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वृक्षों एवं हरियाली की रक्षा से जुड़ा है वट सावित्री पर्व

रेखा पाण्डेय (लिपि)

धर्म-कर्म और आस्था से सम्पन्न भारत की पवित्र भूमि, जहां देवी-देवताओं के विभिन्न स्वरूपों की बड़ी श्रद्धा से पूजा-अर्चना करने के साथ पेड़ पौधे,पशु-पक्षी एवं जीव-जंतुओं की भी देवतुल्य वंदना की जाती है। क्योंकि यह सभी मानव जीवन का आधार स्तंभ हैं और मानव जीवन के विकास एवं कल्याण में इनका अमूल्य योगदान है। इसीलिए हमारे देश में मनाए जाने वाले व्रत, पर्व, त्यौहार प्रकृति और पर्यावरण से जुड़े हैं। जो धर्म के साथ इनके संरक्षण और संवर्धन के लिए प्रेरित करते हैं।

खगोल शास्त्रियों द्वारा ग्रहों की क्षण, प्रहर, तिथि, मास इत्यादि की गणना कर पंचांग(कैलेंडर) बनाया जाता है। इसमें तिथि अथवा दिवसानुसार विभिन्न व्रत, पर्व त्यौहार, उत्सव का उल्लेख रहता है। जिन्हें पौराणिक अथवा ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, किसी-न-किसी रूप में पूरे भारत में मनाया जाता है। यह परंपरा वर्तमान में भी मानव समाज में प्रचलित हैं।

भारत मे वट सावित्री अथवा बरगदाही व्रत ज्येष्ठ मास की अमावस्या को महिलाओं द्वारा मनाया जाता है। अखंड सौभाग्य, सुख-समृद्धि एवं सारे कष्टों -संकटों के नाश के लिए यह व्रत किया जाता है। पराशर मुनि ने कहा है ‘वट मूले तपोवासा।’ वट या बरगद का पेड़ अपनी विशालता, दीर्घायु एवं औषधीय गुणों के कारण अत्यंत महत्वपूर्ण है। पुराणों के अनुसार इसमें ब्रह्मा, विष्णु व महेश तीनों देवता का वास होता है। इसके नीचे बैठकर पूजन-अर्चन, व्रत कथा श्रवण-कीर्तन करने से समस्त मनोकामना पूर्ण होती है।

मनुष्य की जिम्मेदारी प्रकृति एवं पर्यावरण संरक्षण

प्राचीन काल से ही वट वृक्ष के नीचे बैठकर पूजन का कारण उसकी घनी छाया, शीतल वायु रही है। जो वनगमन के समय प्राणी मात्र को ज्येष्ठ की तपती धूप से सुरक्षित रखती थी। दार्शनिक दृष्टि से वट वृक्ष दीर्घायु एवं अमरत्व-बोध तथा ज्ञान और निर्वाण का भी प्रतीक है।

गौतम बुद्ध को वट वृक्ष के नीचे ही ज्ञान एवं निर्वाण प्राप्त हुआ था। धार्मिक परंपरा से जोड़ते हुए स्त्रियों द्वारा पति की दीर्घायु के लिए व्रत एवं पूजन किए जाने की परंपरा बनी। इस दिन सुहागिन महिलाएं प्रातः स्नान के साथ व्रत का संकल्प लेते हुए सोलह श्रृंगार कर वट वृक्ष को जल समर्पित कर विधि विधान से फल-फूल,नैवेद्य,भीगे चने,
गुड़, रोली, अक्षत अर्पित कर पूजा एवं व्रतकथा करती है।

कुछ महिलाएं दिनभर निर्जला उपवास करती हैं और कच्चा सूत इसके तने में सात बार लपेटते हुए (जो पति-पत्नि के सात जन्मों के संबंध को दर्शाता है) अथवा 108 बार परिक्रमा (फेरी लगाना) करती हुई अपने पति-पुत्र की दीर्घायु एवं मंगल की कामना करती हैं। भजन-कीर्तन के साथ पूजा पश्चात ब्राह्मणों को यथाशक्ति दान-दक्षिणा देकर व्रत सम्पन्न किया जाता है।

नारी शक्ति की सशक्त प्रतीक देवी अहिल्या बाई

हिंदू पंचांग के अनुसार ज्येष्ठ माह की अमावस्या को तथा अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार मई-जून में मनाया जाने वाला यह उत्सव महाभारत में वर्णित सावित्री और सत्यवान की कथा पर आधारित है।

पौराणिक कथा अनुसार यमराज ने माता सावित्री के पति सत्यवान के प्राणों को वट वृक्ष के नीचे ही लौटा कर सौ पुत्रों का वरदान दिया। मान्यता है तभी से वटसावित्री व्रत और वट वृक्ष की पूजा की परंपरा प्रारंभ हुई। इस दिन पूजा-व्रत करने से यमराज के साथ त्रिदेवो की भी कृपा प्राप्त होती है। वट या बरगद को देव वृक्ष एवं अत्यंत पवित्र माना जाता है इसमें सावित्री भी निवास करतीं हैं।

इसलिए ‘अवैधव्यं च सौभाग्यं देहि त्वं मम सुव्रते। पुत्रान्‌ पौतांश्च सौख्यं च गृहाणार्ध्यं नमोऽस्तु ते।’ इस मंत्र से सावित्री को अर्घ्य देना चाहिए। मान्यता है कि प्रलय के अंत मे श्री कृष्ण भी इसी के पत्ते पर प्रकट हुए थे। तुलसीदास जी ने वट वृक्ष को तीर्थराज का छत्र कहा है। वट की दीर्घायु,शक्तिशाली और धार्मिक महत्व के कारण ही पूजा की जाती है। साथ ही पर्यावरण की दृष्टि से भी बरगद का वृक्ष अत्यंत महत्वपूर्ण है।

 

लेखिका साहित्यकार हैं एवं समसामयिक विषयों पर निरंतर लेखनी चलाती हैं।

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