताओं को जोड़ा। इससे पूरी रियासत जन आँदोलन का वातावरण बन गया। पूरी रियासत में बैठकों और आँदोलन की टीमें बनाकर योजनानुसार सितम्बर 1948 में ठाकुर लालसिंह ने इछावर में, और भाई उद्धवदास मेहता, लक्ष्मीनारायण मुखरैया, रतन कुमार गुप्ता शिवनारारण वैद्य ने भोपाल में सभाये करके आँदोलन का उद्घोष कर दिया। विभिन्न स्थानों पर सभाओं का यह सिलसिला दिसम्बर 1948 तक चला। जगह-जगह प्रदर्शन और लाठीचार्ज हुये। लोगों को पकड़ पकड़ कर जंगलों में छोड़ा जाने लगा।

अंत में इस सर्वदलीय सभा ने 6 जनवरी 1949 से पूरी रियासत में बाजारबंद और प्रदर्शन की घोषणा कर दी। इससे नबाब प्रशासन ने दमन और बढ़ाया। जनवरी के आरंभ से ही पूरी रियासत में गिरफ्तारियों का सिलसिला शुरु हो गया। पूरी रियासत के सभी नेता जेल मेंडाल दिये गये। छै जनवरी को भोपाल के यूनानी शफाखाना मैदान मेंगिरफ्तार होने वाले नेताओं में डा शंकर दयाल शर्मा भी थे जो बाद में भारत के राष्ट्रपति बने। छै जनवरी 1949 को ही बरेली में गोली चालन हुआ। इसमें राम प्रसाद आयु 28 वर्ष और जुगराज आयु 35 का बलिदान हुआ। लाठी और गोली से सेकड़ों लोग घायल हुये।

भोपाल में इस दमन आतंक और गिरफ्तारियों के बादद अधिकांश पुरुष या तो जेल में डाल दिये गये या जंगल में छोड़ दिया गया तब महिलाओं ने मोर्चा संभाला। 11 जनवरी 1949 को चौक से लेकर जुमेराती तक पूरे लोहा बाजार की सड़क महिलाओं से पट गई थी। लाठीचार्ज से तितर-बितर किया गया। जो नहीं गईं उन महिलाओं को ट्रक में भरकर जंगल छोड़ दिया गया। सीहोर के लाठीचार्ज में एक व्यक्ति बुरी तरह घायल हुआ जिसका बाद में बलिदान हुआ।

14 जनवरी 1949 को उदयपुरा के समीप बोरास में गोली चली। इसमें छोटेलाल आयु 16 वर्ष, धनसिंह आयु 25 वर्ष, मंगल सिंह आयु वर्ष 30 वर्ष, विशाल सिंह आयु 25 वर्ष और कालूराम आयु 45 वर्ष का बलिदान हुआ। भोपाल नबाब पुलिस ने दमन करने के सारे रिकार्ड तोड़ दिये। जिन नेताओं को बंदी बनाया गया उनके घरों में तोड़ फोड़ की। इस कार्यवाही की ओर पूरे देश का ध्यान गया। हिन्दुस्तान टाइम्स के 11 जनवरी के अंक में छै जनवरी को पुलिस की दमन कार्यवाही, नेशनल हैराल्ड के 15 जनवरी अंक में 11 जनवरी को महिला सत्याग्रहियों के दमन की विस्तृत रिपोर्ट छपी। बौरास गोलीकांड का विवरण लगभग सभी राष्ट्रीय समाचार पत्रों में आया।

अंततः भारत सरकार के प्रतिनिधि के रूप में वी पी मेनन 24 जनवरी 1949 को भोपाल आये। वे तीन दिन रुके और उनकी सभी पक्षों से बात हुई। इनमें भोपाल नबाब, मंत्रीमंडल के सदस्यों और सभी राजनैतिक दल के प्रतिनिधियों से अलग अलग बातचीत की। मेनन जी इस यात्रा के बाद 28 जनवरी 1949 को सभी दलों के प्रमुखों ने आँदोलन समाप्त करने की घोषणा कर दी। 29 जनवरी 1949 को मंत्रीमंडल ने त्यागपत्र दे दिया। 3 से 6 फरवरी के बीच सभी राजनीतिक बंदी रिहा कर दिये गये और भूमिगत नेता लौटने लगे।

इसके बाद भोपाल नबाब और भारत सरकार के बीच विभिन्न स्तर की बातचीत का सिलसिला चला। अप्रैल 1949 में शर्ते तय हुई और एक माह तक समझौता गुप्त रखने की सहमति भी बनी। समझौते के अनुसार 31 मई 1949 तक सभी शासकीय भवनों और रियासत के सार्वजनिक स्थलों पर नबाब का झंडा लहराता रहा। 1 जून 1949 को सूर्योदय के साथ भारतीय तिरंगा लहरा दिया गया और भोपाल रियासत भारतीय गणतंत्र का अंग बन गई।

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं।

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