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एकात्म मानववाद और अंत्योदय के प्रणेता : पंडित दीनदयाल उपाध्याय

प्रभावशाली व्यक्तित्व, समुद्र सी गहरी सोच और समय आने पर परिवर्तन के पदचिन्ह छोड़ जाने की अदम्य क्षमता, प्रखर राष्ट्रवादी चिंतन, भीड़ में गुम हो जाने वाला सामान्य सा भारतीय चेहरा, ऐसे थे “एकात्म मानववाद” और “अंत्योदय” जैसे महान दर्शन के प्रणेता पण्डित दीनदयाल उपाध्याय। जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन राष्ट्र को समर्पित कर अपने प्रखर विचारों व व्यापक चिंतन से आने वाले समय में राजनीति ही नहीं वरन् राष्ट्रनीति की भी नयी परिभाषा दी। उनके सिद्धांतों ने एक ऐसे संगठन की नींव रखी जो भविष्य में राष्ट्र की नीति का निर्धारण करने वाला था

मथुरा, उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव नगला चंद्रभान (जिसे अब दीनदयाल धाम से जाना जाता है) में 25 सितंबर 1916, (अश्विन कृष्ण त्रयोदशी, संवत 1973) को पण्डित जी का जन्म एक अत्यंत ही निर्धन ब्राह्मण परिवार में हुआ। यह कहना कठिन होगा कि यह उनकी जीवन यात्रा का आरम्भ था अथवा उनके संघर्षों की यात्रा का। बालक दीनदयाल होश संभाल भी न पाए थे कि मात्र 8 वर्ष की अल्पायु में ही वे अपने माता-पिता से वंचित हो गए। ऐसी स्थिति में उनका लालन-पालन उनके मामा जी ने राजस्थान के सीकर में किया। उन्होंने कल्याण हाई स्कूल से मैट्रिक और पिलानी के बिड़ला कॉलेज से इण्टर की परीक्षा पास की। इन्हें दोनों ही परीक्षाओं में गोल्ड मेडल प्राप्त हुआ। सीकर के महाराजा ने ऐसे परम मेधावी छात्र से प्रभावित होकर उन्हें छात्रवृत्ति दे दी। आगे स्नातक की पढ़ाई उन्होंने कानपुर के सनातन धर्म कॉलेज से की।

कानपुर आना उनके जीवन में एक बहुत बड़े परिवर्तन का संकेत भी था। नियति उन्हें यहां केवल पढ़ने हेतु नहीं लायी थी वरन् यहीं से उनके जीवन को एक नयी दिशा मिलने वाली थी। यहां आकर उनका संपर्क श्री बलवंत महाशब्दे से हुआ जिनकी प्रेरणा से वे आगे चलकर सन 1937 में वर्तमान में विश्व के सबसे बड़े संगठन ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ से जुड़ गए। पण्डित जी के लिए यह समय व्यक्तिगत समस्याओं और संघर्षों से बाहर निकलकर राष्ट्र की समग्रता के दर्शन का साबित हुआ। वह परा स्नातक की पढ़ाई करने के लिए आगरा प्रस्थान कर गए जहां उनका संपर्क श्री नानाजी देशमुख और भावराव जुगादे से हुआ। यहां उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। सामाजिक जीवन के प्रति उनके मन में संवेदना अंकुरित हो चली थी। उन्होंने देश की सिविल सर्विसेज परीक्षा को उत्तीर्ण करने के पश्चात भी सरकारी नौकरी का परित्याग कर दिया।
समाज में अमूमन यही होता आया है कि निजी स्वार्थ से परिपोषित विचारधारा वाली संतान केवल धन कमाने हेतु यदि अपनी मातृभूमि को भी छोड़कर विदेश में जा बसे तब भी उसके परिवारजन और यह समाज उसका गुणगान करता है, गर्व करता है। वहीं दूसरी ओर यदि कोई निःस्वार्थ भाव से सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में राष्ट्र के पुनरुत्थान का कार्य करता है तो लोग उसके सेवा और त्याग को समझ पाने में असमर्थ होते हैं और कार्य में बाधा बनकर खड़े हो जाते हैं। ऐसा ही कुछ पण्डित जी के जीवन में भी घटित हुआ। उनके पूज्य मामाजी चाहते थे की अब वे नौकरी करें और परिवार संभालें परन्तु पण्डित जी तो समस्त भारतवर्ष को ही अपना परिवार मानते थे और उनके जीवन का उद्देश बहुत व्यापक था।

ऐसी विपरीत परिस्थिति में पण्डित जी ने पत्र व्यवहार को माध्यम बनाया और बड़ी विनम्रतापूर्वक अपने मामा को पत्र में कुछ ऐसा लिखा जो आज के संदर्भ में भी प्रासंगिक और प्रेरणादायी है। उन्होंने लिखा, “परसों आपका पत्र मिला तभी से विचारों का एवं कर्तव्यों का तुमुल युध्द चल रहा है। एक ओर तो भावना और मोह खींचते हैं तो दूसरी ओर प्राचीन ऋषियों हुतात्माओं और पुरखों की अतृप्त आत्माएँ पुकारती हैं।”

अपनी परतंत्र भारत माता के लिए अगाध प्रेम और अपनी मातृभूमि के लिए कुछ कर गुजरने की उत्कट इच्छा उनके इन करुण शब्दों में प्रतिबिंबित होती है, “आपने मुझे शिक्षा-दीक्षा देकर सब प्रकार से योग्य बनाया, क्या अब मुझे समाज के लिए नहीं दे सकते हैं? जिस समाज के हम उतने ही ऋणी हैं। यह तो एक प्रकार से त्याग भी नहीं है, विनियोग है। समाजरूपी भूमि में खाद देना है। आज हम केवल फसल काटना जानते हैं पर खेत में खाद देना भूल गए हैं अत: हमारा खेत जल्द ही अनुपजाऊ हो जाएगा।”

अपनी महान प्राचीन संस्कृति का इतना गहरा ज्ञान और पूर्वजों के प्रति इतनी श्रद्धा विरले ही देखने को मिलती है। इसी पत्र में वे आगे कहते हैं, “जिस समाज और धर्म की रक्षा के लिए राम ने वनवास सहा, कृष्ण ने अनेकों कष्ट उठाए, राणा प्रताप जंगल-जंगल मारे फिरे, शिवाजी ने सर्वस्वार्पण कर दिया, गुरुगोविंद सिंह के छोटे-छोटे बच्चे जीते जी किले की दीवारों में चुने गए, क्या उसके खातिर हम अपने जीवन की आकांक्षाओं का, झूठी आकांक्षाओं का त्याग भी नहीं कर सकते हैं?”

यह देश स्वतंत्र तो हो गया था परन्तु समाज संगठित नहीं था साथ ही अनेक विसंगतियाँ पैदा हो रही थी। पण्डित जी में सत्ता का लोभ नहीं था बल्कि उनके हृदय में समाज में वैकल्पिक विचारधारा की स्थापना का दृढ़ निश्चय संकल्पित हो चुका था। इस उद्देश के लिए वह जी-जान से जुट गए। पण्डित जी के अनुसार तत्कालीन भारत की समस्याओं का मूल कारण था, भारत की राष्ट्रीय पहचान की उपेक्षा। उनका कहना था कि, “आर्थिक योजनाओं तथा आर्थिक प्रगति का माप समाज के ऊपर की सीढ़ी पर पहुँचेे हुए व्यक्ति से नहीं, बल्कि सबसे नीचे के स्तर पर विद्यमान व्यक्ति से होगा।”अनेकता में एकता और विभिन्न रूपों में एकता की अभिव्यक्ति भारतीय संस्कृति की सोच रही है। समाज में सबसे अंतिम व्यक्ति के भी उत्थान और विकास के बारे में सोचना, यही था पण्डित जी के अंत्योदय दर्शन का मर्म।

पत्रकारिता के संदर्भ में :-
दीनदयाल जी बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। उनके महान व्यक्तित्व में कुशल चिंतक, संगठनशास्त्री, शिक्षाविद्, राजनीतिज्ञ, ओजस्वी वक्ता और प्रगतिशील लेखक के समस्त गुण समाहित थे। माँ वागीश्वरी के वरद पुत्र ने उस दौर में पत्रकारिता को अपनाया जब पत्रकारिता को जिजीविषा के लिए नहीं बल्कि समाज को नयी दिशा देने का साधन माना जाता था। स्वतंत्रता आंदोलन के उस कठिन दौर में पत्रकारिता को अत्यंत ही चुनौतीपूर्ण कार्य समझा जाता था परन्तु पण्डित जी के मन में कोई दुविधा नहीं थी। वह जानते थे की देश को स्वतंत्र कराने और राष्ट्र के पुनरुत्थान हेतु जनमानस तक लेखनी के माध्यम से अपने विचारों को पहुँचाना होगा। संपादन, प्रकाशन, स्तंभलेखन और पुस्तकलेखन उन्हें सदैव रुचिकर लगते थे। उनके हिंदी और अंग्रेजी के लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे। साहित्य से उन्हें इतना लगाव था की उन्होंने केवल एक बैठक में ही ‘चंद्रगुप्त’ नाटक लिख डाला था। लखनऊ में ‘राष्ट्र धर्म’ नामक प्रकाशन संस्थान की स्थापना की और अपने विचारों को प्रस्तुत करने के लिए एक मासिक पत्रिका राष्ट्र धर्म शुरू की। बाद में उन्होंने ‘पाञ्चजन्य’ साप्ताहिक एवं ‘स्वदेश दैनिक’ की शुरुआत की। उन्होंने ऑर्गेनाइजर में ‘पॉलिटिकल डायरी’ तथा पांचजन्य में ‘विचार विधि’ नाम से नियमित स्तंभों का लेखन किया। उन्होंने भारतीय सभ्यता संस्कृति पर होने वाले प्रहारों से व्यथित होकर लेखनी को चुना। वे लेखकों के लेखक तथा संपादकों के संपादक थे। उनके मार्गदर्शन में अटल बिहारी वाजपेयी, राजीव लोचन अग्निहोत्री, देवेन्द्र स्वरूप तथा भानुप्रताप शुक्ल जैसे श्रेष्ठ पत्रकारों ने पत्रकारिता का ज्ञान प्राप्त किया था। हालांकि, स्वयं पण्डित जी ने कभी किसी विश्वविद्यालय से पत्रकारिता की पढ़ाई नहीं की थी। आज जहाँ पेड न्यूज़ की चारों तरफ भरमार हैं समाचार, विचार, विज्ञापन तथा कमीशन रूपी बाजार का बोलबाला है ऐसे में मूल्यपरक पत्रकारिता हेतु दीनदयाल जी की प्रासंगिकता और अधिक बढ़ जाती है।

भारतीय जनसंघ के संस्थापक और भारतीय जनता पार्टी के राजनीतिक-वैचारिक जनक :-
दिनांक 21 सितंबर 1951 का दिन भारतीय राजनीति के लिए ऐतिहासिक सिद्ध हुआ क्योंकि उस दिन पहली बार पण्डित दीनदयाल जी ने एक राजनीतिक सम्मेलन का सफल आयोजन किया। इसी सम्मेलन में भारत में एक नए राजनीतिक दल “भारतीय जनसंघ”की राज्य इकाई की स्थापना हुई। इसके एक माह पश्चात 21 अक्टूबर 1951 में डॉ० श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ के प्रथम अखिल भारतीय सम्मेलन की अध्यक्षता की। भारतीय जनसंघ की विकास यात्रा में वह स्वर्णिम दिवस भी आया जब दिसंबर 1967, कालीकट में पण्डित जी को जनसंघ के अध्यक्ष पद पर प्रतिष्ठित किया गया। उनके उत्तरदायित्वों के निर्वहन और संगठन कौशल से प्रभावित होकर एक बार डॉ० श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने उनके विषय कहा था, “यदि भारत को दो दीनदयाल मिल जाते तो भारत का राजनीतिक परिदृश्य ही अलग होता।”

इससे पहले कि जनसंघ राजनीतिक ताकत बन पाता, डॉ० मुखर्जी की रहस्यमयी परिस्थितियों में मृत्यु हो गई। 11 फरवरी 1968 को एक और कठोर वज्राघात हुआ जब देश ने पण्डित दीनदयाल जी की हत्या का हृदयविदारक समाचार सुना। उत्तर प्रदेश के मुग़ल सराय रेलवे यार्ड में उनकी लाश मिलने से समस्त देश शोकाकुल हो गया। लेकिन जाने से पूर्व उस महान राजनेता ने अपने प्रिय देशवासियों को बहुमूल्य धरोहर के रूप में एकात्म मानववाद रूपी महान दर्शन दे दिया जो मानस पटल से लुप्त होने लगा था।

शुभांगी उपाध्याय
शोध विद्यार्थी, कलकत्

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