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ऐसे देवता जिन पर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की रक्षा दायित्व है

प्राचीन मन्दिर शिल्प में भैरव की प्रतिमा को स्थान दिया जाता है, यह प्रतिमा कई मंदिरों में मिलती है। भैरव, जिन्हें कालभैरव भी कहा जाता है, हिंदू धर्म में भगवान शिव के एक उग्र और शक्तिशाली रूप हैं। वे रौद्र रूप में शिव के अधिपति माने जाते हैं और समय, विनाश, और धर्म की रक्षा के देवता हैं। उनका मुख्य उद्देश्य अधर्म और बुराई का नाश करना और धर्म की रक्षा करना है। भैरव को विशेष रूप से श्मशान और तांत्रिक साधनाओं के देवता के रूप में पूजा जाता है। वे आठ दिशाओं के रक्षक (अष्टभैरव) के रूप में भी प्रतिष्ठित हैं।

भैरव अष्टमी, जिसे कालभैरव जयंती भी कहते हैं, भगवान भैरव के जन्म (उद्भव) का पर्व है। यह मार्गशीर्ष महीने के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाई जाती है। यह दिन भगवान शिव के रौद्र रूप कालभैरव के प्रकट होने की स्मृति में मनाया जाता है। यह दिन भक्तों के लिए आध्यात्मिक शुद्धि और नकारात्मक ऊर्जाओं से मुक्ति का अवसर होता है। भैरव को तंत्र विद्या के अधिपति माना जाता है, इसलिए इस दिन साधक तांत्रिक साधनाएं करते हैं। भैरव अष्टमी पर भैरव की पूजा करने से शत्रुओं का नाश और कष्टों से मुक्ति मिलती है।

भैरव की उत्पत्ति की प्रसिद्ध कथा शिव पुराण में मिलती है। कथा के अनुसार, एक बार ब्रह्मा, विष्णु और शिव के बीच यह चर्चा हुई कि सर्वोच्च देवता कौन है। इस दौरान ब्रह्माजी ने अहंकारवश अपने पांचवें सिर से शिव का अपमान कर दिया। इससे क्रोधित होकर शिव ने अपने तीसरे नेत्र से भैरव को प्रकट किया। भैरव ने ब्रह्मा के पांचवें सिर को काट दिया। इसके कारण भैरव पर ब्रह्म हत्या का पाप लगा और उन्हें इस दोष से मुक्त होने के लिए काशी (वाराणसी) में तप करना पड़ा। इस कारण उन्हें “काशी के कोतवाल” भी कहा जाता है। भैरव अष्टमी भक्ति, आत्मशुद्धि और शिव के उग्र रूप की आराधना का प्रतीक है।

भारत में भैरव की पूजा का प्रारंभ तंत्र साधना और शैव धर्म से जुड़ा हुआ है। यह प्राचीन समय से ही भारतीय धार्मिक परंपराओं का हिस्सा रही है। भैरव को भगवान शिव के रौद्र रूप के रूप में पूजा जाता है और उनकी आराधना मुख्यतः तांत्रिक, शैव और कश्मीरी शैव दर्शन में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, भैरव भगवान शिव के एक रक्षक और उग्र रूप हैं। उनकी पूजा अधर्म, नकारात्मक ऊर्जाओं और भय से मुक्ति पाने के लिए की जाती थी। भैरव की पहली मान्यता शिव पुराण, स्कंद पुराण और कालिका पुराण जैसे ग्रंथों में मिलती है।

कालभैरव को मुख्यतः समय और मृत्यु का अधिपति (काल का स्वामी) माना गया, और उनकी पूजा इस विचार पर आधारित थी कि वे मृत्यु और समय के भय से रक्षा कर सकते हैं। भैरव की पूजा मुख्यतः तंत्र साधना से जुड़ी हुई है, जो गुप्तकाल (3वीं-6वीं शताब्दी) में भारत में अत्यंत प्रभावशाली थी। तंत्र परंपरा में भैरव को जीवन और मृत्यु के बीच संतुलन बनाने वाले देवता माना गया। भैरव को “श्मशान वासी” भी कहा जाता है क्योंकि वे उन साधकों की रक्षा करते हैं जो श्मशान साधना करते हैं। तांत्रिक साधना में भैरव की पूजा बुरी आत्माओं, काले जादू और अन्य नकारात्मक शक्तियों से बचाने के लिए की जाती थी।

भैरव को शक्ति, साहस और विजय के देवता माना गया। इसलिए, प्राचीन भारत के योद्धा और राजा युद्ध में विजय और शत्रुओं पर जीत के लिए उनकी आराधना करते थे। भैरव का स्वरूप धर्म की रक्षा और अधर्म के विनाश के लिए माना जाता है। उनकी पूजा समाज में न्याय और सत्य की स्थापना के लिए की गई। “काल” यानी समय और मृत्यु का भय मानव जीवन का एक महत्वपूर्ण पहलू है। भैरव को समय और मृत्यु पर नियंत्रण रखने वाला देवता माना जाता है, इसलिए उनकी पूजा मृत्यु के भय से मुक्ति पाने के लिए की गई।

तंत्र विद्या और तांत्रिक परंपरा में भैरव का अत्यधिक महत्व है। तांत्रिक साधनाओं के दौरान साधक भैरव को अपने रक्षक और गुरु के रूप में पूजते थे। भैरव को श्मशान का देवता माना जाता है, जहां जीवन और मृत्यु का रहस्य समझा जाता है। उनकी पूजा मृत्यु के रहस्य को जानने और भय से मुक्त होने के लिए की गई। प्राचीन भारत में यह विश्वास था कि भैरव दुष्ट आत्माओं, तांत्रिक बाधाओं, और अन्य नकारात्मक ऊर्जाओं से रक्षा करते हैं। आज भैरव की पूजा मुख्यतः भैरव अष्टमी, शिवरात्रि, और अन्य शैव पर्वों पर की जाती है। उनके मंदिर भारत के विभिन्न हिस्सों में मौजूद हैं, और भक्त उनसे भय, रोग, और शत्रुओं से रक्षा की प्रार्थना करते हैं।

अष्टभैरव (आठ भैरव) भगवान शिव के आठ प्रमुख रूप हैं, जिन्हें पूरे ब्रह्मांड की रक्षा करने वाले और आठ दिशाओं के रक्षक माना जाता है। प्रत्येक भैरव का एक विशेष कार्य, दिशा, और देवी शक्ति (संगिनी) होती है। पूर्व दिशा के रक्षक असितांग भैरव माने जाते हैं, ये ज्ञान का प्रतीक और अज्ञानता का नाश। भक्तों को आध्यात्मिक पथ पर चलने की प्रेरणा देते हैं। रुद्र भैरव अग्नि कोण (दक्षिण-पूर्व) के रक्षक देवता हैं, ये साहस और शक्ति के प्रदाता। दुश्मनों से रक्षा करते हैं और भय का नाश करते हैं। दक्षिण दिशा के रक्षक चन्ड भैरव माने जाते हैं ये रौद्र रूप में अधर्म का नाश करते हैं और न्याय की स्थापना करते हैं। नैॠत्य दिशा के रक्षक क्रोध भैरव माने जाते हैं ये क्रोध और नकारात्मक ऊर्जा को नियंत्रित करते हैं। आत्मनियंत्रण और शांति के लिए पूजे जाते हैं। पश्चिम दिशा के रक्षक उन्मत भैरव माने जाते हैं ये भौतिक इच्छाओं और मोह से मुक्त कर आत्मज्ञान प्रदान करते हैं। वायव्य दिशा के रक्षक कपाल भैरव कहलाते हैं ये मृत्यु और समय के स्वामी। जन्म और मृत्यु के रहस्यों को समझने में मदद करते हैं। उत्तर दिशा के रक्षक भीषण भैरव माने जाते हैं ये संकटों से रक्षा करते हैं और शत्रुओं का नाश करते हैं। भय को दूर करने में सहायक हैं। ईशान दिशा के रक्षक संहार भैरव हैं ये संहार और पुनर्जन्म का प्रतीक। अनैतिकता और बुराई का नाश करते हैं।

अष्टभैरव को आठ दिशाओं के रक्षक माना जाता है। वे हर दिशा में अपने भक्तों को सुरक्षा प्रदान करते हैं। हर भैरव अपने विशिष्ट रूप में भक्तों की समस्याओं, शत्रुओं और भय से रक्षा करते हैं। भैरव आत्मज्ञान और ध्यान के मार्गदर्शक हैं। वे भौतिक संसार के मोह से मुक्त होने की प्रेरणा देते हैं। अधर्म और अन्याय का नाश कर धर्म और सत्य की स्थापना करते हैं। संकट के समय भैरव अपने भक्तों की सहायता करते हैं और उन्हें आशीर्वाद प्रदान करते हैं।

भैरव की पूजा व्यक्ति को भय, रोग, संकट और शत्रुओं से मुक्त करती है। इसके साथ ही, यह पूजा आत्मज्ञान, साहस, और भक्ति के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देती है। अष्टभैरव की पूजा विशेष रूप से तांत्रिक साधनाओं, भैरव अष्टमी, और शिवरात्रि के दौरान की जाती है। प्रत्येक भैरव के लिए विशिष्ट मंत्र होते हैं। एक सामान्य मंत्र है: “ॐ हं अष्टभैरवाय नमः।” यह मंत्र सभी भैरवों का आह्वान करता है और उनकी कृपा प्राप्त करने में सहायक होता है।