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प्रकृति, मानव संस्कृति और कला : आनंद के प्रेरणा स्रोत

डॉ पंचराम सोनी

मनुष्य की पहचान कही जाने वाली मानव संस्कृति और इसमें रची – बसी कृत कला रूपों की प्रेरणा स्रोत एवं मूल आधार विषयक सवाल पर अध्ययन कर हम पाते है कि, आनंद उत्सर्जना के हेतु, सृजित समग्र सृष्टि की मूल स्रोत है प्रकृति, जिसका आधार परम्तत्व माना जाता है। शिक्षा – दीक्षा के द्वारा कला – रूपों को अर्जित करने की परिस्थितियां इसकी लिपिबद्धता, मुद्रण या शास्त्रीयकरण इसके विकास के क्रम है; जो बाद के परिष्कृत स्वरूप कहे जा सकते हैं वस्तुत; ये मानव सभ्यता की विकास से संबंध हैं। सुदूर विस्तृत जगत में जहां तक जीवन एवं जीवन की संभावनाएं हैं, सभी प्रकृति के ही अंग हैं। इन्हीं जीवन में मानव भी एक है। मनुष्य जीवन की प्रमुख विशेषता है, इसकी ‘‘चेतना शक्ति’’ जिसमें जीवन की संपूर्ण कलाओं के प्रतिमान प्रकृतिगत विद्यमान हैं।

मानव, जीवन में जगत के नाना विध पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, ग्रह-नक्षत्र, वर्षा बाढ़ बिजली- तुफान आदि की विलक्षणता को देख इन पर विचार करने लगा ‘‘ये सब क्या है? ‘‘भूख से अन्न को, प्यास से पानी को, शीत – उष्णता से शारीरिक सुरक्षा के साथ उनसे बचने के लिए अनेक प्रकार के उपायों को समझने लगा। इसकी जीवन धारा में जब कुछ स्थिरता आई तब इसके अंतर-मन में अनुभूतियां जाग्रत होने लगी। यह जो कुछ देखता और उन पर विचारता रहा उन सब के विषय में कुछ कहने को इसका मन इसे उद्वेलित करने लगा।

विविध विध चित्रांकनों में विविध पशु-पक्षियों, प्रकृति की आकर्षक दृश्यों, शिकार कृषि, व्यापार के साथ नाच-गाना, साधना-उपासना, उनके प्रतीक चिन्हों के चित्रण को मनुष्य अपनाता गया; जो भाषायी विकास के पूर्व अभिव्यक्ति के साधन रूप हैं। ये मानवीय चेतना में भावनाओं विचारों तथा अनुभूतिगत संप्रेषण के मुख्य साधन रूप हैं। इस रूप में आदिम जीवन शैली की जीवन्त गाथा मूक चित्रण व्यक्त करती है। यही पूर्व के पाषाण कालीन चित्र कला के प्रारंभिक स्वरूप होने के साथ ही साथ चित्रण प्रवृत्ति एवं सांस्कृतिक विकास क्रम के परिचायक भी है। इन कला रूपों की प्रतिष्ठा में मंगलकारी भावना निहितार्थ है।

कला का अभिप्राय कुछ ऐसा करने से है, जो देखने – सुनने में सुन्दर और मनभावन लगे। प्रकृति से अधिक समीप होने से चित्रों में सहजता सरलता स्वाभाविक रूप से दृष्टि गोचर होती है। इनमें तत्कालीन सभ्यता, वैभव का चित्रण सांस्कृतिक पहचान है। इन कला रूपों में आंतरिक कला अभिव्यंजना की प्रस्तुति एवं पूर्ति होती है, जो प्रारंभिक आनंद से उत्प्रेरित हैं। इस रूप में समग्र कला-रूपों का आदि स्रोत उस आनंद को प्रेरित करने वाली संस्कृति कही जा सकती है। नृत्य, उपासना में आनंद, जनगढ़ चित्रों में, आकृतियों में आनंद की अनुभूति ही व्यक्त करती हुई प्रतीत होती है। इस लिए यहां यह कह सकते है कि, आनंद की समग्र अभिव्यक्ति हमारी संस्कृति में विद्यमान है। ललित कला में संगीत के पश्चात् चित्रकला सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना गया है, जिसमें जन-मानस में संप्रेषण और समझ की प्रमुखता झलकती है। रूप एवं भावों की अभिव्यक्ति में विविधता भारतीय सांस्कृतिक धरोहर की समृद्ध शैली लोक जीवन में प्रदर्शित है।

कला और संस्कृति जीवन का वह स्वरूप है जिसमें अभिव्यक्ति, विषय तथा आकार प्रकार में विविधता परिलाक्षित होती है। कल्पना व भावना कला में उप्रेरक तत्व है; जो वाह्यांतर परिवेश से संबद्ध होती हैं। परिणाम स्वरूप मानवीय चेतना में कलात्मक अभिव्यक्ति की अनुभूति जाग्रत होती है। हमारी संस्कृति इस जागृति की मूर्त स्वरूप या कृति है। दूसरे शब्दों में कला मानवीय कल्पना की प्रथम गुरू प्रकृति ही है। सतत् साधना एवं प्रशिक्षण से इनमें विशिष्टता आती है। साधक अपनी साधना तथा कला की प्रेरणा से अनेक वस्तुओं को अनेक रूपों में गढ़ देता है।

यह मानव मन की कलात्मक और सांस्कृतिक चेतना का प्रतिफल है, जिससे कोई कला जब किसी व्यक्ति पर आरूढ़ हो जाये, तो वह व्यक्ति कलाकार कहलाने लग जाता है। कलाकार अपनी कलाकारी के चलते मानव के साथ ही साथ विविध पशु-पक्षी, उनके कार्य, व्यवहारों अनेक बहुविध सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्यों, कथाओं तथा वैविध्यपूर्ण प्रकृति द्वारा संरचित परिदृश्यों को रंगों के सहारे कलात्मक रूपों में चित्रित करने लग जाता है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं जब वह संस्कृति के रूप में मानव जीवन को आलोकित करने लग जाये।

कला के प्रति समर्पण अपने आस-पास की विविध परिस्थितियों में अनेक परिवर्तनों के बाद भी व्यक्ति को पारंपरिक कला रूपों से पृथक नहीं होने देती और नही कला की साधना एक लंबे अंतराल के बाद भी अपने मूल साधनों से वंचित होने देती है, बल्कि परिवर्तित परिस्थितियां एवं तत्कालिक बाधाएं कला समर्पित, साधक व्यक्ति को या उत्तराधिकारी को अपनी परंपरा तथा अपने कला रूपों के साथ वर्तमान में सजीव उपस्थित के लिए एक अतिरिक्त कला व समझ प्रदान करती रही है। कलाकारी किसी वस्तु पर हो या मानव अंगों, उपंगों पर वह मन को हरने वाली मनोहारी अवश्य होती है। कला के प्रति समर्पित साधक कला रूपों में डूबकर कलामय हो जाता है। वह स्वयं कला का प्रतिमान बन जाता है। कलामय जीवन की यह अजस्र धारा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी इतराती, इठलाती, बलखाती बहते जाती है। इसकी झिलमिल तरंगों की चमक में और चमक की चका-चौंध में मानव सदैव से चमत्कृत होता रहा है।

प्रत्येक संस्कारगत परंपराएं पीढ़ी दर पीढ़ी बरगद की दाढ़ी के समान शाखा दर शाखा उत्सर्जित एवं विन्यस्थ होती जाती है। किसी सामग्री का होना आवश्यक होता है, ठीक उसी प्रकार से उस सामग्री या कला रूप के निर्माण की भी एक सतत् क्रियाशील परंपराएं हुआ करती है; और जिस प्रकार से सामग्रियों के उपयोग करने की परंपराएं प्रचलित होती हैं, ठीक उसी प्रकार से निर्माण कारी पारिवारिक परंपराएं पीढ़ीदर पीढ़ी चलते रहती हैं। तात्पर्य यह है कि, सामाजिक जीवन में किसी वस्तु विशेष की किसी संदर्भ या अवसर विशेष पर किसी परिवार विशेष में निर्माण करने की परंपराएं भी हुआ करती हैं, और ये दोनों परंपराएं पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली होती हैं। वस्तुतः यह वह पांपारिक प्रथाएं है, जो समाज के लोगों को आपस में जोड़े और बांधे रखती हैं। मानव जीवन में अनेक अवधारणाएं एवं परंपराएं प्रचलित हैं, इनके मध्य मानवीय संबन्धों के भी अनेक उदाहरण उपलब्ध होते हैं।

कला का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। कला का इतिहास अति प्राचीन है। मानव की उत्पत्ति ही कला की विशिष्ट सृजनात्मकता से हुई और मानव जीवन के साथ कला भी विकसित होती गई है। मनुष्य की सृजनात्मक दृष्टि जब-जब किसी वस्तु पर पड़ी है, तब-तब उसके आकार, प्रकारों में एक नया पन आया, उसकी अभिव्यक्त स्वरूप एवं प्रवृत्ति में परिवर्तन के साथ उसके प्रति आकर्षण में वृद्धि हुई और उसका महत्व एवं मूल्य बढ़ा है। इन कला रूपों के साथ उस कला के प्रति समर्पित कला साधक व्यक्ति की कार्य शीलता तथा कला की चेतना विकसित हुई, जिसमें समग्र मानव समाज आलोकित है। जिस रूप में चित्रकारी स्वरूप ग्रहण कर के सम्मुख आती है, मनमोहक होती है। इसके आकर्षण के पीछे कारण आधुनिक स्वरूप या साधनों की उपलब्धता भी हो सकती है। वर्तमान परिवेश के प्रभाव को भी मान सकते हैं। एक लम्बे अंतराल के बाद पुराने कला का पुनः आंतरिक बाध्यता से भी इन्कार नहीं किया जा सकता।

इसमें मूलतः जो भी कारण हो पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि कला के प्रति मानव मन में सहज स्वाभाविक झुकाव प्रकृति प्रदत्त है। चाहे किसी भी रूप में कला की प्रस्तुति हमारे सम्मुख होती है, हम प्रभावित होते हैं। यही तो है हमारी संस्कृति की देन वह ललित कला जिसके लालित्य की लहर में कला रसिक मानव मन उतरने, उतराने और गोता लगाने को ललकते रहता है। यही तो है हमारी पारंपरिक कलाओं की लालित्य और लालायित कर देने वाली हमारी संस्कृति की छटा।

लेखक छत्तीसगढ़ी संस्कृति के जाने माने अध्येता है। 

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