क्या आपने देखा है भारत का सौ द्वीपों का शहर?

नीता चौबीसा बांसवाड़ा

अरावली की छितरी हुई उपत्यकाओं से आवेष्ठित प्राकृतिक हरितिमा, नैसर्गिक -सौंदर्य से आच्छादित, हज़ारो नदी नालों, झरनों से परिपूर्ण, बहुतेरे पद्मतालो से सुसज्जित, लोक रंजनी के विविध रंगों को अपने अन्तस् में सँजोए, प्राणवल्लभा माही, चाप, अनास, ऐराव और हिरन नदियों के सुमधुर कलकल निनाद से गुंजित, मालवा, गुजरात और राजस्थान की सम्मिश्रित लोक संस्कृतियों का संवाहक, ऋषि-मुनियों-सिद्धों की तपःस्थली और पाण्डवों की विहार भूमि, इन्द्रधनुषी मेलों-पर्वों की मनोहारी छटा, सादगीपूर्ण वनेचरी जनजातीय लोकजीवन, आध्यात्म ,कला-संस्कृति, शिल्प-स्थापत्य, पुरा धामों, ऐतिहासिक व दर्शनीय व पर्यटन स्थलों के अनूठे समागम के साथ बांसवाड़ा बरबस पर्यटकों,सैलानियो और प्रकृति प्रेमियों का ही मन मोहने में पूर्णतया सक्षम नही है वरन शांतिपूर्ण सहवास की तलाश में भटकते कई प्रवासी पक्षियों की भी सुरम्य शरणस्थली बना हुआ है।


भौगोलिक दृष्टि से बांसवाड़ा राजस्थान का ठेठ दक्षिणी सिंहद्वार है जो गुजरात और मालवा के संधि स्थल पर अवस्थित है और सांस्कृतिक दृष्टि से यह गौरवपूर्ण वागड़धरा की एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक ईकाई है। जिस शहर के ह्रदय में कोई नदी प्रेम का विरह गीत गाती उन्मादित यात्रा करती हो वहां की संस्कृति की धारा भी स्वतः ही तीर्थो का प्रणयन करती चली जाती है।जहां उषःकाल की लाली कोहरे में लिपटी सुदूर किसी मंदिर की घण्टियों से सुर से सुर मिलाती हो, वहाँ का सूर्योदय स्वतः सिद्ध भीतर शांति और उत्साह का संचार करने में सक्षम हो जाता है। पावस की रसवंती अमिमई बूंदे जब झमाझम बरसती है तो रिक्त हुए धरती के गर्तों को आप्लावित कर हज़ार द्वीपो का निर्माण कर जाते है यही कारण है कि बांसवाड़ा को ‘सौ द्वीपो का शहर'(लैंड ऑफ हंड्रेड आइलैंड)और ‘राजस्थान का चेरापूंजी ‘ और ‘राजस्थान का हरित पन्ना’जैसे खिताब एकसाथ प्राप्त है।यही कारण है कि अर्स्किन जैसे अंग्रेज अधिकारी भी अभिभूत हो कर बांसवाड़ा का मनोहारी वर्णन करते नही अघाते।

सांस्कृतिक-ऐतिहासिक वैभव–

मेजर-अर्सकिन के अनुसार यहां कभी बांस के घने जंगलों की बहुतायत के कारण इसका नाम करण बांसवाड़ा हुआ। दूसरे यहां के प्रारम्भिक संस्थापक प्रतापी शासक बांसिया भील के नाम पर जिसको कालांतर में रावल जगमाल द्वारा मार कर नए राजवंश की नींव डाली, के फलस्वरूप इस क्षेत्र का नाम ‘बांसवाड़ा’ प्रसिद्ध हुआ। यहाँ के अधिकांश शिलालेख संस्कृत में प्राप्त हुए हैं, जिनमें इस क्षेत्र को ‘वाग्वर’ कहा गया है ‘वाक् ‘ अर्थात ‘वाणी’ और ‘वर ‘अर्थात ‘श्रेष्ठ’। इस तरह इस अंचल की प्रसिद्धि ‘वाग्वर’ जो बाद में अपभ्रंश होकर’ वागड़’ नाम से रहा। एक मान्यतानुसार यह क्षेत्र सघनतम वनाच्छादित था इसलिए इसे वागड़ कहा गया क्योंकि गुजराती में वगड़ा शब्द वन प्रदेश के लिए इस्तेमाल होता है। यहां की लोकभाषा भी वागड़ी ही है।

बांसवाड़ा अपने भीतर चार हजार कलापूर्ण देवालय, चार सौ विशाल व्यापिकाओं और सैंतीस कुण्डों की सांस्कृतिक-पुरातात्विक धरोहरों को समाए हुए है वहीं इसकी जीवनरेखा ‘माही ‘की नहरें धमनियों की भांति यहां सर्वत्र पसरी हुई विकास का संगीत सुना रही हैं। इसके रमणीय तटों पर माव की रास लीला का नर्तन है तो आल्हादित करने वाली गवरी और दुर्लभ के ब्रह्मनाद संयुक्त गीतो की बहार भी है। यहां पौराणिक आख्यानों से अभिन्न संस्कृति के दिग्दर्शन पाण्डवों के वनवास काल के विहार-स्थल – घोटिया आम्बा, भीमपुर, भीमसौर, अरथुना, परतापुर, पाँचलवासा, नोकला, सरेड़ी व खोड़न आदि है, तो दूसरी और ऐतिहासिक महत्व के अरथूना,सुरवानीया,मलवासा,लोहारिया,तलवाड़ा और कुशलगढ़ जैसे स्थल भी अतीत की कहानी अपनी जुबानी कहते नज़र आते है। प्रवासी पांडवो की याद में आज भी यहां घोटिया आम्बा पर विशाल मेला भरता है जहाँ पाण्डव कुल की प्रतिमाएं पूजी जाती हैं। जहां ऋषि-मुनियों, सिद्ध योगियों व तपस्वी राजाओं के लिए भी यह क्षेत्र विहारजन्य तपस्थली बना रहा है तो दूसरी तरफ जनजाति क्रांति के पुरोधा और समाज सुधारक गोविंद गुरू और मामा बालेश्वर दयाल की कर्मभूमि के रूप में विख्यात भी रहा है। ये तमाम स्थल बांसवाड़ के गौरवमयी गाथा को कहते पर्यटकों को न्योता देते है। यहां विट्ठलदेव के पास नीलकण्ठ मंदिर में मालवा राजा भर्तृहरि का शिलालेख भी पाया गया है, तो कई स्थानों पर खेतों से सम्राट कनिष्क काल के सिक्के प्राप्त हुए हैं। त्रिपुरा सुन्दरी मंदिर के पीछे तीसरी शताब्दी में सम्राट कनिष्क के काल का शिवलिंग स्थापित है जो बांसवाड़ा के प्राकृतिक ही नही ऐतिहासिक धरोहरों का निर्माण कर इसे दर्शनीय बनाते है।

प्राकृतिक-नैसर्गिक स्थल–

यहां की प्राकृतिक पृष्ठभूमि में पुरातत्व, इतिहास, धर्म-श्रद्धा और नैसर्गिक रमणीय स्थलों से लेकर आधुनिक दर्शनीय स्थलों की सुन्दर श्रंखला विद्यमान है। बांसवाड़ा जिला पर्वतीय उपत्यकाओं के बीच बसे ट्राई क्षेत्र की भांति है अतः यहां स्वतः उपजे अनेक नैसर्गिक सौन्दर्य पूर्ण स्थल हैं। इनमें जुआफाल, कडेलिया फाल,भीमफाल,कागदी फाल,बांसवाड़ा को वर्षाकाल में किसी हिल स्टेशन की गरिमा प्रदान करते है। आनदसागर(बाईतालाब), डायलाब, लोधा तालाब, भीमकुण्ड, रामकुण्ड,वनेश्वर कुंडआदि प्रमुख हैं।

कडेलिया और चाचाकोटा-

बरसात में यहां पर शहर से लगभग दस किमी दूर कडेलिया स्थित फॉल अत्यंत मनोरम दृश्य उपस्थित करता है। झरने के कलकल नाद की संगीतमय ध्वनि मन को तरोताज़ा कर देती है। चाचाकोटा का प्राकृतिक सौंदर्य देखते ही बनता है। शहर से चौदह किमी दूरी पर स्थित चाचा कोटा माही बेकवाटर से निर्मित प्राकृतिक हिरीतिमा से आच्छादित एक पर्वतीय टापू है। ऊँची हरी भरी पहाड़ियों,सर्पिल रास्तो से घिरे इस द्वीपीय ग्राम में सर्वत्र पानी ही पानी बिखरा पड़ा है। माही के सुंदर रमणीय दृश्य का अवलोकन मन मे उल्लास की हिलोरे भर देती है। यहां वन्यप्राणियो के दर्शन भी सुलभ होते है। यहां एक डाक बंग्ला बना हुआ है। बरसात में यहां भारी भीड़ होती है।

स्थल स्थल पर पद्मतालो के मध्य देवालय–

बांस के घने झूरमुटो के बीच, कमलताल डायलाब स्थित हनुमान मंदिर एक सुंदर जगह है। इस की पाल पर बैठ शांति का अनुभव किया जा सकता है। लौधा के कमल सरोवर स्थित हनुमान मदिर और बाईतालाब स्थित महादेव मन्दिर अन्य पिकनिक स्पॉट है। बांसवाड़ा शहर के पूर्व में प्रतिवेशी पहाड़ियों के बीच बने गर्त में बाई तालाब नामक विशाल तालाब है जिसे अब आनंद सागर नाम दिया गया है। इसे महारावल जगमाल की रानी द्वारा निर्मित बताया जाता है। बांसवाड़ा-दाहोद मार्ग पर दस किलोमीटर दूर सुरवानिया बाँध, घाटोल के समीप हेरो बांध, सहित जिले में कई बांध और तालाब पिकनिक स्पाॅट के रूप में प्रसिद्ध हैं। यहां दो प्राचीन कल्पवृक्ष हैं जिनके प्रति अगाध जनास्था देखने को मिलती है। लोहारिया गनोड़ा,लोढा, तलवाड़ा और अन्य तालाबो में खिले हुए कंवल के फूलों का सौंदर्य वातावरण में पवित्रता का संचार करता है। इन सभी तालाबो पर यदि रँगबिरंगी रोशनियों की व्यवस्था की जाए तो इन्हें कांकरिया लेक सा रूप दिया जा सकता है। जलधाराओं, जलाशयों और झरनों की बहुलता के कारण यहां आप्रवासी परिंदो के लिए अनुुकूल वातावरण है । बांसवाड़ा में लगभग डेढ़ सौ से ज्यादा प्रजातियों के पक्षी है।यही वजह है कि हर साल बड़ी संख्या में विदेशी पक्षी जिले में आते हैं और यत्र तंत्र बिखरी जलराशि के मध्य कलरव करते झुंड मन मोह लेते है। विभिन्न जलाशयों में हजारों किलोमीटर दूर से आने वाले विभिन्न किस्मों के इन प्रवासी पक्षियों को हर साल देखा जा सकता है। बांसवाड़ा के प्रवासी पक्षियों हेतु भविष्य का ‘‘बर्डिंग हब ’’ तथा ‘‘बर्डिंग बेस्ड इको ट्यूरिज्म”भी सम्भावित है।

माही बजाज सागर बांध:जल और विद्युत का शक्ति पुंज

मानवीय कलाकारी का बेजोड नमूना माही बांध व इसकी कुल्याओ का जाल पिछले कई सालों से वागड़ की जीवनरेखा बनी हुई है। जिस तरह मानव शरीर में शिराएं रक्त को शरीर के विभिन्न भागों तक पहुंचाकर जीवन का संचार करती है उसी तरह माही बांध की नहरें भी यहां के दूरस्थ ग्राम्यांचलों के खेतों तक पानी का संचार कर मानव जीवन का आधार बनी हुई हैं। माही बांध का नज़ारा तब देखने योग्य होता है जब वर्षाकाल में इसके सोलह गेट खोल दिये जाते है।इसके अतिरिक्त पाँचलवासा टनल,लिलवानी और सुरवानीय भी मन भावन दृश्यों को समेटे है।

गेमन पूल का दिव्य नज़ारा और घने वन्य क्षेत्र-

रतलाम रॉड स्थित गेमन पूल उत्तर-पश्चिम भारत का सबसे बड़ा पुल है।यहां से माही का दिव्य नज़ारा ,विशाल चौड़ा पाट देखना ,दक्षिण राजस्थान की इस गंगा की महत्ता को रेखांकित करता है।यहां टापूओं पर धान के खेतों को लहलहाते देखना आनंद का संचार करता है।यत्र तंत्र सिंघाडा की कृषि व माही के पानी मे छोटी नावो द्वारा मछली पकड़ने के सुंदर दृश्य यहां आम बात है। साथ ही वन्य आरक्षित क्षेत्र पीपलखूंट जो अब प्रतापगढ़ का हिस्सा बन चुका है ,घाटोल, सरेड़ी-खोडन और कुशलगढ़ के आरक्षित वन्यक्षेत्र है जहां चिंकारा,नीलगाय, लोमड़,पेंथर और चिंकारा जैसे वन्यजीव रात्रि में अनायास सड़क किनारे विहार करते देखे जा सकते है।रतलाम रॉड स्थित कागदी पिक अप वियर तथा किनारे पर बने उद्यान किसी शाही विलास उद्यान की सर्जना करते है।पहाड़ी पर स्थित साई बाबा मंदिर एक अन्य रमणीय स्थल है जहां से पूरे शहर का विहँगावलोकन मनोहारी दृश्य उपस्थित करता है । पुराने शहर के बीचोबीच स्थित ऐतिहासिक धरोहर बांसवाड़ा का ओल्ड पैलेस और घण्टाघर भी दर्शनीय है।शहर के विभिन्न हिस्सों में कलात्मक प्राचीन बावड़ियाँ विद्यमान हैं। इनमें से ज्यादातर पेयजल वितरण के काम आ रही हैं।

दर्शनिय स्थल:वनेश्वर-

बांसवाड़ा शहर के पूर्वी हिस्से में कागदी नदी के किनारे स्थित वनेश्वर मन्दिर समूह अत्यन्त प्राचीन एवं ऐतिहासिक है। यह धर्म और श्रृद्धा का प्रमुख केन्द्र है। इसी खासियत यह है कि यहां मनोरम वातावरण के बीचं भगवान वनेश्वर, नीलकण्ठ एवं धनेश्वर स्वयंभू शिव के रूप में विराजमान हैं। वनेश्वर महादेव का मन्दिर गुजरात के अणहीलपुर पाटण के राजा वनराज चावड़ा ने बनवाया था। उन्हीं के नाम से इसे वनेश्वर या वनराज भी कहा जाता है।

यहां एक ही परिसर में तीन स्वयंभू शिवलिंग हैें। यही पर सदियों पुराने बौद्धस्तूप व प्राचीन जलकुण्ड इत्यादि हैं। वहीं कलात्मक धार की छतरी और अन्य देवालय हैं। वनेश्वर परिसर में मोतीमाता श्रृद्धा का केन्द्र है।गायत्री मन्दिर सहित कई छतरियां व छोटी-छोटी मंदरियां यहां की जनआस्था और गेट टूगेदर का केंद्र हैं। इसके अलावा कई शिवलिंग, हनुमानजी, मानस भवन, विभिन्न डेरियों, आदि की वजह से यह प्रमुख धर्म धाम बना हुआ है।पार्श्व में वनेश्वर कुंड बांसवाड़ा की प्राचीन धरोहर हैं।

नगर देवी समाई माता-

शहर के दक्षिण-पूर्व में समाई माता प्राचीन समय मे बांसवाड़ा की नगर देवी थी जो नगर का रक्षण कर धन धान्य से परिपूर्ण रखती थी। पर्वत पर पुराने राजमहल के खण्डहर अवस्थित हैं। लोकमान्यतानुसार बाँसवाड़ा पहले इस पर्वत के आस-पास ही बसा हुआ था लेकिन अब यहाँ ये अवशेष ही इसकी साक्षी देते हैं। यह सोमाई माता मन्दिर किसी समय घने सागवान वन्य से घिरा हुआ था जहां से डूंगरपुर रियासत की लाइट नज़र आती थी।इसका भव्य शिल्प एवं स्थापत्य देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इस राजमहल के निर्माण के वक्त शिल्प-स्थापत्य कला कितनी उन्नत व अनुपम रही होगी। राजमहल के आगे सिंहद्वार है जो जीर्ण-शीर्ण हो चुका है व दो खम्भे ही अब शेष बचे हैं।समूचा महर्ल इंट-चूने से बना हुआ है, पत्थर के खम्भों को छोड़ लोहा-पत्थर का उपयोग कहीं नहीं हुआ है। ईंटों का विन्यसन व आधारहीर्न इंटों से बना मेहराब देखने लायक है। यह मुख्य रूप से तीन भागों में बना हुआ है। पश्चिमाभिमुख झरोखे से दूर-दूर तक की टोह ली जा सकती है। ऊपर छत बनी हुई है जिस पर ईंटों की तेरह सीढ़ियों से होकर जाया जाता है। महल के नीचे एक तहखाना है जिसमें उतरने के लिए भी सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। पास ही स्मृति शिलाखण्ड ‘‘चीरे’’ हैं। पहाड़-शिखर पर अवस्थित इस महल के खण्डहर के आस-पास चारों ओर ईटों के टुकड़े बिखरे पड़े हैं।सरक्षण के अभाव में इस पुरातात्विक महत्व के स्थल से लोर्ग इंटे निकाल ले जाते रहे हैं। यह ईटें सामान्य से कुछ बड़ी व अधिक मजबूत हैं। बाँसवाड़ा के अतीत से रिश्ता रखने वाले इस प्राचीन राजमहल के बारे में बताया जाता है कि यहाँ किसी समय बाँसिया भील का कब्जा था, जिसे मारकर जगमालसिंह ने अधिकार कर लिया था।बाँसवाड़ा शहर के दक्षिण-पूर्व में अवस्थित इन पुरा स्थलों की ओर पर्याप्त ध्यान देकर विकसित किया जाय तो यहाँ के पर्यटन विकास को नये आयाम मिलेंगे वहीं प्राचीन महत्व के स्थलों का गौरव भी बरकरार रह सकेगा ।

शक्ति पीठ त्रिपुर सुन्दरी मन्दिर -बांसवाड़ा का दक्षिणेश्वर

जिले के दर्शनीय स्थलों में बांसवाड़ा से 17 किलोमीटर दूर उमराई गांव के पास वनाच्छादित पहाड़ियों के मध्य त्रिपुर सुन्दरी देवी का प्राचीनतम मंदिर शाक्त परम्परा का केन्द्र बिन्दु रहा है जो वागड़ में तरतई माता के रूप में सुविख्यात है।वर्तमान में देश-विदेश में प्रसिद्ध यह शक्ति पीठ केवल जनास्था ही नहीं प्रमुख पर्यटन तीर्थ के रूप में ख़ासी पहचान रखता है। देश के विभिन्न हिस्सांे तथा विदेशों से यहाँ आने वाले श्रद्धालुआंे एवं पर्यटकों का यहाँ वर्ष भर तांता लगा रहता है।इस मन्दिर की प्राचीनता के बारे में कोई संदेह नहीं है तथापि इसकी स्थापना के संदर्भ में अधिकृत जानकारी का उल्लेख कहीं प्राप्त नहीं है।जन मान्यतानुसार इसका निर्माण सम्राट कनिष्क से पूर्व हुआ है। इस मन्दिर के निकट कनिष्क के समय का शिवलिंग भी विद्यमान है। कुछ विद्वान तीसरी शताब्दी से पहले निर्मित मानते है। संवत 1540 के एक शिलालेख के अनुसार इसके आस-पास दुर्गापुर नगर बसा था, जिसका शासक नृसिंह शाह था।मंदिर क्षेत्र के इर्द-गिर्द शिवपुरी, शक्तिपुरी तथा विष्णुपुरी नामक तीन दुर्ग थे। इसी कारण इसे त्रिपुरा सुन्दरी नाम दिया गया अन्यथा इस मंदिर में विद्यमान मूर्ति त्रिपुर सुंदरी के मूल स्वरूप से पूरी तरह भिन्न है और यह त्रिपुर सुंदरी नहीं होकर महिषासुरमर्दिनी की मूर्ति है।काले पत्थर कीइस विशालकाय मूर्ति की विशेषता यह भी है कि यह सांगोपांग एक ही शिला से उकेरी गई है। इस मूर्ति के बारे में कहा जाता है कि यह तीनों संध्याओं में अलग-अलग रूपों में दिखती है।इसके अडोभाग में श्री यंत्र खुदा हुआ है जिसका तन्त्रशास्त्र में बहुत महत्व है।शास्त्राीय प्रमाणानुसार मंदिर के पृष्ठ में त्रिदेव, दक्षिण भाग में काली तथा उत्तर में अष्टभुजा सरस्वती का मंदिर था, जिसके अवशेष आज भी विद्यमान है।माँ त्रिपुरा की यह भव्य एवं तेजोमय मूर्ति अलौकिक एवं अद्भुत है जिसके दर्शनमात्रा से ही दर्शनार्थी आत्मविभोर हो सहज आकर्षण के पाश में बँध जाता है और सहज साक्षात्कार जैसा आभास मिलता है। मूर्ति के प्रभामंडल में कई छोटी-छोटी मूर्तियां है जो शिल्पकला का अनूठा और सुन्दर उदाहरण हंै।

अनेक तपस्वियों एवं शाक्त साधकों की यह सिद्ध स्थली रहा है, जहाँ रह कर इन्होंने दैवी से साक्षात्कार किया। यही कारण है कि शक्तिपीठों व उप पीठों केे संबंध में पुराणों में वर्णित अधिकृत सूची में स्थान न होते हुए भी त्रिपुरा सुन्दरी तीर्थ शक्तिपीठ के बराबर का दर्जा रखता है। देवी के चमत्कारों की अनेकों गाथाएँ बहुश्रुत हैं। इनमें कई घटनाओं का संबंध महाराज विक्रमादित्य, सिद्धराज जयसिंह, मालवा केे नरेश जगदेव परमार आदि से जोड़ा जाता है। त्रिपुरा सुन्दरी गुजरात के महाराजा जयंिसंह सोलंकी की ईष्टदेवी थी। राजा-महाराजाओं के जमाने में त्रिपुरा सुन्दरी को विशेष महत्व प्राप्त था।वर्तमान में राज्य सरकार के अनुदान से यह एक धाम में परिवर्तित हो चुका है रहने ठहरने खाने पीने का समुचित प्रबन्ध है।नवरात में यहाँ दूर दूर से दर्शनार्थी आते है।

तलवाड़ा का सिद्धि विनायक एवम सूर्य मंदिर समूह:बांसवाड़ा का कोणार्क –

तलवाड़ा सँगमरमर की खानो एवम दक्ष शिल्प व तक्षण कार्य हेतु प्राचीन काल से ही सुविख्यात है।

बांसवाड़ा- त्रिपुरा सुन्दरी मार्ग पर स्थित प्राचीन सिद्धि विनायक देवालय देश के दुर्लभ एवं प्राचीन विनायक तीथों मेें से एक है।जनआस्था में इन्हें इच्छापूर्ति गणेश कहा जाता है। ऐतिहासिक संदर्भों के अनुसार मालवा के परमार राजा नरवर्मा पर अपनी जीत की खुशी में विक्रम संवत्1166 में वैशाख शुक्ल तृतीया ( 5 अप्रैल 1109) को यह मूर्ति सिद्धराज ने विधि-विधान के साथ प्रतिष्ठापित किया गया था। मंदिर के गर्भगृह में भगवान गणेशजी की छह फीट आकर्षक एवं असाधारण प्रतिमा है जो दुर्लभ एवं मूर्ति शिल्प का अपनी तरह का बेजोड़ उदाहरण है।

इसी मंदिर के पार्श्वभाग में प्राचीन सूर्य मंदिर है जिसके गर्भगृह में ढाई फीट ऊँचे कलात्मक अधिष्ठान पर 11 वीं सदी की भगवान भास्कर की साढ़े तीन फीट की श्वेत पाषाण प्रतिमा है। कोणार्क की तरह इस सूर्य मन्दिर में भी रथ चक्र और श्वेत पाषाणों पर निर्मित नवग्रह मूर्तियाँ थीं जिनके अवशेष पाए गए। इस मन्दिर के पास ही 12 वीं शताब्दी का बना लक्ष्मीनारायण का मन्दिर था जिसका जीर्णोद्धार कार्य जारी है। इन्हीं मन्दिरों के आस-पास खेतों में खुदाई से बारहवीं शताब्दी की शैव-वैष्णव और जैन मूर्तियाँ भी निकली हैं।

प्राचीन गदाधर मन्दिर:बांसवाड़ा का देलवाड़ा-

सूर्य मन्दिर समूह के ठीक सम्मुख कुछ ही दूरी पर द्वारिकाधीश का प्राचीन मन्दिर अवस्थित है। इसे गदाधर का मन्दिर भी कहते हैं। पूरी तरह पत्थरों से बने इस मन्दिर का प्रत्येक पाषाण कलाकृतियांे की सुन्दर नक्काशी से परिपूर्ण है। इस मन्दिर की छत पर उत्कृष्ट कारीगरी देखने को मिलती है जिसकी तुलनाआबू के विमलशाह मन्दिर से की जा सकती है है। भग्न अवशेषों को अब भी सरक्षण एवम जीर्णोद्धार की दरकार है।

छींच का ब्रह्मा मंदिर-बांसवाड़ा का पुष्कर

बाँसवाड़ा से दस मील दूर छींछ गांव में जलाशय के किनारे ब्रह्माजी का अति प्राचीन मंदिर है जो पुष्कर के बाद दूसरा ब्रह्मा मन्दिर है।निर्माण 12 वीं शताब्दी में हुआ ़है। इससे पूर्व ब्रह्माजी का आठवीं शताब्दी में बना मन्दिर था जिसमें सप्तधातु की ब्रह्मामूर्ति थी। इस देवालय का अनेकों बार जीर्णोद्धार होता रहा है।बाँसवाड़ा राज्य के ऐतिहासिक संदर्भों के अनुसार आषाढ़ादि विक्रम संवत 1593(चैत्रादि 1594) अमान्त वैशाख (पूर्णिमान्त ज्येष्ठ)वदी 1( ई.सं.1537, 26 अप्रैल) गुरुवार और अनुराधा नक्षत्रा के दिन महारावल जगमालसिंह के समय वैसी ही छोटी चतुर्मुख ब्रह्मा की मूर्ति प्राचीन वेदी पर स्थापित की गई।मंदिर के गर्भगृह में पाँच फीट ऊँची कृष्णवर्ण की घनी दाढ़ीदार एवं जटायुक्त ब्रह्माजी की भव्य मूर्ति है। छोटे से हंस की आकृतिनुमा ऊँचे अधिष्ठान पर खड़ी यह चतुर्मुख ब्रह्मामूर्ति शिल्प की दृष्टि से अद्भुत एवं मनोहारी है।

नंदिनी माता बड़ोदिया-वागड़ का पावागढ़–

नगर से सोलह किलोमीटर दूर सुंदर प्राकृतिक छटा में अवस्थित बड़ोदिया गांव के निकट अरावली की ऊँची पर्वतचोटी पर स्थित नंदिनी माता को ‘वागड़ का पावागढ़’ कहा जाता है।नंदिनी माता ग्राम्य देवी है जो शिशुओ की प्राकृतिक व दैवीय आपदाओं से रक्षा करने वाली दैवी के रूप में पूजी जाती है।यहां शारदीय व चैत्र नवरात्रि की भांति ही श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर मेले सा माहौल रहता है। लोकमान्यता में नंदिनी माता भगवान श्रीकृष्ण की जन्म के समय रक्षा करने वाली वासुदेव की वह सन्तान थी जो योगमाया का अवतार थी।जब कंस द्वारा उन्हें मारने का प्रयास किया तो आकाशमार्गी हो कर यही योगमाया शक्ति वायु मार्ग से होकर अरावली की इस पर्वतचोटी पर स्थापित हो गई। जनश्रुति है कि बड़ोदिया के निकट अरावली की इस पर्वतचोटी पर नंदबाबा की बेटी योगमाया शक्ति नंदिनी माता का मंदिर है।इस मान्यता के चलते ही वागड़ में सबसे पहले इसी पहाड़ी पर होलिका दहन होता है तथा इसके बाद में क्षेत्र के गांवों में होलिका दहन होता है तथा ढूढोत्सव में ढूढ़हा राक्षसी से अपने बच्चों की रक्षा करने के उद्देश्य से माता-पिता दैवी नंदिनी माता की पूजा करते है।

अमरावती या अरथूना :बांसवाड़ा का खजुराहो–

वागड़ के खजुराहो नाम से सुविख्यात उत्थुनक या अमरावती नगर एक दर्शनिय पुरास्थलहै जो परतापुर के पास स्थित पुरातत्व विभाग के संरक्षण में है। वागड़ नवीं से बारहवी सदी तक परमार राजाओं के अधीन था एवं इसकी राजधानी अरथुना थी। उस समय में अरथुना कला औऱ संस्कृति का गढ़ था।यहां तीन समूहो में बने मन्दिरो में शिव,वैष्णव,औऱ जैन मंदिर बने हुए है।पत्थर पर सुंदर नक्काशी,अलकृत स्तम्भ,नक्काशिदार छतें ,मन्दिरों की दरों दीवारों पर अप्सराओ,कथक नृत्यांगनाओं,,युगल मैथुनी मुर्तिया अत्यंत अद्वितीय ,बेशकीमती ,दुर्लभ औऱ कलात्मक तक्षण के नगरबद्ध नजारे है जो खजुराहो की याद दिलाते है।नागेला तालाब स्थित का कलात्मक दीप स्तम्भ देखने लायक है। हनुमान गढ़ी व नागेला स्थित मन्दिरों में कहीं कहीं कृशेरी, नरमुण्ड, श्वान, पाश कमण्डल, नागपाश, बिच्छू, ग्रहों, इन्द्र आदि की प्रतिमाएं है। एक मन्दिर पर चोरयासी आसन, चोंसठ येागिनियों आदि की मूर्तियां हैं जबकि अन्य मन्दिर के बाहर सुरसुन्दरी, भैरव, आदि की प्रतिमाएं हैं। अरथुना में खुदाई से निकली प्राचीन मूर्तियां कलकत्ता व बीकानेर के म्यूजियम में संग्रहित हैं जबकि ढेरों मूर्तियां अरथुना में ही संग्रहित पड़ी हैं।प्रमुख मन्दिर मंडलीक की स्मृति में विक्रम संवत् 1136 तद्नुसार 1080 ई. को स्थापित किया गया। इसे मण्डलेश्वर मंदिर के नाम से जाना जाता है।यहां के मण्डलेश्वर शिवालय में गर्भगृह सभा मण्डप से काफी नीचे है जिसमें दो फीट का बड़ा शिवलिंग है जिसकी जलाधारी तीन फीट गोलाई वाली है। इस मन्दिर का निर्माण दक्षिण भारतीय शैली में हुआ है।मण्डलेश्वर के पास छोटी मन्दरी है जिस पर सूक्ष्म तक्षण कला है। यहां कलात्मक छतरी भी है। मन्दिर के तल से लेकर शिखर तक सुन्दर कारीगरी का दिग्दर्शन होता है। मन्दिर के उत्तरी हिस्से में गौमुख है जिसका मुँह मगर के आकार का है। यहां अनेक शिलालेख भी मिले हैं।

मानगढ़ धाम:राजस्थान का जलियावाला — बांसवाड़ा जिले की आनंदपुरी पंचायत समिति की आमलिया ग्राम पंचायत अंतर्गत आंबादरा में एक हजार फीट ऊंची पहाड़ी है, जो मानगढ़ धाम के रूप में जानी जाती हैं।

राजस्थान-गुजरात की सीमा पर अरावली पर्वत की मानगढ़ धूनी वह स्थान है जहां पर 17 नवंबर, 1913, मार्गशीर्ष पूर्णिमा के अवसर पर क्रांतिदूत औऱ भगत आंदोलन के प्रणेता इतिहासपुरुष गोविन्द गुरु के नेतृत्व में आदिवासी शान्तिपूर्ण सभा कर रहे थे ।इन पर आक्रमण कर ब्रिटिश सेना ने इन निहत्थों को मौत के घाट उतार दिया । स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ते हुए करीब पंद्रह सौ आदिवासी शहीद हुए थे। एक ऐसा नरसंहार जिसको वर्तमान इतिहास में वह स्थान नहीं मिल पाया जिसका वह अधिकारी था ! न! यह एक ऐसी अपरिचित त्रासदी का पर्दाफाश है जो पंजाब में हुए जलियांवाला बाग नरसंहार से मेल खाती है जिसमें अंग्रेज जनरल डायर के आदेश पर पुलिस नेतीन सौ उन्नासी लोगों को गोलियों से भून डाला था ! हालांकि राष्ट्रवादी इतिहासकारों की मानें तो इसमें मारे गए लोगों की संख्या हजार से ज्यादा थी ।शहादत की इस अद्वितीय मिसाल को स्मारकीय रूप दे कर राष्ट्रीय संग्रहालय बनाया गया है जहाँ प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष पूनम पर मेला पड़ता है।यह बांसवाड़ा का गौरव औऱ दर्शनीय स्थल है।

पाराहेड़ा–अद्भुद शिल्प

पाराहेड़ा गांव में नांगेला तालाब के किनारे अवस्थित मंदिर समूह में कई मंदिर हैं, जो अत्यधिक प्राचीन हैं पर जीर्ण-शीर्ण होते जा रहे हैं। इस ऊंची टेकरी पर स्थित शिवालय को पाराहेड़ा शिवालय के नाम से जानते हैं। मंदिर की बनावट उत्तर भारतीय शैली के अन्य मंदिरों से भिन्न और विशिष्ट है। यह समूचा क्षेत्रा प्राचीनकाल में अति समृद्ध और धर्म श्रद्धा का अप्रतिम केन्द्र रहा है। मंदिर का निर्माण ईस्वी सन् 1059 में बताया जाता है। मुख्य मंदिर के बाहरी ओर के परिक्रमा पथ पर नन्हीं-नन्हीं बारीक मूर्तियां उत्कीर्ण हैं जिनकी भंगिमाएँ, लोच, रति क्रीड़ा के मनोविज्ञान एवं व्यावहारिक धरातल को बड़े ही आकर्षक एवं मनोहारी ढंग से चित्रित करती दिखायी पड़ती हैं। यह मूर्तियां अद्भुद शिल्प का नमूना है।

घोटिया आम्बा:पांडवो की विहार स्थली घोटिया आम्बाः बागीदौरा पंचायत समिति के बारीगामा ग्राम में सघन वन क्षेत्र में महाभारतकालीन स्थल है । जनश्रुति में यह यहां पाण्डवों का विहार स्थल था ।किंवदंतीनुसार इन्द्र द्वारा दी गई आम की गुठली को पाण्डवों ने यहां रोपा था। पाण्डवों ने भगवान श्रीकृष्ण की सहायता से 88 हजार ऋषियों को यहां भोजन कराया था । घोटिया आम्बा स्थल पर आम्र वृक्ष जन आस्था का केन्द्र है। हर साल विक्रम संवत् के अंतिम दिन घोटिया आम्बा पर विशाल मेले भरता है। इसमें करीब दो लाख मेलार्थी हिस्सा लेते है। यहीं पर सुरम्य केलापानी, झरना, कदली के पेड, पहाड़ों में मिलने वाले चावल, गो-मुख से झरता पवित्रा जल, पाण्डव कुण्ड, नर्मदा कुण्ड, घोटेश्वर शिव व पाण्डव कुल की मूर्तियां तथा अन्य देवालय श्रृद्धा के केन्द्र हैं।

भीमकुण्ड;रामकुंड:लुप्त इतिहास की कड़ियाँ-

परतापुर कस्बे के पास स्थित रामकुंड में जनश्रुतिनुसार सन् 1857 की क्रांति के उपरांत तांत्या टोपे तलवाड़ा के पास फाटीखाण या रामकुंड की एक गुफा में रहे थे। राणा उदयसिंह को बचाने के लिए पन्नाधाय यहीं से होकर ईडर गई थी। भीमकुण्ड एक शांत,सुरम्य प्राकृतिक स्थल है जिसका सम्बन्ध महाभारतकाल में पांडवो के वन विहार से जोड़ा जाता है।हो सकता है इतिहास की सुप्त गलियों में ये कड़िया आगे कुछ उजास भरे।दोनो ही दर्शनीय है।

अंदेश्वर ; सुरम्य जैन तीर्थ

इसके अलावा अनदेश्वर अतिशय क्षेत्र हिरन नदी के किनारे एक जैन अतिशय क्षेत्र कुशलगढ़ के समीप स्थित अतिशय जैन तीर्थ है जहाँ प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा को विशाल मेला भरता है। लोक आस्था के इस परम्परागत केन्द्र पर सभी धर्मांे के लोग आते हैं। इस इलाके में प्राचीन महत्व के मगरदा, मंगलेश्वर स्थल हैं जिनका पुरातात्विक महत्व भी कम नहीं है।

अन्य जगहों में कलिंजरा के जैन मंदिर,घुडी रणछोड़ मन्दिर,अनेक छतरिया,राजराजेश्वर मन्दिर, बेणेश्वर आदि है।प्रतिवर्ष पड़ने वाले मेले, सामाजिक जीवन की सादगी व आतिथ्य पूर्ण परम्पपराए बांसवाड़ा को विशेष पर्यटन स्थल का दर्जा देते है।आदिम संस्कृति के दिगदर्शन करवाता हरित पन्ने सा मढ़ा ,सैकड़ो द्वीपो का शहर;बांसवाड़ा एक सुरम्य सैरगाह है जो वन विहारियो,सन्तो,पर्यटकों,सैलानियों का स्वागत यही कहते हुए करता है कि -“वागड़ म्हारो देस मने प्यारो लागे जी।”जिस प्रकार से अहमदाबाद में साबरमती को पूर्ण नियोजित प्लान से विकसित किया गया है उसी तर्ज पर यदि कागदी पिक अप वियर से बहने वाले जल को सु नियोजित तरीके से विकसित किया जाए तो वह दिन दूर नही जब बांसवाड़ा शहर वेनिस की भांति विश्व के पर्यटन मानचित्र पर अपना स्थान बना सकता है।