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हिन्दवी स्वराज्य स्थापना दिवस : ज्येष्ठ शुक्ल त्रियोदशी

छत्रपति शिवाजी महाराज पूरे भारत में स्वत्व स्वाभिमान और आत्मनिर्भर समाज की रचना करना चाहते थे। अपने इस संकल्प को आकार देने के लिये ही आक्रमणकारी सत्ताओं के बीच हिन्दवी स्वराज्य की नींव रखी गई थी। वह ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष त्रियोदशी विक्रम संवत् 1731 (ईस्वी सन्1674) की तिथि थी जब दक्षिण भारत के रायगढ़ किले में हिन्दवी स्वराज्य यनि हिन्दू पदपादशाही की नींव रखी गई थी। इसी दिन शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक हुआ था। उस वर्ष यह तिथि 6 जून को थी।  इस वर्ष यह तिथि 20 जून को पड़ रही है।

यह स्वाभिमान उत्सव कहीं एक सप्ताह सप्ताह तो कहीं पूरे पन्द्रह दिन चलता है। चूँकि शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक उत्सव पूरे दस दिन चला था। यह आयोजन शिवाजी महाराज की माता जीजा वाई और समर्थ स्वामी रामदास जी के निर्देशन में हुआ था। इसलिए यह केवल राज्याभिषेक आयोजन भर न था। अपितु इसे संपूर्ण भारत राष्ट्र के स्वाभिमान और स्वत्व जागरण के उत्सव का स्वरूप प्रदान किया था। वह काल-खंड साधारण नहीं था। वह मुगल बादशाह औरंगजेब द्वारा भारत में भारत्व के दमन  अभियान का दौर था।

औरंगजेब ने 1665 में सभी साँस्कृतिक प्रतिष्ठानों और मंदिरों को ध्वस्त करने का आदेश निकाला था। बल, भय और लालच से मतान्तरण का अभियान चलाया जा रहा था। भारत के मूल निवासियों के समक्ष अपनी ही मातृभूमि पर प्राण बचाने और पेट भरने का संकट सामने था। उन विषम और विपरीत परिस्थितियों में शिवाजी महाराज ने स्वत्व और स्वाभिमान जागरण अभियान आरंभ किया वह भी अपने चारों ओर आक्रमणकारी सत्ताओं के भीषण दबाव के बीच। और यह उनकी संकल्पशक्ति थी कि उन्होंने पूरे भारत को दासत्व से मुक्ति का मार्ग दिखाया।

हिन्दवी स्वराज्य या हिन्दू साम्राज्य की स्थापना इतिहास का यह अद्भुत प्रसंग है जिसके उदाहरण दुनियाँ में बहुत कम देखने को मिलते हैं। शिवाजी महाराज का संकल्प केवल अपना साम्राज्य स्थापना करना भर नहीं था अपितु संपूर्ण भारत वासियों स्वत्व जागरण का संदेश देना था इसलिए इसका नाम “हिन्दवी स्वराज्य” रखा गया । समुद्र सतह से लगभग पन्द्रह सौ मीटर ऊँचाई पर बने रायगढ़ किले में इस संकल्प को आकार देने के लिये बनारस के आचार्य गागा भट्ट, माता जीजाबाई, समर्थ स्वामी रामदास सहित भारत के कौने कौने से पहुंचे संत और स्वराज समर्थक प्रतिनिधि साक्षी बने। वह आयोजन और वह क्षण भारतीय संदर्भ के लिये जितना अविस्मरणीय है, इतिहास में उसका उल्लेख उतना ही अल्प है।

इसके जो भी कारण रहे हों लेकिन आज भारतीय जन जहाँ एक ओर विश्व की महाशक्तियों के बीच भारत राष्ट्र के नाम और स्थान को प्रतिष्ठित करने के अभियान में लगे हैं वहीं दूसरी ओर अपने अतीत के पन्नों में विखरे गौरव पलों को संकलित करने का काम भी आरंभ हुआ है। इस श्रम साधना से जो गौरवमयी तथ्य सामने आये हैं वे प्रत्येक भारतीय का शीश उन्नत करने वाले हैं । यह तथ्य हमें बोध कराते हैं कि भारत ने कभी भी दासत्व की पूर्णता को स्वीकार नहीं किया। यह ठीक है कि परिस्थिति जन्य विवशताओं के चलते भारतीय पूर्वजों ने कहीं स्वयं को सीमित किया और कहीं शीश भी झुकाया लेकिन उनके हृदय में स्वत्व और स्वाभिमान का भाव सदैव जाग्रत रहा। इसलिए भारत में भारत का अस्तित्व जीवित रह पाया।

अन्यथा हम देख लें पूरी दुनियाँ को आक्रांताओं और दमन से सबका स्वरूप बदल गया। जीवन संस्कृति और संस्कार सब इतिहास का अंग हो गये। पर भारत में स्वत्व का भाव अपने अतीत के गौरव के साथ स्थित है। और इसी झलक हमें हिन्दवी स्वराज्य में मिलती है। चारों ओर तनाव दबाव और आक्रमणों के बीच स्थापित हुआ था हिन्दवी स्वराज्य। दक्षिण से गुजरात तक पाँच सुल्तान और उत्तर में शक्तिशाली मुगल। पर शिवाजी महाराज ने सबसे टक्कर ली। चारों ओर मोर्चा साधा। कभी संगठित शत्रुओं का सामना किया कभी कूटनीतिक कौशल से। इनमें कोई ऐसा नहीं जो उनके युद्ध कौशल और रणनीति से पराजित न हुआ हो। उन्होंने दक्षिण में आदिलशाही और निजामशाही को ही पराजित नहीं किया अपितु मुगल सेना को भी पराजित किया और युद्ध का व्यय वसूला।

शिवाजी महाराज ने अपनी शक्ति का विस्तार अपने पिता के रहते ही कर लिया था। यह उनकी माता जीजाबाई के संस्कार और गुरू समर्थ स्वामी रामदास की शिक्षा थी कि उन्होंने अपने पिता के रहते अपने साम्राज्य की विधिवत घोषणा नहीं की। इसका कारण यह था कि उनके पिता शाहजी आदिलशाही में सेनापति थे और उन्होंने अपने राजा को वचन दिया था कि शिवा स्वतंत्र शासक नहीं बनेंगे। इसीलिए शिवाजी महाराज ने पिता के रहते स्वयं को संयमित किया। शिवाजी महाराज के पास पूना को केन्द्र मानकर लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर लंबे और लगभग अस्सी किलोमीटर चौड़े क्षेत्र में पूर्ण आधिपत्य हो गया था, यहाँ उनकी अपनी सेना थी। लेकिन तब वे स्वयं को पिता की ओर से आदिलशाही की धरोहर ही बताते थे।

जब पिता का देहान्त हुआ तब शिवाजी महाराज ने स्वयं को स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया और राज्याभिषेक की घोषणा कर दी। जिसका नाम उन्होंने हिन्दवी स्वराज दिया। उनके मनमें अपनी भावी सत्ता और भारत राष्ट्र में स्वाभिमान की पुनर्प्रतिष्ठा का एक पूरा स्वरूप था जो तत्कालीन परिस्थितियों का प्रतिकार करने और सुधार करने के संकल्प के साथ तैयार हुआ था। जिसकी झलक अभियान में देखने को मिली। शिवाजी महाराज वे भयानक परिस्थितियां कभी नहीं भूले थे जो उन्होंने बचपन से देखीं और सुनी थीं। वे उन समाचारों से बहुत विचलित थे कि आक्रमण कारियों ने बनारस में मंदिर तोड़कर मूर्तियों को सीढ़ियों में लगवाया था। वे तुलजा भवानी के उपासक थे। यह मंदिर भी तोड़ दिया गया था। .

चिपलूर में भगवान् परशुरामजी मंदिर और पंढरपुर के बिढोवा मंदिर को भी ढहा दिया गया था। स्त्रियों का अपमान तो मानों हमलावरों के सैनिकों के खून में था। शिवाजी महाराज के सामने वह विवरण स्पष्ट था किस प्रकार निजाम ने पूना पर हमला कर पूरा नगर विध्वंस किया था, कत्लेआम किया था। स्त्रियों के चीत्कार से आसमान गूँज गया था। इस हमले का वीभत्स वर्णन आज भी इतिहास के पन्नों पर है कि तब पूना में लाशें उठाने वाला भी कोई न बचा था। ऐसी तमाम बातों ने शिवाजी महाराज के भीतर एक श्रेष्ठ सैनिक और संस्कृति रक्षक बनने का संकल्प जगाया था। वे अपनी बाल्य वय में ही सैनिक अभ्यास करने लगे थे।

उन्होंने बालपन में ही टोलियाँ गठित करने और पीड़ितों की सेवा का काम आरंभ कर दिया था। कोई सैनिक वहां रहने वाले किसी परिवार को या सैनिकों की टुकड़ी किसी गाँव को प्रताड़ित करती तो उनकी सेवा के लिये पहुँचने वाली टोली शिवा की होती। उनके इन सेवा कार्यों ने उन्हे लोकप्रिय बनाया और स्वतंत्रता के विचार की  बच्चे भी आकर्षित होने लगे। किशोर वय तक तो उन्होंने एक सैन्य टुकड़ी का गठन कर लिया था और सैनिकों का अत्याचार  रोकने आ धमकते थे। उनकी शिकायतें कयी बार आदिलशाही में हुईं और पिता को सफाई देना पड़ी। यह उनके भीतर पनपता गुस्सा ही था कि जब पिता उन्हे एक बार दरबार में लेकर गये तो उन्होंने सिर नहीं झुकाया। तब शिवाजी महाराज बारह वर्ष के थे। पन्द्रह वर्ष की आयु में शिवा ने युद्ध में हिस्सा लिया। यह युद्ध पूना के दक्षिण में जुन्नारनगर में हुआ। जिसका नेतृत्व स्वयं शिवा ने किया। शिवाजी पूना के विध्वंस को कभी न भूले। उन्होंने पूना का पुनर्निर्माण कराया और सोने का हल चलवाया।

शिवाजी महाराज द्वारा स्थापित इस साम्राज्य स्थापना के इस विवरण में  संपूर्ण भारतीय संस्कृति की झलक मिलती है। वैदिक वाड्मय से लेकर आचार्य चाणक्य के सिद्धांत तक सभी सिद्धान्तों की झलक इस समारोह में थी। जिसमें राजा स्वामी नहीं सेवक का भाव लेकर सिंहासन संभालता है। राज्य की शक्तियाँ या तो समाज के पास होतीं हैं या प्रधानों के पास। राजा केवल उनका संयोजन करता है। शिवाजी महाराज इसी भाव से सिहासनारूढ हुये। उन्होंने पूरा मंत्रीमंडल बनाया जिन्हे “अष्ट प्रधान” का नाम दिया गया। इसमें पेशवा, आमात्य, मंत्री  सचिव, सुमन्त, नायक, पंडित राव और न्यायधीश ये कुल आठ पद थे। इस मंत्री मंडल को ही अष्टप्रधान कहा गया।

प्रत्येक प्रधान अपने विभाग से संबंधित कार्यों का निर्णय लेने में स्वतंत्र था। इसमें पेशवा के अधिकार प्रधानमंत्री के रूप में, आमात्य के पास समस्त वित्तीय अधिकार, मंत्री के पास साम्राज्य में घटी समस्त घटनाओं का विवरण, सचिव के पास समस्त कार्यालय और कार्य प्रगति का विवरण, सुमन्त की भूमिका विदेश मंत्री जैसी, नायक की भूमिका सेनापति के रूप में पंडितराव के पास धर्मस्व निर्णय अधिकार और न्यायधीश  के पास विवादों का निराकरण का दायित्व था।

कहने के लिये यह हिन्दवी स्वराज्य या हिन्दू साम्राज्य था लेकिन इसमें सभी मतों और धर्मों को समान आदर था। शिवाजी महाराज ने यदि मंदिरों का पुनर्निर्माण कराया तो पूना में अपने निवास के सामने मस्जिद का निर्माण भी कराया। तो पादरी एंब्रोज के आग्रह पर चर्च का निर्माण भी कराया। उनके शासन में चर्च और मस्जिदों  को भी अनुदान मिलता था। महिलाओं, निराश्रितों और बुजुर्गों के सम्मान के विशेष निर्देश थे। इसका उदाहरण बसई युद्ध में मिलता है। युद्ध के बाद खजाने की पूछताछ करते बक्त नबाब की बहू को बंदी बनाकर पूछताछ हुई।

इस पर शिवाजी महाराज ने क्षमा याचना की और सम्मान सहित विदा किया। यह शिवाजी महाराज की ही परंपरा थी कि मराठों ने जब और जहाँ युद्ध जीते महिलाओं का सम्मान किया। यदि आगे चलकर पेशवा ने दिल्ली में बादशाह को बंधक बनाया तब भी जनानखाने में कोई सैनिक प्रविष्टि न हुआ। जबकि नादिरशाह और गुलाम कादिर ने दिल्ली पर हमला करके मुगल जनानखाने में क्या किया यह सब विवरण इतिहास के पन्नों में दर्ज है। जिसे पढ़कर रोंगटे खड़े होते हैं और घृणा से मन भर आता है। पर शिवाजी महाराज और उनके पेशवाओं ने विजित होकर पराजित परिवार की महिलाओं को जो सम्मान दिया ऐसा उदाहरण विश्व में कहीं नहीं मिलता।

हिन्दवी स्वराज्य में संस्कृत और मराठी को राजभाषा घोषित किया गया। अपनी मुद्रा निकाली। यह राज मुद्रा संस्कृत में थी जिसे बनारस के गागा भट्ट ने तैयार किया था जिसमें अंकित था-

“प्रतिपच्चंद्र लेखेव वर्धिष्णु विश्ववंदिता

शाहसुनोः शिवस्येषा मुद्राय राजते”

अर्थात “जिस प्रकार बाल चन्द्र प्रतिपदा से धीरे धीरे बढ़ता है और सारे विश्व द्वारा वंदनीय होता है उसी प्रकार शाहजी राजे के पुत्र शिवा की यह मुद्रा बढ़ती जायेगी”

शिवाजी महाराज ने नयी कर प्रणाली लागू की जिसमें छोटे कृषक से कम और बड़े कृषक से अधिक कर लेने के मानदंड स्थापित किये गये। गोहत्या निषेध और स्त्री सम्मान का आदेश जारी हुआ। उन्होंने नौसेना का एक बेड़ा तैयार किया। यही बेड़ा भारत नौसेना की शुरुआत है। हालांकि भारतीय नौ सेना के इतिहास में शुरुआत अंग्रेजों द्वारा तैयार उस टुकड़ी को बताया जाता है जो उन्होंने अपने व्यापार रक्षा के लिए तैयार की थी। पर वह तो व्यापार रक्षा के लिए लिये थी। युद्ध के लिये तो सबसे पहले बेड़ा शिवाजी महाराज ने ही तैयार किया था।

शिवाजी महाराज ने उस समय के अधिकांश राजाओं को स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने के लिये भी प्रेरित किया था और सहायता का आश्वासन दिया था। शिवाजी महाराज के कहने पर ही बुन्देलखण्ड में महाराज छत्रसाल ने, आसाम में महाराज चक्रधर सिंह ने और कूचविहार में महाराज सत्य सिंह ने अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित की थी। शिवाजी महाराज ने राजा जयसिंह को भी पत्र लिखकर स्वतंत्र राजा बनने का आग्रह किया था।

यह हिन्दवी स्वराज्य का संकल्प ही था सैकड़ो साल बाद भारत में स्वतंत्र सत्ता का बोध हुआ। शिवाजी महाराज तक आते आते भारतीय शासक स्वतंत्र सत्ता मानों भूल चुके थे। आक्रामकों द्वारा उनसे छीनी गयी सत्ता में अधीनस्थ रहना ही मानों भारतीयों ने अपना भाग्य समझ लिया था। पर हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना ने मानो पूरे देश को झकझोर दिया था। आत्म अभिमान का बोध जगाया और अपनी सत्ता स्थापित करने का संघर्ष आरंभ हुआ। कोई माने या न माने। पर आगे चलकर जो पूर्ण स्वराज्य प्राप्त करने का उद्घोष हुआ उसका मूल हिन्दवी स्वराज्य ही है और अंततः भारत ने अपने स्वतंत्र आसमान तले श्वांस लेना आरंभ किया।

आज इसी स्वाभिमान और स्वत्व स्थापना की स्मृति का दिन है। उन लाखों बलिदानियों की आहूति को स्मृति का दिन है जिनके बलिदान से हम 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता का सूर्योदय देख सके। हमें स्वतंत्रता के सूर्य के दर्शन तो हो गये पर पूर्ण स्वाधीनता और स्वत्व बोध का अभियान अभी शेष है। हमें केवल वाह्य आवरण से ही नहीं मानसिक, बौद्धिक, सांस्कृतिक और परंपराओं की दृष्टि से भी स्वाधीन बनें। अपनी जड़ो की ओर लौटें। यह संदेश हमें शिवाजी महाराज के हिन्दवी स्वराज से मिलता है। कि यदि उन विषम और विपरीत परिस्थितियों में भी शिवाजी महाराज भारतीय वैदिक चिंतन वसुधैव कुटुंबकम् सिद्धांत स्व परंपरा और स्वभाषा का उद्घोष कर सकते हैं तो हमें आज संकोच क्यों है ?

शिवाजी महाराज की प्रधानता में संस्कृत और सनातन संस्कृति ही मूल थी। संस्कृत में मुद्रा प्रसारित की, विभिन्न राजाओं को स्वयं सत्ता का संदेश भेजा। यह सब हमें आज भी अपने भविष्य निर्माण का संदेश दे रहे हैं।  इन दिनों हम अपनी स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मना रहे हैं। उत्सव और आनंद के इन क्षणों में यह समीक्षा करने की भी आवश्यकता है कि भारत और भारतीय समाज स्वत्व बोध के प्रति कितना जागरूक है। तभी हिन्दवी स्वराज की स्मृति सार्थक होगी और स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव भी।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं।

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