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परंपरा, संस्कृति और सामाजिक समरसता का त्यौहार होली

रंग और उमंग के त्यौहार होली में संस्कृति और परंपरा के विविध आयाम है। इसमें समाज जीवन की सात्विकता, सकारात्मकता शैली का संदेश है तो व्यक्तित्व निर्माण और सामाजिक समरसता का भी अद्भुत संदेश है। होलिका उत्सव फाल्गुन पूर्णिमा को मनाया जाता है। पूर्णिमा से आठ दिन पहले होलिकाष्टक से इस उत्सव का आरंभ होता है। गाय के गोबर से मलरियाँ बनतीं हैं। और फाल्गुन पूर्णिमा को पूजन होता है।

पूर्णिमा की शाम को पवित्र स्थान चयन करके एक दंड स्थापित करके पूजन करना होता है। यह स्थान घर के भीतर चौगान या ऑगन भी हो सकता है या बाहर कहीं सार्वजनिक मैदान में भी। अग्नि प्रज्वलित करके गेहूँ की बालियाँ सेकीं जातीं हैं और पिछले आठ दिनों से घरों बन रहीं गोबर की मलरियाँ अग्निको समर्पित की जातीं हैं। फिर एक दूसरे को शुभ कामनाएँ देना, गले मिलना होता है।

अगले दिन नृत्य गीत, चल समारोह, एक दूसरे के घर जाना, रंग डालना, गुलाल लगाना आदि। यह परंपरा पूरे संसार में एक समान है। कहीं कहीं होलिका अग्नि में नई फसल की बालियाँ सेकने और मलरियाँ बनाने की परंपरा विलुप्त हो गई है। होलिकोत्सव में यह विभिन्न परंपराएँ और पूजन प्रक्रिया अतीत में घटीं विभिन्न घटनाओं का प्रतीक हैं और भविष्य में व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र निर्माण के लिये अद्भुत संदेश हैं ।

उत्सव के पौराणिक आख्यान

होलिकोत्सव की सभी परंपराएँ अलग अलग घटनाओं से संबंधित हैं। हर घटना की अपनी कहानी और संदेश है। पौराणिक कथाएँ अतीत की घटनाओं का प्रस्तुतिकरण तो हैं ही पर उनमें मानव समाज के निर्माण का संदेश भी है। इसलिए अनेक घटनाओं एक सूत्र में संयोजन यह होलिकोत्सव है।

पौराणिक संदर्भ में पहली कथा शिव और शक्ति के मिलन से जुड़ी है। दूसरी कामदेव के भस्म होने के बाद देवि रति के पुनर्मिलन से है। इन दोनों में वासना रहित शुद्ध सात्विक और आत्मीय स्नेह मिलन का संदेश है। तीसरी कथा त्रेता युग में भगवान विष्णु द्वारा पृथ्वी के अंश धूलि वंदना की मिलती है। चौथी कथा होलिका दहन की है। यही कथा सर्वाधिक प्रचलित है। लेकिन होलिकोत्सव के पूरे आयोजन में इन सभी कथाओं की झलक भी है और संसार के लोक जीवन को आदर्श बनाने का संदेश भी है।

होलिका दहन की जो कथा सर्वाधिक प्रचलित है उसके अनुसार हिरण्यकश्यपु अपने पुत्र प्रह्लाद को जलाकर मार डालना चाहता था। होलिका उनकी बहन थी। होलिका के पास एक वरदानी चादर थी जिसपर अग्नि कोई प्रभाव नहीं होता था। देवि होलिका भतीजे प्रह्लाद को लेकर चिता में बैठीं, अग्नि प्रज्वलित हुई। तभी चमत्कार हुआ वह चादर प्रह्लाद पर लिपट गई और देवि होलिका का दहन हो गया। यह घटना अवध में घटी। इसका मूल स्थान अवध का हरदोई है। बाद में इस उत्सव के आयोजन का प्रमुख केंद्र अयोध्या बना।

प्रह्लाद को बचाने के लिये देवि होलिका ने अपना जीवन उत्सर्ग किया। इसलिये होली माता कहा जाता है और होली की अग्नि और राख दोनों को पवित्र माना जाता है। पूजन होलिका का बलिदान का होता है और उत्सव प्रह्लाद के बचने का मनाया जाता है। सब एक दूसरे को शुभ कामनाएँ देते हैं। तिलक नारायण उपासना का प्रतीक है। इसलिए होली पर एक दूसरे को तिलक लगाया जाता है।

भगवान श्रीमन् नारायण की भक्ति की विजय की प्रतीक यह तिथि एक उत्सव के रूप में बदल गई जिसमें बसंत ऋतु का प्रभाव और नई फसलें आने का उल्लास भी जुड़ गया। और यह उत्सव कहीं दस दिन, कहीं पंद्रह दिन और कहीं डेढ़ माह तक विस्तारित हो गया। अवध से होलिकोत्सव पहले पूरे भारत में विस्तारित हुआ और अब दुनियाँ के आधे से ज्यादा देशों में होलिकोत्सव मनाया जाता है।

सामाजिक समरसता और व्यक्तित्व निर्माण का संदेश

भारत की कोई भी परंपरा निरर्थक नहीं है। व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र निर्माण का उद्देश्य इन उत्सव परंपराओं में निहित है। होलिकोत्सव की कथाओं और मनाने की रीति में भी यही उद्देश्य है। होलिकोत्सव की आरंभिक दोनों कथाएँ जो शिव और पार्वती के मिलन और कामदेव के भस्म होने की हैं, इनमें वासना रहित प्रेम और मिलन के उल्लास का सात्विक स्वरूप है। वासना रहित सात्विक प्रेम ही जीवन में ऊर्जा देता है। जबकि वासना जीवन का ह्रास करती है।

होलिकोत्सव का सबसे बड़ा संदेश सात्विक प्रेम का ही है। इस उत्सव में नारायण द्वारा धूलि की वंदना और शिव द्वारा धूलि को माथे पर धारण करना सूक्ष्मतम पदार्थ के महत्व के स्मरण का प्रतीक है। इसी स्मृति को दूसरे दिन धुलेंडी के नाम से जाना जाता है। एक दूसरे को रंग गुलाल लगाकर गले मिलने का संदेश समाज के समरस स्वरूप का है। इस दिन किसी का चेहरा स्पष्ट नहीं दीखता सब मानों आत्मीयताऔर उल्लास के रंग में एक रूप हो जाते हैं। समाज में कोई क्षण ऐसा अवश्य हो जब न कोई छोटा हो, न कोई बड़ा, न निर्धन, न धनी, न उम्र का कोई बंधन हो और न रंग रूप का कोई भेद। पूरा समाज एक रंग में हो। सब एक दूसरे को देखकर आनंदित हों।

सामाजिक समरसता का इससे बड़ा उदाहरण और प्रयास कोई दूसरा नहीं हो सकता। इस उत्सव का दूसरा महत्वपूर्ण संदेश व्यक्तित्व के निर्माण का है। व्यक्तित्व का सृजन गर्भाधान से ही आरंभ हो जाता है। गर्भाधान संस्कार के समय माता के भाव क्या हैं, पिता के भाव क्या हैं और किस वातावरण में बच्चे की परवरिश की जाती है। इसका उदाहरण बालक प्रह्लाद से समझा जा सकता है।

माता कयादू ने देवर्षि नारद के आश्रम में रहकर अपने बालक को ऐसे संस्कार दिये जिससे प्रह्लाद एक आदर्श बना। वह सैकड़ो हजारों साल बाद भी सम्मान सहित स्मरण किये जाते हैं। जबकि हिरण्यकश्यपु का व्यक्तित्व विसंगतियों से भरा है। ये विसंगतियाँ उन्हें गर्भाधान की पृष्टभूमि  माता के तनाव से मिलीं। माता दिती का मानसिक तनाव भावना का अतिरेक और पिता कश्यप ऋषि की रोषभरी खीज पुत्र हिरण्याकश्यप में देखी गई। इस त्यौहार की इन कथाओं के माध्यम भारतीय मनीषायों ने जहाँ आदर्श व्यक्तित्व निर्माण का संदेश दिया तो इस त्यौहार को मनाने का तरीका समाज को एक सूत्र में बांध कर रखने का संदेश देता है।

यह त्यौहार रवि की नयी फसल के आने पर मनाया जाता है। फसल के लिये कठोर परिश्रम लगता है। तब उपलब्धि होती है। अर्थात उत्सव नृत्य गीत का आयोजन परिश्रम के सफल परिणाम के बाद ही होना चाहिए।

 होलिकोत्सव में अवध और ब्रज का प्रभाव

होलिकोत्सव सर्वाधिक चर्चा अवध और ब्रज की होली की होती है। इसके दो कारण हैं। एक तो यह माना जाता है कि होलिकोत्सव का आरंभ अवध से हुआ। हिरण्याकश्यप का जन्म और भगवान नरसिंह अवतार अवध क्षेत्र में हुआ। होली के गीतों में रामजी और सीता जी के होली खेलने का उल्लेख आता है। इससे अवध और रामजी का संदर्भ जुड़ा।

दूसरा श्रीमद्भागवत महापुराण के दसवें स्कंध में रास का वर्णन आता है। यह रास भगवान श्रीकृष्ण और गोपियों के बीच हैं। समय के साथ इस रास का विस्तार होलिकोत्सव के रूप में हो गया। समय के साथ लट्ठमार और कहीं कहीं कीचड़ लगाने, कपड़े फाड़ने, आग का अंगारा फेकने की जैसी कुछ परंपराएँ भी जुड़ गई हैं पर लट्ठमार होली का आयोजन ब्रज में अनूठा है जिसे देखने के लिये दुनियाँ भर में आकर्षण रहता है।

ब्रज की यह लट्ठमार होली बरसाने में होती है। इस परंपरा की लोक कथाएँ अलग अलग हैं।  इस तरह बरसाने की लट्ठमार होली, ब्रज के होली गीत और अवध में होली विधान की छाप बहुत स्पष्ट है। अवध की होली मंदिरों से आरंभ होती है। भगवान श्रीराम माता सीता सहित सभी प्रतिमाओं को क्रमशः चंदन रोली सहात रंग गुलाल अबीर का तिलक किया जाता है।

इसी प्रकार ब्रज में होली का आरंभ भी मंदिरों से होता है। भगवान श्रीकृष्ण और राधारानी को रंग गुलाल लगाकर। इसके अतिरिक्त सार्वजनिक आयोजन भी पूरी गरिमा के साथ होता है। कोई अशिष्टता नहीं बहुत आदर्श गीतों के साथ। चूँकि लट्ठमार होली परंपरा से इतर उत्सव मनाने की अन्य शैली समान है तो स्वाभाविक है कि किसी एक स्थान का प्रभाव दूसरे पर रहा होगा ।

होलिकोत्सव की प्राचीनता

अतीत के आख्यानों में जहाँ तक दृष्टि जाती है होलिकोत्सव का विवरण मिलता है। वर्तमान सभ्यता के पहले आर्य सभ्यता के साहित्य में तो होली का विवरण है ही मोहन जोदड़ों की खुदाई कुछ चिन्ह ऐसे भी मिले हैं मानों एक दूसरे पर पानी फेका जा रहा है। लगता है यह होलिकोत्सव के ही प्रतीक चिन्ह हों। होली का वर्णन और विवरण हर युग साहित्य रचना में मिलती है।

पुराणों में भी और श्रृंगार के संस्कृत साहित्य में भी। श्रीमद्भागवत के दशवें स्कंध में रास वर्णन मानो होलिकोत्सव के नृत्य का ही रूप है। हर्षचरित की प्रियदर्शिका, रत्नावली एवं कालिदास के कुमार संभवम् , मालविकाग्निमित्रम्, में होलिकोत्सव का उल्लेख आता है वहीं ऋतुसंहार में एक पूरा सर्ग ही ‘वसन्तोत्सव’ पर है।

संस्कृत साहित्य में वसन्त के साथ होली की चर्चा है। हिन्दी साहित्य में भी चंद बरदाई, कवि विद्यापति, सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर, जायसी, मीराबाई, कबीर, बिहारी, केशव, घनानंद आदि आधिकांश कवियों का प्रिय विषय होली रहा है। भारत भ्रमण पर आने वालों के विवरण में भी होलिकोत्सव का उल्लेख है। इसमें चीनी यात्री ह्वैनसाँग और मध्य एशिया के अलबरूनी भी हैं।

अंग्रेज लेखकों ने भी होली का पर्याप्त वर्णन किया है। महाकवि सूरदास ने वसन्त एवं होली पर 78 पद लिखे हैं। साहित्य की सभी प्रस्तुति में बसंत का पर्याय होली है और इसे अनुराग और प्रीति माना गया है। आगे चलकर यह सात्विक अनुराग का प्रतीक राधा कृष्ण के बीच खेली गई होली बनी। अनेक सूफी संतों और बहादुर शाह जफर शायरों ने भी होली गीत लिखे हैं। आधुनिक हिन्दी साहित्य और फिल्मी गीतों में होली का पर्याप्त प्रस्तुतिकरण हुआ है।

भारत के बाहर भी मनाया जाता है होलिकोत्सव

होलिकोत्सव भारत में ही नहीं भारत की सीमा से बाहर विश्व के अनेक देशों में भी मनाया जाता है। भारत के सभी पड़ौसी देशों नेपाल, बंगलादेश, पाकिस्तान, म्यांमार, श्रीलंका, सुरीनाम, मारीशस, दक्षिण अफ्रीका, गुयाना, ट्ररीनाड आदि देशों के साथ अमेरिका, फ्रांस ब्रिटेन जर्मनी आदि देशों में भी प्रवासी भारतीय होलिकोत्सव मनाते हैं। काठमांडू में तो यह उत्सव एक सप्ताह तक चलता है।

अनेक कैरिबियाई देशों में बिल्कुल भारत की भाँति हर्ष उल्लास और नृत्य गीतों के साथ यह होली उत्सव मनाया जाता है। यहाँ होली को फगुआ के नाम से जाना जाता है। इसकी शुरुआत करने वाले भारतीयों के वे पूर्वज हैं जो अंग्रेजीकाल में श्रमिकों के रूप में वहाँ ले जाय गये थे। विषमता और विपरीत परिस्थिति में उन लोगों ने अपनी त्यौहार परंपराएँ संजों कर रखीं और अपने त्यौहार अपने ढंग से मनाते हैं। वहाँ उनके द्वारा गाये जाने वाले गीत स्थानीय भाषा में तो हैं पर उनका मूल भाव वही है जो भारतीय होली गीतों का है। मारिशस, गुआना, फ़ीजी और सूरीनाम के महत्वपूर्ण त्यौहारों में होलिकोत्सव की गणना होती है। गुआना में होली के दिन राष्ट्रीय अवकाश रहता है।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।

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