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सनातन के मानबिंदूओं को पुनर्प्रतिष्ठित करने वाली महारानी देवी अहिल्याबाई

31 मई 1725 देवी अहिल्याबाई का जन्म दिवस : स्वत्व और स्वाभिमान के लिये समर्पित जीवन

संसार में कुछ ऐसी विभूतियाँ भी जन्मी हैं जो अवतारी तो नहीं थीं लेकिन उनका व्यक्तित्व और कृतित्व अवतारी शक्तियों के समतुल्य रहा। इंदौर की महारानी देवी अहिल्याबाई का व्यक्तित्व ऐसा ही था। उन्हे “देवी” किसी दरवारी कवि ने नहीं कहा, अपितु जन सामान्य ने कहकर पुकारा।

उनका सादगीपूर्ण जीवन, धर्म, संस्कृति और राष्ट्र के लिये समर्पण जीवन, उनके द्वारा किये गये जन कल्याणकारी कार्य, विशेषकर किसानों और महिलाओं के हित में लिये गये उनके निर्णयों ने उनकी ओर पूरे भारत के शासकों का ध्यान आकर्षित किया। यह उनके व्यक्तित्व की विशेषता ही है कि आज लगभग तीन सौ वर्ष बीत जाने के बाद भी वे जन सामान्य में सम्मान और श्रृद्धा का केन्द्र हैं। वे सही मायने में अजातशत्रु थीं। उनके जीवन के किसी प्रसंग पर, कोई नई नीति बनाने या निर्णय लेने के औचित्य पर अथवा उनकी कार्यशैली पर कभी किसी ने कोई नकारात्मक टिप्पणी की। न उनके जीवनकाल में और उनके बाद इतिहास के शोध कर्ताओं ने।

वे अपने जीवन में भी एक आदर्श थीं और आज भी सबके लिये आदर्श हैं। ब्रिटिश इतिहासकार जॉन कीस ने तो उन्हें “द फिलॉसफर क्वीन” की उपाधि दी है। उनकी प्रसिद्धि उनके परिवार की पृष्ठभूमि से नहीं अपितु व्यक्तित्व और कृतित्व से है। होल्कर परिवार में कितनी महारानियाँ रहीं हैं पर किसी को इतनी प्रसिद्धि नहीं मिली जितनी अहिल्याबाई को मिली।

यदि भारत की शासक महिलाओं के बारे में विचार करें। भारत में महिला शासक उनसे पहले भी रहीं और बाद में भी इतनी सादगी से भरा जीवन और अपने राज्य क्षेत्र को सुरक्षित समृद्ध और शाँत बनाने का ऐसा उदाहरण कहीं नहीं। सबसे महत्वपूर्ण बात है विषम और विपरीत परिस्थतियों को चीरकर न केवल अपने राज्य क्षेत्र में अपितु पूरे भारत में उन्होंने साँस्कृतिक पुनर्जागरण का अभियान चलाया और सनातन मानविन्दुओं को पुनर्प्रतिष्ठित किया, यह असाधारण है। मानों वे छत्रपति शिवाजी महाराज के सपने को आकार दे रहीं थीं।

अहिल्याबाई व्यवहार में जितनी सरल और शांत थीं, संकल्पपूर्ति के लिये उतनी ही कठोर। वे बहुत विचार करके निर्णय लेतीं थीं और एक बार निर्णय लेकर फिर कभी पीछे नहीं हटतीं थीं। उन्होने भारत के प्रत्येक भाग और प्रत्येक समाज वर्ग के व्यक्ति के हित को ध्यान में रखकर काम किये। इन कार्यों पर जितना धन उन्होने व्यय किया उतना किसी रियासत ने नहीं किया फिर भी उनका राजकोष समृद्ध था। उनकी विचारशीलता बहुत व्यापक थी। पूरा भारत राष्ट्र और सनातन विचार उनके चिंतन में समाया थी। वे बहुत दूरदर्शी थीं। भविष्य का भारत कैसे प्रतिष्ठित हो, आने वाली पीढ़ी और समाज कैसे सुसंस्कृत हो और कैसे भारत राष्ट्र का साँस्कृतिक गौरव पुनर्प्रतिठित हो, वे दिन रात इसी चिंतन में डूबी रहतीं थीं। इसकी झलक उनकी कार्यशैली में भी दिखती है।

ऐसी विलक्षण प्रतिभा की धनी देवी अहिल्याबाई का जन्म 31 मई 1725 को महाराष्ट्र के अहमदनगर जिला अंतर्गत जामखेड़ कस्बे के ग्राम चाँडी में हुआ था। उनके पिता मनकोजी राव शिंदे मराठा सेना में एक सैनिक थे। जो बाद में नायक बने। माता सुशीला बाई भी गाँव के एक सामान्य किसान परिवार से थीं। सुशीला बाई का विवाह भी बालवय में हुआ और वधु बनकर चाँडी आ गई थीं। पिता मनकोजी राव और माता सुशीला बाई के पूर्वज भी मराठा सेना में थे और शिवाजी महाराज के अभियानों में सहभागी रहे।

दक्षिण भारत के लगभग सभी युद्धों में पिता मनकोजी राव शिन्दे पेशवाओं के साथ रहे। मनकोजी शिन्दे के भाई भी मराठा सेना में थे। शिवाजी महाराज ने अपने सैन्य परिवारों में महिला सुरक्षा का एक अभियान छेड़ा था। इसके लिये मराठा सैनिकों के परिवार की महिलाओं को आत्मरक्षा के लिये कुछ सैन्य प्रशिक्षण देकर आत्मरक्षा का अभ्यास कराया जाता था। इसका कारण यह था कि जब गाँव के युवा सैन्य अभियान पर होते तब योजना पूर्वक असामाजिक तत्व गाँव पर धावा बोल देते थे।

विशेषकर तब भारत की मुक्ति के लिए शिवाजी महाराज सेना का गठन किया, युवा उनकी ओर आकर्षित हुये और यह जब वे बाहर कहीं युद्ध अभियान में जाते तो आसामाजिक तत्व सीमावर्ती गाँवों पर धावा बोल देते थे, लूट के साथ महिलाओं को भी निशाना बनाया जाता था। इसलिये शिवाजी महाराज ने सैन्य परिवारों की महिलाओं और गाँव की बेटियों के आत्मरक्षा के लिये शारीरिक सामर्थ्य बढ़ाना और कुछ शस्त्र प्रशिक्षण देना आरंभ किया था। गाँव में महिलाओं की सुरक्षा टोली भी बनाई जाती थी। ताकि जब गाँव के पुरुष युद्ध अभियान हों पर तब महिलाएँ अपनी सुरक्षा स्वयं कर सकें।

माता सुशीला देवी अपने गाँव में ऐसी सुरक्षा टोली का संचालन करती थी। जिसमें महिलाएँ लाठी, भाला और तीर कमान चलाने का अभ्यास करतीं थीं। अहिल्याबाई अपने माता पिता की इकलौती संतान थीं। वे माँ के साथ रहतीं थीं। आँख खोलते ही उन्होंने हर आयु वर्ग की महिलाओं को स्वाभिमान से जीना और आत्मरक्षा के लिये सक्रिय होते देखा। माता के साथ रहकर समन्वय भी सीखा। इसलिये तीर कमान और भाला चलाना सीख गई थीं। माता सुशीला बाई शिवभक्त थीं। घर में व्रत उपवास और पूजन पाठ का भी वातावरण था।

परिवार ने अहिल्याबाई को आत्मरक्षा का अभ्यास कराने के साथ उनकी शिक्षा पर भी ध्यान दिया गया था। अहिल्याबाई आत्मरक्षा टोली के समागम में माता के साथ रहती थीं। गाँव में होने वाले प्रवचन और सत्संग में दादी के साथ जातीं थीं। इससे उनका चेतन अवचेतन आत्मरक्षा की सतर्कता के साथ धर्म ग्रंथों के कथा प्रसंगों की महत्ता से अवगत हो गया था। उन्हें अनेक पौराणिक कथाएँ मुखाग्र थीं। वे उन कथाओं की अपने शब्दों में समीक्षा करना भी सीख गई थीं उन कथाओं की शिक्षा और संदेश क्या है, यह भी समझने लगीं थीं। बचपन से ही माँ के अनुरूप शिव भी भक्त बन गई थीं। उनकी भक्ति एक प्रकार से शिवजी के प्रति समर्पण था। वे बिना पूजन किये जल भी ग्रहण नहीं करतीं थीं।

1733 में उनका विवाह इंदौर के महाराजा मल्हार राव होल्कर के पुत्र खाँडोराव होल्कर से हुआ। इस विवाह का प्रसंग भी रोचक है। एक बार युद्ध अभियान के लिये मल्हार राव होल्कर दक्षिण भारत जा रहे थे मल्हारराव होल्कर अपने समय के सुविख्यात मराठा सेनापति बाजीराव पेशवा के विश्वस्त माने जाते थे। दक्षिण भारत जाते हुये मार्ग में वे विश्राम के लिये चाँडी गाँव रुके। उन्होंने चाँडी गाँव के मंदिर में एक आठ वर्षीय बालिका को गरीबों को भोजन वितरण की व्यवस्था करते देखा। उस बालिका का व्यवहार गरीबों के प्रति बहुत मधुर था।

भोजन के लिये सबको पंक्तिबद्ध बैठाना, फिर भोजन वितरण के लिये अपनी बाल टोली को समन्वित करने का काम भी बालिका कर रही थी। यह सब मल्हारराव जी ने ध्यान से देखा। भोजन वितरण के बाद वह बालिका भगवान का भजन करने लगी। मल्हाररावजी को बालिका द्वारा की गई भोजन वितरण व्यवस्था और भजन की तन्मयता भा गई। वे अपने पुत्र खाँडेराव की कुछ आदतों से व्यथित रहते थे। पुत्र खाँडेराव बहुत जिद्दी, चिड़चिड़ा और गुस्से स्वभाव वाला था। मल्हारराव चाहते थे कि कोई ऐसी वधु आये जिसमें निभने और निभाने की कला हो और बेटे को सही मार्ग पर ला सके। उन्हें यह बालिका उचित लगी।

नारी शक्ति की सशक्त प्रतीक देवी अहिल्या बाई

उन्होंने बालिका का परिचय जाना। पता चला कि यह सैनिक मनकोजी राव की बेटी है। यद्यपि वे मनकोजी राव को नहीं जानते थे फिर भी मराठा सैनिक के नाते उनके मन में अपनत्व का भाव आया। उन्होंने मनकोजी राव को मिलने का संदेश भेज दिया। अंततः 1733 में अहिल्याबाई का विवाह खाँडेराव होल्कर से हो गया। तब उनकी आयु मात्र आठ वर्ष की थी। और उनसे दो वर्ष बड़े खाँडेराव थे। यह बाल विवाह था। इसलिये अहिल्याबाई विवाह के चार वर्ष तक मायके में ही रहीं।

1737 में गौना हुआ और विदा होकर में इंदौर आईं। अब वे एक सामान्य सैनिक की पुत्री से राजवधु बन गईं थीं। प्रतिदिन ब्रह्म मुहूर्त में उठना, सबसे पहले स्नान पूजन सूर्य को अर्ध्य देकर अपनी दिनचर्या आरंभ करने का क्रम यहाँ यथावत रखा। इससे पूरा परिवार प्रभावित हुआ। वे अपनी माता की भाँति अच्छी समन्वयक थीं। यह देखकर घर के अधिकांश कामों का दायित्व उन्हें ही मिल गया। समय के साथ 1745 में उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम माले राव रखा गया।

1748 में पुत्री को जन्म दिया। पुत्री का नाम मुक्ता बाई रखा गया। 24 मार्च 1754 में कुंभेर के युद्ध में तोप का गोला लगने से पति खाँडेराव की मृत्यु हो गई। तब अहिल्याबाई की आयु मात्र 29 वर्ष थी। वे पति की चिता के साथ सती होना चाहती थीं लेकिन श्वसुर मल्हारराव जी ने बच्चों का वास्ता देकर रोक लिया। तब बेटे मालेराव की उम्र मात्र नौ वर्ष और बेटी मुक्ताबाई की उम्र मात्र छै वर्ष थी। बच्चों की ओर देखकर अहिल्याबाई मान गईं।

इस घटना के बाद मल्हारराव जी ने अहिल्याबाई को राजकाज के कामों भी सहयोग लेना आरंभ किया। अहिल्याबाई ने घर के भीतर का समन्वय बहुत कुशलता से संभाला हुआ। इसका प्रभाव मल्हारराव जी पर था। इसलिये उन्होंने अहिल्याबाई को आंतरिक व्यवस्था के समन्वय और सूचना एकत्र करके उन्हें पहुँचाने का काम सौंपा। 23 अगस्त 1766 में मल्हारराव होल्कर की मृत्यु हुई।

तब मल्हारराव होल्कर के पौत्र और अहिल्या बाई के पुत्र मालेराव ने सिंहासन संभाला लेकिन वे केवल एक वर्ष भी शासन न संभाल सके। 5 अप्रैल 1767 में मालेराव की भी मृत्यु हो गई। तब अहिल्याबाई चाहतीं थीं कि तुकोजीराव शासन व्यवस्था संभाल लें। तुकोजीराव होल्कर परिवार के ही सदस्य थे और वे स्वर्गीय महाराज मल्हारराव होल्कर दत्तक पुत्र माने जाते थे। पर तुकोजीराव तैयार नहीं हुये। अंततः दिसम्बर 1767 में अहिल्याबाई ने स्वयं शासन संभाला।

उन्होंने लगभग अट्ठाइस वर्ष तक शासन किया। उन्होंने सबसे पहले अपने राज्य में सुरक्षा व्यवस्था सुदृढ की। 1767 का समय पूरे भारत में अस्थिरता का समय था। मुगल सल्तनत कमजोर हो रही थी। अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण और मराठा शक्ति में भी कमी आ रही थी। ऐसे में पठानों, रूहेलों और पिण्डारियों के दल पूरे भारत में लूटमार करते घूम रहे थे। उनके साथ कुछ स्थानीय समूह भी जुड़ गये। इनके भय से गाँव उजड़ने लगे, कृषिकार्य भी बाधितहुआ इससे आय भी घटी।

देवी अहिल्याबाई ने स्थानीय समूहों से सम्पर्क साधा उन्हें सुरक्षा तंत्र से जोड़कर सीमावर्ती गावों में तैनात की। देवी अहिल्याबाई की इस युक्ति से दोहरा लाभ हुआ। एक तो राज्य की सीमाएँ सुरक्षित हुईं और दूसरे शांति स्थापना से पुनः कृषि कार्य व्यवस्थित होने लगा। जिससे राज्य की समृध्दि के साथ आय भी बढ़ी। उन्होंने कृषि कार्य को बढ़ावा दिया। विशेषकर अनाज के साथ कपास दलहन, तिलहन फसलों को प्रोत्साहन दिया। कृषि उत्पादन आधारित कुटीर उद्योगों की स्थापना की। इससे समाज और राज्य दोनों की आर्थिक समृद्धि बढ़ी।

देवी अहिल्याबाई का कार्यकाल नारी कल्याण और नारी सम्मान के लिये जाना जाता है। महाराष्ट्र की भाँति महिला आत्मरक्षा टोलियाँ हर गाँव में गठित कीं और महिलाओं की एक अलग सैन्य टूकड़ी बनाई। ऐसी पाँच सौ महिलाएँ उनके सैन्य अभियान में सम्मलित होती थीं। उनकी निजी सुरक्षा में महिला टोली ही हुआ करती थी। उन्होंने महिलाओं को संपत्ति का अधिकार दिया। सल्तनतकाल में महिलाओं को कोई अधिकार न था। यदि किसी महिला के पति या पुत्र का निधन हो जाय और परिवार में पुरुष न हो तो सम्पत्ति शासन जब्त कर लेता था।

सल्तनत कजोर हुई तब भी स्थानीय रियासतों में यह कानून बना रहा। देवी अहिल्याबाई ने इसे बदला और महिला को संपत्ति का अधिकार दिया। इसके साथ उन्होंने विधवा विवाह को मान्यता थी। सबसे पहला विधवा विवाह उन्होंने एक रैणुका नामक महिला कराया तथा उसके पति को दरवार में नौकरी दी। वे जब महिलाओं की व्यथा सुनती थीं तब दरवार के पुरुषों को वहाँ रहने की अनुमति नहीं होती थी।

उन्होने अपने राज्य को भगवान शिव की धरोहर मानतीं थीं और उनके कार्य शिव को ही समर्पित होते थे। वे राज्य मुद्रा पर स्वयं हस्ताक्षर नहीं करती थीं अपितु “श्रीशंकर” की मुहर लगाती थीं। उनकी मुद्रा पर भी शिवलिंग नंदी और बेलपत्र होते थे।

उन्हे किसी से कोई लगाव नहीं था। वे व्यक्ति की योग्यता देखकर पद दिया करती थीं। उन्होंने अपनी पुत्री मुक्ताबाई का विवाह करने केलियै घोषणा की थी कि जो राज्य में शांति व्यवस्था बनायेगा उससे बेटी का विवाह करेंगी। यह काम नायक यशवंतराव फणसे से बहुत कुशलता से किया। अहिल्याबाई ने अपनी बेटी का विवाह उन्ही से कर दिया। उन्होंने पूरे भारत राष्ट्र के साँस्कृतिक पुनर्जागरण का अभियान चलाया। उत्तर में बद्रीनाथ तो दक्षिण में रामेश्वरम, मंदिरों का जीर्णोद्धार किया। उन्होंने भारत के लगभग एक सौ तीस स्थानों पर मंदिर धर्मशाला, अन्नक्षेत्र, प्रवचन कक्ष और संत निवास बनवाये।

उनके सामने आने वाली विषमताएँ भी असाधारण थीं। सुख और दुख दोनों साथ चले। फिर भी उनकी संकल्पशीलता स्थिर रही। उन्होंने पहले पति की मृत्यु देखी, फिर पुत्र की, फिर अपने दौहित्र की और फिर दामाद की। दामाद की चिता पर बेटी को सती होते हुये भी देखा। फिर भी वे स्थिर रहीं। प्रत्येक विपत्ति से अधिक सुदृढ होकर निकलीं। वे जीवन की प्रत्येक भूमिका में उत्कृष्ट रहीं।

एक बेटी के रूप में, एक बहू के रूप में, एक माँ के रूप में, एक शासक के रूप में और एक यौद्धा के रूपमें भी आदर्श रहीं। इन सभी भूमिकाओं में उनका चिंतन, दूरदर्शिता और व्यवहारिक यथार्थता की झलक है। उनके कृतित्व में भारत के सांस्कृतिक गौरव की पुनर्प्रतिष्ठा और भावी पीढ़ी के निर्माण केलिये चिन्तन के सूत्र भी है। उनका पूरा जीवन कर्त्तव्य पथ पर चलते हुये राष्ट्र और सनातन संस्कृति के लिये समर्पित रहा।

उन्होंने 13 अगस्त 1795 को इस संसार से विदा ली। तब उनकी आयु सत्तर वर्ष की थीं। उनका अपने निजी जीवन में कोई व्यय नहीं था। जो भी था दान दक्षिणा और जन सेवा में ही व्यय होता। जब उन्होंने देह त्यागी तब उनके निजी कोष में अस्सी करोड़ रुपया था और इंदौर राज्य की गणना भारत के सर्वाधिक समृद्ध राज्यों में होती थी।

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं।

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