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न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा पर गंभीर आरोप, तीन-सदस्यीय जांच समिति ने ‘दुराचार’ का ठहराया जिम्मेदार

दिल्ली स्थित आधिकारिक आवास में आग लगने और वहां से बड़ी मात्रा में अधजली नकदी मिलने के मामले में न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा पर गंभीर सवाल उठे हैं। एक उच्च स्तरीय न्यायिक जांच समिति ने उन्हें इस मामले में “आचरणहीनता” का जिम्मेदार ठहराया है और कहा है कि बतौर न्यायाधीश, उनके ऊपर यह “निहित जिम्मेदारी” थी कि वे ऐसे किसी संदिग्ध वस्तु को अपने आवास पर न रखें।

तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों — पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस शील नागू, हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जी.एस. संधावालिया और कर्नाटक उच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति अनु शिवरामन — द्वारा तैयार की गई 64 पृष्ठों की रिपोर्ट 4 मई को तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना को सौंपी गई थी। इसके बाद यह रिपोर्ट राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भेजी गई, और अब केंद्र सरकार संसद के मानसून सत्र में न्यायमूर्ति वर्मा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने की तैयारी कर रही है।

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रिपोर्ट में कहा गया है कि, “जब सरकार किसी सार्वजनिक सेवक को आवास उपलब्ध कराती है, तो इसके साथ यह जिम्मेदारी भी जुड़ी होती है कि वह उस स्थान को ऐसे किसी भी सामान से मुक्त रखे, जो आम नागरिक की नजर में संदेह उत्पन्न कर सकता है।”

आग बुझाने के दौरान जिस प्रकार से आधी जली हुई बड़ी राशि की नकदी मिली, उसे समिति ने “अत्यंत संदेहास्पद” करार दिया। रिपोर्ट में कहा गया, “इतनी बड़ी मात्रा में नकदी न्यायमूर्ति वर्मा या उनके परिजनों की जानकारी या सहमति के बिना वहां रखी नहीं जा सकती थी।”

समिति ने यह भी तर्क दिया कि इतनी सख्त सुरक्षा वाले सरकारी आवास में — जहाँ एक स्थायी 1+4 सुरक्षा गार्ड, एक पीएसओ और घरेलू सहायक तैनात रहते हैं — इस तरह की नकदी “रखी नहीं जा सकती थी” जब तक कि उसमें घर के अंदर रहने वालों की भूमिका न हो।

हालांकि, समिति ने पुलिस की कार्रवाई पर टिप्पणी करने से परहेज़ किया, लेकिन टुगलक रोड पुलिस द्वारा घटनास्थल का पंचनामा न बनाने को “लापरवाहीपूर्ण” बताया।

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रिपोर्ट में उल्लेख किया गया कि समिति ने 55 गवाहों के बयान दर्ज किए, जिनमें खुद न्यायमूर्ति वर्मा और उनकी बेटी भी शामिल थे। यह प्रक्रिया ‘प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों’ के तहत की गई, हालांकि इस दौरान न तो गवाहों से जिरह की गई और न ही किसी भी पक्ष को वकील रखने की अनुमति दी गई।

समिति ने सुप्रीम कोर्ट के 2015 के फैसले (Additional District Judge बनाम Registrar General, MP High Court) का हवाला देते हुए कहा कि यह कोई औपचारिक न्यायिक जांच नहीं थी, बल्कि तथ्यों की खोज के लिए की गई एक प्रशासनिक जांच थी। सभी बयानों की वीडियो रिकॉर्डिंग भी की गई, ताकि बाद में कोई कानूनी विवाद न उत्पन्न हो।

अब इस मामले ने न्यायपालिका की साख और पारदर्शिता को लेकर नई बहस छेड़ दी है। आने वाले संसद सत्र में इस मुद्दे पर गरमा-गरम चर्चा होने की संभावना है।