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ओड़िया भाषा का चलित महानाटक धनु-जात्रा 

स्वराज करुण 
(ब्लॉगर एवं पत्रकार )

भारतीय जन मानस में प्रचलित कृष्ण -कथाओं में  कंस  एक अत्याचारी राजा के रूप में कुख्यात है। यह उसकी नकारात्मक छवि है, लेकिन उसकी एक सकारात्मक छवि  भी है, जो ओड़िया महानाटक ‘ धनु -जात्रा’ में  एक अलग ही अंदाज़ में उभरती है। इस मौसम में छत्तीसगढ़ के पड़ोसी राज्य ओड़िशा, विशेष रूप से पश्चिम ओड़िशा में इस चलित महानाटक की काफी धूमधाम रहती है. वहाँ की लोक -संस्कृति में प्रचलित इस लोकप्रिय चलित लोक नाटक में कंस  एक प्रजा -वत्सल राजा के रूप में भी नज़र आता है।

वह हाथी पर सवार होकर नगर भ्रमण करते हुए लोगों की समस्याओं का जायजा लेता है और दरबार लगाकर अपने अधिकारियों को तलब करता है। कंस की ओर से दरबार में अंचल के जन प्रतिनिधियों को भी बुलाया जाता है। वर्तमान युग के हिसाब से क्षेत्रीय  विधायक, सांसद और प्रशासन के स्थानीय अधिकारी भी वहाँ आते हैं। जन -शिकायतो और समस्याओं को अपनी प्रजा से सुनकर कंस जन प्रतिनिधियों और अपने अफसरों को उनके त्वरित निराकरण का आदेश देता है, तब उसकी यह प्रजा- वत्सल छवि उभरती है। वह अपने परिजनों के लिए जरूर आततायी था, लेकिन अपनी प्रजा के लिए नहीं।

परम्परागत छत्तीसगढ़ी लोक नाट्य ‘नाचा’ की प्रस्तुति मंचों पर होती है, लेकिन परम्परागत ओड़िया महानाटक ‘धनु -जात्रा’ के  कई महत्वपूर्ण दृश्यों का प्रस्तुतिकरण किसी गाँव या शहर में एक चलते -फिरते नाटक के रूप में होता है।ओड़िशा के प्रसिद्ध मंचीय अभिनेता और लोक गायक सोनपुर जिले के ग्राम बिनका निवासी गोपालचंद्र पण्डा ‘धनु -जात्रा’ में कंस की भूमिका निभाते हैं। वर्ष 2019 की गर्मियों की एक दोपहरी पश्चिम ओड़िशा के बरगढ़ जिले में स्थित एक गाँव लेलहेर में उनसे मेरी एक संक्षिप्त मुलाक़ात हुई थी।

उन्होंने बताया था – “जैसे त्रेतायुग में रावण ने राम के हाथों मोक्ष की चाहत से सीताहरण किया था, उसी तरह कंस ने कृष्ण के हाथों अपनी मुक्ति के लिए सारा प्रपंच रचा था।” गोपालचंद्र ने मुझे बताया था –  “द्वापर युग में युधिष्ठिर ने धर्मशास्त्र का और कंस ने न्याय शास्त्र का अध्ययन किया था। लेकिन कंस में राक्षसी प्रवृत्ति कहाँ से आयी, इसकी जानकारी के लिए हमें पौराणिक आख्यानों में जाना होगा। कंस के पिता उग्रसेन मथुरा के राजा थे। वह भी अत्यंत प्रजा -हितैषी थे। उनकी रानी पद्मावती  स्नान करने नदी गयी थीं, जहाँ ध्रुमिलासुर नामक राक्षस ने उनके साथ दुराचार किया। इससे कंस का जन्म हुआ। उसे यह बात मालूम नहीं थी। राक्षसी स्वभाव के कारण वह अपने परिजनों और देवी -देवताओं पर भी अत्याचार करने लगा।”

कुछ पौराणिक आख्यानों में ध्रुमिलासुर को आसुरी प्रवृत्ति का  गन्धर्व बताया गया है, जिसने मायके गयी  रानी पद्मावती को बगीचे में सम्मोहित कर लिया था। राक्षसी स्वभाव के प्रभाव में आकर कंस ने अपने पिता महाराज उग्रसेन को राजगद्दी से उतार कर सिंहासन पर आधिपत्य जमा लिया और अपनी बहन देवकी का विवाह सुरकुल के राजा। देवमीढ़ के पुत्र वासुदेव से करवाया। एक दिन आकाशवाणी हुई कि देवकी के गर्भ से उतपन्न होने वाली आठवीं सन्तान कंस की मृत्यु का कारण बनेगी। यह आठवीं सन्तान भगवान कृष्ण के रूप में आने वाली थी। तभी से कंस भयभीत और सशंकित रहने लगा। उसने देवकी और वासुदेव को बन्दी बनाकर कारागार में डाल दिया।

कंस की भूमिका निभाने वाले गोपालचंद्र पण्डा

देवकी के छह पुत्रों  का तो उसने वध कर दिया, लेकिन सातवें पुत्र के रूप में देवकी के गर्भ में जब स्वयं भगवान बलराम अवतरित हुए तो योगमाया ने उन्हें ब्रज (गोकुल) में नन्द बाबा के घर रहने वाली रोहिणी जी के गर्भ में भिजवा दिया। इस प्रकार कंस के प्रकोप से बलराम जी बच गए। फिर कृष्णजी के जन्म, जेल के लौह द्वारों के स्वयं खुल जाने और भारी वर्षा के बीच उफनती जमुना को पार करके वसुदेवजी द्वारा उन्हें वृंदावन में नन्द बाबा और यशोदा माता के घर सुरक्षित पहुंचाए जाने की कथा हम सबको मालूम ही है। पौराणिक कथाओं के अनुसार  हमें यह भी ज्ञात है कि आततायी कंस ने कृष्ण और बलराम की हत्या करने के इरादे से नन्द बाबा और गोपों के साथ उन्हें अक्रूरजी के हाथों धनुर्योग मेले का न्यौता भिजवाया था, जहाँ कृष्णजी के हाथों कंस का वध हुआ।

मेरा ख़्याल है कि संभवतः धनुर्योग मेले  में शामिल होने के लिए वृंदावन (गोकुल ) से मथुरा नगरी तक उनकी यात्रा का विशाल नाट्य -रूपांतरण ही धनुजात्रा है इसमें कृष्ण जन्म से लेकर कंस वध तक पूरी कहानी का नाट्य मंचन चलित रंगमंच पर होता है। गाँव हो, कोई कस्बा हो या कोई शहर, जहाँ भी इसका मंचन होता है, वह स्थान अपने -आप में एक विशाल रंगमंच में परिवर्तित हो जाता है। बड़ी संख्या में स्थानीय लोग भी इस महानाटक के पात्र बन जाते हैं। उपलब्धता के अनुसार आस -पास की किसी नदी को, बरसाती नाले को, या नहीं तो तालाब को ही यमुना नदी मान लिया जाता है, जिसके इस पार और उस पार क्रमशः मथुरा और वृंदावन के दृश्य मंचित होते हैं। पौष -माघ के महीने में यह आयोजन कहीं दस दिनों तक तो कहीं पंद्रह दिनों तक चलता है।

पश्चिम ओड़िशा के जिला मुख्यालय बरगढ़ की धनुजात्रा देश -विदेश में प्रसिद्ध है। वहाँ से प्रेरित और उत्साहित होकर अब ओड़िशा के कई गाँवों में भी लोगों ने  धनुजात्रा महोत्सव समितियों का गठन कर इस चलित नाटक का आयोजन शुरू कर दिया है। गोपालचंद्र पण्डा ने बताया था – “मेरी जानकारी के अनुसार बरगढ़ में पिछले 70 या 72 वर्षो से धनुजात्रा हो रही है, लेकिन  बलांगीर जिले के ग्राम भालेर में तो  यह वार्षिक आयोजन  लगभग एक सौ वर्षों  से किया जा रहा है।

इधर बरगढ़ जिले के  ही  चिचोली और लेलहेर नामक गाँवों में भी ‘धनुजात्रा ‘ की धूम  रहती है।”  लेलहेर निवासी पूर्व सरपंच श्री हीराधर साहू ने मुझे बताया था कि लेलहेर में  ग्राम देवता की पूजा -अर्चना के बाद धनुजात्रा का शुभारंभ होता है। कंस के मुकुट की भी पूजा होती है। पड़ोसी गाँव चण्डी पाली को वृंदावन (गोपपुर) और लेलहेर को मथुरा मानकर महानाटक का मंचन किया जाता है। सम्पूर्ण आयोजन के दौरान दस -पन्द्रह दिनों तक दोनों गाँवों में भारी चहल -पहल बनी  रहती है।

गोपालचन्द्र  पण्डा को हर साल 14 से 18 धनुजात्राओं में कंस की भूमिका निभाने का न्यौता मिलता है। वह सम्बलपुरी लोकगायक भी हैं। इन गीतों में अभिनय के साथ उनके दस -पन्द्रह एलबम भी आ चुके हैं।  वह  रावण और अन्य कई  असुरों का भी किरदार निभाते हैं। गोपाल अच्छे कॉमेडियन भी हैं।  उनकी मण्डली में 20 कलाकार हैं।

सीमावर्ती राज्यों की कला -संस्कृति एक -दूसरे से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकती।  पश्चिम ओड़िशा की लोकप्रिय ‘ धनुजात्रा’ ने अब अपनी सरहद से लगे छत्तीसगढ़ के सरायपाली इलाके में भी रंग जमाना शुरू कर दिया है। सरायपाली तत्कालीन  ‘फुलझर’  रियासत का प्रमुख कस्बा है, जो अब तेजी से शहरीकरण की राह पर है। तहसील मुख्यालय सरायपाली में दिसम्बर 2017 में पहली बार  धनु -जात्रा का भव्य आयोजन हुआ  अंचल के वरिष्ठ साहित्यकार ग्राम तोषगाँव निवासी  सुरेन्द्र प्रबुद्ध (अब स्वर्गीय) के अनुसार – यह एक प्रदर्शनकारी मुक्ताकाशी महानाटक है। कृष्ण कथा के रूप में मंचित होने वाले इस महानाटक का नाम धनुजात्रा क्यों ?

स्वर्गीय श्री प्रबुद्ध के एक आलेख के अनुसार यह  एक जटिल प्रश्न है, क्योंकि कृष्ण के व्यक्तित्व के विभिन्न प्रतीकों में मथुरा, वृंदावन, द्वारिका, यशोदा, राधा, दूध, दही, गोप ;गोपिकाएँ, मोर पंख, बाँसुरी, सुदर्शन -चक्र और पांचजन्य शंख आदि तो हैं, लेकिन उनमें धनुष नहीं है, जबकि यह राम के व्यक्तित्व में रूढ़ हो गया है। तलाशने पर भी ‘धनुजात्रा” में कृष्ण और धनुष के अंतर -सम्बन्ध नहीं मिलते। धनुजात्रा में व्यवहृत ‘जात्रा” शब्द को स्पष्ट करते हुए सुरेन्द्र  प्रबुद्ध ने बताया था – “हिन्दी मे ‘यात्रा ‘शब्द की जो अमिधा है,  भारत की पूर्वी भाषाओं ओड़िया, बांग्ला और असमिया में उसका अर्थ अलग है। जात्रा एक सामूहिक सांस्कृतिक मेला है। यह धर्म और प्राचीन साहित्य, कला और संगीत का सम्मिश्रण है, जो पूरे गाँव या कस्बे को चलित मंच बना देता है और दर्शक भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस महानाटक में भागीदार बन जाते हैं। पौराणिक राज पोशाक में सुसज्जित होकर महाराज कंस का  नगर भ्रमण भी जनता के आकर्षण का केन्द्र बन जाता है।”

धनु जात्रा का इतिहास
स्वर्गीय श्री सुरेन्द्र प्रबुद्ध ने भारतीय नाट्य साहित्य के इतिहास के  तथ्यात्मक अध्ययन के आधार पर अपने आलेख में यह भी बताया था कि ओड़िशा की ‘धनुजात्रा” का इतिहास पांच सौ वर्षों से अधिक पुराना नहीं है। भरत मुनि भारतीय नाट्य साहित्य के आदि पुरुष और प्रवर्तक थे। संस्कृत भाषा में नाटकों का विशाल और बहुरंगी भण्डार है, जिसकी समृद्ध परम्परा में भारतीय भाषाओं के नाटकों की परम्परा लगातार विकसित हो रही है। उत्तरप्रदेश की रामलीला रामायण का वैश्विक नाट्य रूप है। किसी भी नाटक के सफल मंचन के लिए मंच अनिवार्य तत्व है, जिसका अधिकतम विस्तार रूसी नाटकों में देखा गया है। रूस में एक -डेढ़ फर्लांग लम्बे -चौड़े रंगमंच हुआ करते थे। पारसी नाटकों पर भी इसका असर देखा गया, लेकिन धनुजात्रा जैसे महानाटक का मुक्ताकाशी विस्तार शहरों और गाँवों में मंच के रूप में कब और कैसे परिवर्तित हो गया, उसका सम्यक विवरण भारतीय नाट्य शास्त्र में नहीं मिलता, लेकिन अनुमानों के आधार पर यह नयी अवधारणा 500 वर्षो से अधिक पुरानी नहीं लगती।

बहरहाल, मेरे विचार से कलियुग में ओड़िशा की ‘धनुजात्रा’ भारत के द्वापर युगीन इतिहास में कृष्ण जन्म, कृष्ण लीला और कंस वध जैसी घटनाओं का ऐसा सजीव चित्रण करती है, जिसे देखकर हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। टेलीविजन चैनलों और  इंटरनेट आधारित सोशल मीडिया के इस युग में  आधुनिक समाज आत्म केन्द्रित होता जा रहा है। ऐसे समय में  इस महानाटक में जनता की उत्साहजनक, सक्रिय और  सामूहिक भागीदारी से भारतीय रंगमंच  की विकास यात्रा को अंधेरे में रोशनी की किरण नज़र आती है।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार हैं।

2 thoughts on “ओड़िया भाषा का चलित महानाटक धनु-जात्रा 

  • January 5, 2025 at 10:41
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    बहुत सुंदर जानकारी भईया जी
    🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺

  • January 5, 2025 at 10:42
    Permalink

    बहुत सुंदर जानकारी भईया
    🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺

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