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माता शीतला की उपासना और पौराणिक मान्यताएँ

शीतला सप्तमी एक महत्वपूर्ण भारतीय पर्व है जो माता शीतला को समर्पित होता है। यह व्रत मुख्य रूप से उत्तर भारत राजस्थान गुजरात और मध्य प्रदेश में श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाया जाता है। इस दिन माता शीतला की पूजा कर रोगों से मुक्ति और परिवार की सुख-समृद्धि की कामना की जाती है।

शीतला सप्तमी का धार्मिक और वैज्ञानिक दोनों ही दृष्टिकोण से विशेष महत्व है। धार्मिक रूप से माता शीतला को शीतलता प्रदान करने वाली देवी माना जाता है। वह चेचक खसरा आंखों के रोग और त्वचा संबंधी बीमारियों से बचाव करती हैं। वैज्ञानिक रूप से यह पर्व गर्मी के मौसम के आगमन से पहले मनाया जाता है। इस दौरान ठंडी और बासी चीजें खाने की परंपरा होती है जिससे पाचन तंत्र को अनुकूलित करने में सहायता मिलती है और बीमारियों से बचाव होता है।

शीतला सप्तमी का संबंध मुख्य रूप से माता शीतला की उपासना से है। मान्यता है कि माता शीतला भक्तों को महामारी और संक्रामक रोगों से रक्षा करती हैं। इस दिन व्रत और पूजा करने से व्यक्ति के घर में स्वास्थ्य शांति और समृद्धि बनी रहती है। पौराणिक कथाओं के अनुसार एक बार राजा वीर्यधवल की रानी ने शीतला माता की अवहेलना की थी।

इसके परिणामस्वरूप उनके राज्य में महामारी फैल गई। जब राजा-रानी को अपनी भूल का एहसास हुआ तब उन्होंने माता शीतला की पूजा कर उनसे क्षमा मांगी। इसके बाद माता ने प्रसन्न होकर उनके राज्य को महामारी से मुक्त कर दिया। तभी से शीतला सप्तमी और शीतला अष्टमी का विशेष महत्व बढ़ गया।

शीतला सप्तमी के दिन प्रातः काल स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण किए जाते हैं। इस दिन चूल्हे का प्रयोग नहीं किया जाता अतः एक दिन पहले ही भोजन बना लिया जाता है जिसे बसौड़ा कहा जाता है। महिलाएं विशेष रूप से व्रत रखती हैं और माता शीतला की पूजा करती हैं। शीतला माता की प्रतिमा को पंचामृत और जल से स्नान कराकर स्वच्छ वस्त्र पहनाए जाते हैं।

जल रोली हल्दी फूल धूप दीप नैवेद्य आदि अर्पित किए जाते हैं। बासी भोजन बसौड़ा का भोग माता को लगाया जाता है और परिवार के सभी सदस्य प्रसाद रूप में इसे ग्रहण करते हैं। शीतला माता के मंदिर में जाकर कथा श्रवण की जाती है। इस दिन विशेष रूप से मीठी रोटी चावल दही बासी पूड़ी हलवा आदि का भोग लगाया जाता है। परिवार के सभी लोग यह प्रसाद ग्रहण करते हैं।

शीतला माता हिंदू धर्म में एक प्रमुख देवी हैं जिन्हें रोगों विशेष रूप से चेचक खसरा और त्वचा संबंधी बीमारियों को दूर करने वाली देवी के रूप में पूजा जाता है। शीतला माता को शीतलता और शुद्धता की देवी माना जाता है। वे दुर्गा के एक स्वरूप मानी जाती हैं और लोकमान्यता के अनुसार उनकी उपासना करने से महामारी और संक्रामक रोगों से बचाव होता है। शीतला माता का वर्णन स्कंद पुराण देवी भागवत और ब्रह्म वैवर्त पुराण में मिलता है।

एक कथा के अनुसार जब भगवान ब्रह्मा ने मां दुर्गा के विभिन्न रूपों की रचना की तब उन्होंने शीतला देवी को भी उत्पन्न किया। माता शीतला के साथ ज्वरासुर नामक एक असुर भी प्रकट हुआ जो संसार में रोग फैलाने लगा। माता शीतला ने इस असुर को नियंत्रित किया और लोगों को चेचक तथा अन्य रोगों से बचाने का व्रत लिया। एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार माता शीतला भगवान शिव की शक्ति से उत्पन्न हुई थीं और उन्होंने संसार में व्याप्त महामारी से लोगों को बचाने के लिए अवतार लिया था।

माता शीतला का स्वरूप अत्यंत शांत करुणामयी और सौम्य होता है। वे हाथों में झाड़ू सूप कलश नीम की पत्तियां और दवाओं से भरा पात्र धारण करती हैं। माता शीतला का वाहन गधा होता है। गधा धैर्य सहनशीलता और संयम का प्रतीक माना जाता है। झाड़ू स्वच्छता और रोगों को दूर करने का प्रतीक है।

नीम की पत्तियां औषधीय गुणों से भरपूर होती हैं और रोगों से रक्षा करती हैं। कलश जल पात्र शुद्धता और जीवनदायिनी शक्ति का प्रतीक है। सूप हवा से धूल रोगाणु और अशुद्धियों को दूर करने का प्रतीक है। बासी भोजन बसौड़ा इसे माता को प्रसाद के रूप में चढ़ाया जाता है क्योंकि माना जाता है कि ठंडा भोजन बीमारियों को नियंत्रित करने में सहायक होता है।

माता शीतला की पूजा विशेष रूप से शीतला सप्तमी और शीतला अष्टमी को की जाती है। यह पूजा मुख्य रूप से संक्रामक रोगों से बचाव और स्वास्थ्य शांति और समृद्धि के लिए की जाती है। माता शीतला की कृपा से चेचक खसरा ज्वर और त्वचा संबंधी रोगों से मुक्ति मिलती है। माता शीतला न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक हैं बल्कि उनका स्वरूप वैज्ञानिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। वे रोगों की निवारक देवी हैं और स्वच्छता संयम और प्राकृतिक जीवनशैली को अपनाने की प्रेरणा देती हैं। उनकी पूजा से भक्तों को मानसिक शारीरिक और आध्यात्मिक शीतलता प्राप्त होती है।

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