अबुझमाड़ की करसाड़ जात्रा : लोक संस्कृति

पच्चीस बरसों के बाद अबुझमाड़ के नारायणपुर मार्ग पर जा रहे थे, उबड़-खाबड़ इकहरी सड़क अब चिकनी और दोहरी हो चुकी है। मार्ग पर सन्नाटे की जगह, चहल पहल दिखाई दे रही है। मोटर सायकिलों की भरपूर आवा जाही हो रही है, जो उस समय यदा कदा ही दिखाई देती थी। लग रहा था कि काफ़ी कुछ बदल गया है और बदल रहा है।
हम नारायणपुर से भीतर जंगल के कोकोड़ी गाँव में आदिवासियों के त्यौहार करसाड़ जात्रा में सम्मिलित होने जा रहे थे। जहाँ करंगाल परगना के पैंतालिस गांव के आदिवासी तीन दिवसीय त्यौहार करसाड़ मनाने के लिए एकत्रित हुए थे।

हमें कच्ची सड़क पर धूल उड़ाते हुए बहुत सारे लोग मोटर सायकिलों पर जाते हुए दिखाई दे रहे थे। हम भी उनके पीछे पीछे मंदिर तक पहुंच गए। सरई के वृक्षों के बीच सैकड़ों मोटरसायकिलें खड़ी थी एवं खुले मैदान में खई खजाने की दुकाने सजी हुई थी। आदिवासी महिलाएं-पुरुष एक दूसरे से मिलकर जुहार (अभिवादन) कर रहे थे।
राज टेका (राजेश्वरी) के मंदिर में भक्तों की भीड़ लगी हुई थी। परगना से आए हुए देव एक स्थान पर विराजमान थे। साथ ही जगदलपुर से आए हुए राजा के देवता (पाट देवता) की पूजा हो रही थी। देव हाड़े हिड़मा उनकी पत्नी राज टेका ग्राम भ्रमण पर थे। करंगाल परगना के देव मांझी महेश्वर पात्र के संचालन में सभी प्रक्रियाएं संचालित हो रही थी।

करसाड़ (कोंडागाँव क्षेत्र में ककसाड़) का अर्थ देवक्रीड़ा होता है, जिसे देवता खेलाना कहते हैं। करसाड़ को गोंडी भाषा में “करसी हियाना” कहा जाता है। करसाड़, हल्बा एवं गोंड़ दो आदिवासी जातियों के सम्मिलन एवं समरसता का पर्व है। देव मांझी महेश्वर पात्र ने कहते हैं कि बूढा देव के भाई का नाम हाड़े हिड़मा (कोकोड़ी करिया) है।
उन्होंने मावली देवी की पुत्री राजटेका से प्रेम विवाह किया था। मावली माता हल्बा जनजाति की देवी हैं और बूढा देव गोंड़ जनजाति के देवता हैं। बूढा देव के भाई हाड़े हिड़मा (कोकोड़ी करिया) एवं मावली देवी की बेटी राजटेका (राजेश्वरी) के प्रेम विवाह द्वारा हल्बा एवं गोंड़ जनजाति का मिलन हुआ और करसाड़ को दोनो जनजाति मिलकर मनाते हैं।

इस तीन दिवसीय पर्व के पहले दिन करंगाल परगना के सभी देव कोकोड़ी पहुंचते हैं, जिनमें हाड़े हिड़मा के बेटा बेटी एवं भाई बहन होते हैं। यहाँ पहुंचने पर देव मांझी उनका आगमन सत्कार सम्मान करते हैं ढोल बजाए जाते हैं। उसके बाद बेटी एवं बहनों को एक पक्ति में एवं बेटे और भाईयों को अगल पंक्ति में स्थान दिया जाता है।
रात को सामुहिक भोज होता है तथा अगले दिन जात्रा संयोजकों की तरफ़ से सबको एक समय पकाने खाने के लिए चावल दाल दिया जाता है। अगले दिन सुबह हाड़े हिड़मा एवं राजटेका ग्राम भ्रमण पर जाते हैं, प्रत्येक गृहवासी इनका तेल एवं हल्दी लगाकर स्वागत करता है। ग्राम भ्रमण के पश्चात इनको यात्रा स्थल पर लाया जाता है।

नगाड़ों की ध्वनि के से देवता खेलाने का कार्य प्रारंभ हो जाता है। वृक्षों के नीचे आराम कर रहे सभी लोग आयोजन स्थल पर पहुंच जाते हैं। महिलाएं नृत्य करती हैं एवं युवा ढोल बजाते हुए कदमों पर थिरकते हैं तथा इनके बीच देवता खेलते हैं। सिरहों पर देवताओं की सवारी आ जाती है। यह कार्य रात तक चलता है।
उसके पश्चात अगले दिन सुबह देवता तालाब में स्नान करते हैं एवं उनकी इच्छा के अनुरुप मुर्गा, बकरा, सुअर आदि की बलि दी जाती है। इसी स्थान पर बलि पकाई खाई जाती है। मंडादेव से नारायणपुर की मावली मड़ई की तिथि प्राप्त कर सांझ तक सभी देवता अपने अपने स्थान को रवाना हो जाते है एवं करसाड़ यात्रा सम्पन्न हो जाती।

इस जात्रा के दौरान नारायणपुर की प्रसिद्ध मावली मड़ई के आयोजन की तिथि देवताओं से पूछ कर तय की जाती है। उनकी इच्छा के अनुसार नियत तिथि को नारायणपुर में मावली मड़ई का आयोजन किया जाता है। यह मड़ई आगामी 21-22 फ़रवरी 2017 को आयोजित होगी। जात्रा में सम्मिलित होकर इस अवसर को अपने कैमरे में कैद करना एक सुखद अनुभव रहा तथा आदिवासी संस्कृति को समीप से जानने एवं समझने का अवसर मिला।
जो इलाका बारुद की गंध से हमेशा सराबोर रहता है और जहाँ कब किसकी मौत आ जाए, इसका पता नहीं है। मौत एवं जीवन के इस खेल के बीच अपने त्यौहारों एवं पर्वों को मनाते हुए अपनी प्राचीन परम्परा अक्षुण्ण रखना बड़ी बात है। लोक संस्कृति की जड़ें इतनी गहरी होती हैं कि इन्हें मिटाना संभव नहीं।

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