आस्था-विश्वास और संस्कृति की प्रतीक ग्राम कोसीर की कौसलेश्वरी देवी
कोसीर/ कोसीर में विराजमान सिद्धिदात्री मां कौसलेश्वरी देवी की मंदिर में कुवांर व चैत्र नवरात्री पर आस्था के सैकडों द्वीप प्रज्जवलित किये किये जाते हैं । रायगढ जिले के सबसे बडे गाँव कोसीर सारंगढ विकास खण्ड से महज 16 कि मी दूर पश्चिम दिशा में स्थित है।
भौगोलिक दृष्टि से ग्राम कोसीर की बसाहट रायगढ जिले के अंतिम छोर पर है। उत्तर दिशा में महानदी है जो जांजगीर चाम्पा सरहद मुख्यमार्ग को जोडती है और वर्तमान में नये जिले बलौदाबाजार एवं रायपुर, बिलासपुर मुख्यमार्ग को जोडती है । ग्राम कोसीर ऐतिहासिक नगरी है जो शासन प्रशासन की नजरों से अछूती रही है।
इतिहास पर गौर किया जाये तो ग्राम कोसीर ऐतिहासिक गांव है जहां सत्रहवीं शताब्दी की मूर्ति के अवशेष यत्र-तत्र बिखरे पडे हैं। कोसीर के मध्य में मां कौसलेश्वरी देवी का मंदिर स्थित है। कोसीर को ग्रामीण पर्यटन के रूप में स्थापित किया जा सकता है। पर्यटन की आपार संभावनायें है लेकिन रायगढ जिले के अंतिम छोर पर बसाहट के कारण शासन प्रशासन और साहित्यकारों के नजर से कोसों दूर है।
छत्तीसगढ के बुद्धजीवी साहित्यकारों को अध्ययन करने की आवश्यकता है, यही नहीं रायगढ जिला के साहित्य में कोसीर के मंदिर का जिक्र भी नही होता जबकि कोसीर की मां कौसलेश्वरी देवी का मंदिर ऐतिहासिक और प्राचीन मंदिर है।
रायगढ जिले के पुरातत्ववेता साहित्यकार स्वर्गीय पंडित लोचन प्रसाद पाण्डे जी एवं साहित्यकार ईश्वर शरण पाण्डे जी ने भी कोसीर मंदिर का अपने लेखों में कभी-कभार जिक्र किया है। वहीं कोसीर के स्थानीय साहित्यकार तीरथराम चन्द्रा ने कौसलेश्वरी महात्मय में मां की गुणगान किया है। युवा पत्रकार गोल्डी कुमार लहरे ने भी अपनी लेखनी में मां कौसलेश्वरी का भी गुणगान किया है।
पिछले वर्ष 2011 में श्री श्री अग्नि शिखा महाराज जी कोसीर मंदिर दर्शन करने पहुंचे थे तब वे मां कौसलेश्वरी देवी की मूर्ति को देखते ही बोल उठे कि मां कौशिकी देवी है जिसे आप लोग कौसलेश्वरी देवी के रूप में पूजते हैं। यही नहीं छत्तीसगढ के रामायण के लेखक डॉ मन्नूलाल यदु कोसीर पहुंचकर गांव को घूमे और बैठक लेकर बताए कि कोसीर का जिक्र वाल्मिकी रामायण में है। कोसीर का पौराणीक नाम कुशावती है, श्री राम भगवान ने कोसल क्षेत्र में वन भ्रमण किया था। राम भगवान के पुत्र कुश की नई राजधानी कोसीर रहा है ।
इतिहास के आईने में माँ कौशलेश्वरी देवी – एक अपूर्व आकर्षक, आध्यात्मिक वातावरण जहाँ भेद-विभेद भौतिक जगत से परे सिद्धिदात्री के रूप में विराजमान माँ कौसलेश्वरी देवी का एक अलौकिक संसार है और वह ऐतिहासिक नगरी कोसीर छत्तीसगढ के रायगढ जिला के गांव कोसीर चित्रोत्पल्ला महानदी के पावन तट पर स्थित है।
प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण कोसीर प्राचीन संस्कृति व इतिहास का मूक साक्षी है। जगत जननी माँ कौसलेश्वरी की अपूर्व छवि एवं अनंत शक्ति पर भारतीय मनीषा आधारित है। अनंत सौन्दर्य और विपुल उर्जा के प्रतीक ढुकुलिया तालाब के उपर यह मंदिर स्थित है। जीवन के संघर्ष में सदैव मातृकृपा से विजय श्री ही हाथ लगती है इस भाव के सम्बल को लेकर भारतीय मानस ने अनेक मातृ उपासना केन्द्रों का निर्माण किया।
जिसमें चन्द्रपुर की मां चन्द्रहासिनी का धाम कोरबा की सर्वमंगला, मल्हार की डिंडनेश्वरी, डोंगरगढ बम्बलेश्वरी, सारंगढ समलाई, रायगढ बूढीमाई कोसीर की मां कुसलाई दाई(कौसलेश्वरी देवी )का मंदिर अलौकिक स्थान हैं जहां माँ की पूजा अर्चना के लिये दूर दराज से लोग आते हैं और अपने को धन्य मानते हैं।
मंदिर का इतिहास -ग्राम कोसीर पुरातत्विक महत्व की सामग्री से युक्त प्राचीन वैभवशाली सांस्कृतिक भूमि का एक अप्रमित व अछूता सा अध्ययन है। यहां लगभग 11वीं शताब्दी की कल्चुरी कालीन सभ्यता के अवशेष पर्याप्त मात्रा में सुदूर क्षेत्र में फ़ैले हुए है। ग्राम का मध्य भाग उभरे टीले की तरह है। जिसके चारों ओर प्राचीन समय में खाइयॉ रही होगी जो अब छोटे छोटे तालाब के रूप में शेष रह गई है।
स्थानीय लोगों के बीच रंगसगरा तालाब, रंजीता मैदान अर्थात पुराने रजवाडों से संबंधित रण का सागर और रण अर्थात युद्ध होता है। ये स्थल युद्ध स्मारकों का बोध कराते हैं। इसके पश्चात मडफोर्ट जैसे सामान्य अवशेष दृष्टिगोचर होते हैं। समय-समय पर इन तालाबों में हड्डियों केअवशेषों के साथ ग्रामीणों द्वारा मिट्टी उत्खनन के समय विभिन्न प्रकार की छोटी बड़ी मूर्तियाँ प्राप्त होती है।
प्रमुख मूर्ति प्राचीन लाल व भारी पत्थरों के नींव पर आधारित माँ कौसलेश्वरी मंदिर मे स्थापित है। यह मूर्ति महिषासुर मर्दिनी देवी की है इसकी विशेषता है कि इसमें देवी असुर का वध कर रही है। जो मध्य में है जिसके नीचे देवी का वाहन सिंह खडा प्रतिमा के पैरों से जुड़ा हुआ है। देवी की मूर्ति सम्पूर्ण श्रृंगारिक है। इसमें उन्हें त्रिशूल धारण किये हुए दर्शाया गया है।
कलात्मकता की दृष्टि से देवी की मूर्ति के समीप ही अव्यवस्थित पत्थर का चौकोर स्तंभ लगभग 10 फिट ऊँचा है। आसन के समान चार पैरयुक्त मढिया, दिवारों के पत्थरों पर बनी पद्म सदृश्य फूलों की आकृतियां, मंदिर के दरवाजे के पास कड़ियो की श्रृंखला के समान नक्काशी प्राचीन काल की वास्तुकला को अभिव्यक्त करती हैं। मंदिर के अवशेष के रूप में प्राचीन नींव आज भी आयताकार भारी पत्थरों से निर्मित है। सम्पूर्ण ग्राम में इस प्रकार के पत्थर स्तंभ के टुकडे, खण्डित मूर्तियाँ यत्र-तत्र बिखरी पड़ी हैं।
मंदिर में देवी की पूजा – मंदिर में देवी का पूजा -पाठ शुरू से ही आदिवासी बैगा परिवार करते आ रहे है और आज तक उन्ही के द्वारा किया जा रहा है। मां कौसलेश्वरी देवी को ग्राम्य देवी के रूप में पूजी जाती है । मंदिर में जो भी चढावा आता है, उसे बैगा परिवार रखता है ।
बलि प्रथा – मंदिर के आंगन में कुसलमुडिया देव की सर कटा मूर्ति है, जहां पर भक्त अपनी मन्नत पुरी होने पर बकरा की बलि देते हैं। पहले भैंसा की बली चढती थी परन्तु वर्तमान में बंद कर दिया गया है । कुंवार और चैत नवरात्री को नवमी के दिन गांव के नाम से 03 बकरों की बली चढती है, जिसे प्रसाद के रूप में सभी वर्ग ग्रहण करते है ।
देवी की महिमा – ग्रामीण देवी मां के महिमा के बारे में कहते है नवरात्र पर्व पर माँ का स्वरूप 9 दिन तक अलग-अलग रूप में दिखाई देता है। बुजुर्ग ग्रामीण कहते हैं कुंवारी कन्या उपवास रह कर पूजा करती हैं तो इच्छित वर की प्राप्ती होती है। उपासक सुबह शाम मंदिर पहुच कर पूजा अर्चना करते हैं।
आलेख एवं छायाचित्र
लक्ष्मीनारायण लहरे, कोसीर