प्रदर्शन कलाओं में रघुनंदन

श्रीराम भारतीय लोक जीवन के आधार हैं। उनका जीवन इतना अद्भुत और नवीनतम है,कि उसे बार-बार देखने और सुनने से मन नही भरता।अयोध्या में रामलला विराजमान होते ही विश्व में राम का जयघोष गुज रहा है। हर किसी का मन रामभक्ति में भावविभोर है। राम का मध्य भारत की मिट्टी से बहुत गहरा रिश्ता है।

त्रेता युग में विदर्भ देश के राजा भोज की बहन इंदुमती का विवाह अज राजा से हुआ था। जो राजा दशरथ के पिता और राम के दादा थे। बाद में कौशल देश की राजकुमारी कौशल्या राजा दशरथ की रानी बनी थी। उनके घर ही राम का जन्म हुआ।

वनवास के समय राम-सीता, लक्ष्मण चित्रकुट, छत्तीसगढ होकर रामटेक, दंडकारण्य, पंचाप्सर (लोनार) के रास्ते पंचवटी आये थे।यहीं से रावणने सीताहरण किया था। मार्ग में इगतपुरी के निकट ताकेड में जटायु का रावण से युद्ध हुआ। बाद में राम-लक्ष्मण बाणगंगा, येरमाला, येडशी, तुलजापुर, नलदुर्ग होते हुए सीता खोज में लंका पहुंचे थे।

रावण वध पश्चात राम-सीता और लक्ष्मण मध्य भारत की धरती से अयोध्या लौटे थे। इसलिए मध्य भारत की कला, साहित्य और संस्कृति में राम का बहुत गहरा प्रभाव है। ऐसा माना जाता है कि राम के वनगमन के बाद अयोध्यावासियों ने रामलीलाओं का मंचन करना शुरू किया।

आगे 16 वी शताब्दी में गोस्वामी तुलसीदास ने रामलीला का विस्तार किया। जो दक्षिण एशिया के विभिन्न देशों तक फैला। नृत्य, नाट्य, गीत, संगीत और रंगमंच के माध्यम से रामायण प्रस्तुत होने लगा। मध्य भारत भी इससे अछूता नहीं रहा। तबसे रामायण की सुनहरी परंपरा लोक में निहित है।

इस क्षेत्र में रामलीला, भवाडा, नाच, ललित, आल्हा, लोकरामायण, बहुरूपिया रामायण, दशावतार, दंडार, सोंगी पात्र, बोहाडा, चित्रकथी, छायानाट्य, कठपुतली आदि प्रदर्शन कलाओं में रामायण नाट्य प्रचलित है।जिसमें राम सहजता से दृष्टिगोचर होते हैं। प्रस्तुत करनेवाले कलाकारों के चेहरे की आभा में राम ही प्रतिबिंबित होने लगते है। इतना इन कलाओं से राम का नाता बेजोड़ है।

घुमंतू ‘बसदेवा’ मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ समेत महाराष्ट्र में घुमक्कड़ी करके जीवनयापन करते है। उन्हे ‘हरबोला’, ‘तुंबडीवाले’, ‘गंगापारी’ के नामों से भी जाना जाता है। उनका पेहराव बड़ा आकर्षण होता है, वह माथे पर चंदन, सिर पर पगड़ी और धोती पहनते है। उनके पास तुम्बडी , करताल, एकतारा जैसे वाद्य होते हैं। वह गायन की शुरुआत ‘हे मोरे राम’, ‘राम राम’ से करते है। वह तल्लीन होकर राम कथा से संबंधित आख्यानों का गायन करते हैं।

रामजन्म, सीता स्वयंवर, सीता हरण, जटायु वध, बाली-सुग्रीव संघर्ष, सीता खोज, लंका दहन, राम-रावण युद्ध, अहिरावण-महिरावण, मेघनाथ वध, रावण वध आदि प्रसंगों को विस्तार से गाते हैं। उनका गायन मुख्यतः खड़ी हिन्दी, बुंदेली, छत्तीसगढ़ी, मराठी आदि लोकभाषाओं में होता है।

मध्य भारत में घुमंतू ‘बहुरूपियाँ’ भगवान शिव, राम-लक्ष्मण-सीता, हनुमान, नारद, ऋषि-मुनि आदि सोंग लेकर गाँव गाँव घूमते हैं, अपनी कला प्रदर्शित करते हैं। उनके कुछ समूह हार्मोनियम, तबला और मंजीरा जैसे वाद्यों पर लगभग दस दिनों तक रामकथा के अलग-अलग दृश्यों को नाट्य के माध्यम प्रस्तुत करते है।

मराठा क्षेत्र में ‘वासुदेव’ काफ़ी लोकप्रिय है। उनके सिर पर मोरपंखी टोपी, गले में तुलसी की माला, माथे पर चंदन होता है।वह आकर्षक पोशाक पहने, हाथों में चिपली, टाल की धुन पर वाचिक परम्परा के आख्यान एवं गीत गाते हैं। जिसमें रामायण बहुत लोकप्रिय है। जिसकी शुरुआत गणेश वन्दना से होती है। कथा नृत्य और संवादों के माध्यम से आगे बढ़ती है।

भगवान राम का प्रेरक जीवन, सीता का महिमा बताया जाता है। विदर्भ क्षेत्र में हर वर्ष गणेश चतुर्थी से कार्तिक पूर्णिमा तक ‘दंडार’ का आयोजन होता है। जो नृत्य, नाट्य एवं गायन द्वारा प्रस्तुत की जाती है। जिसमें रामकथा के प्रसंगों को नाट्य के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।

राम का जन्म अयोध्या के महल में दिखाया गया है। उसके बाद जनकपुरी में सीता स्वयंवर होता है। फिर राम-लक्ष्मण, सीता का वनवास, सीताहरण, राम-रावण युद्ध, राम राज्याभिषेक आदि के परिदृश्य दिखाए जाते हैं। अंत में सीता वनवास, लव-कुश लीला दिखाई जाती है।

महाराष्ट्र के कई गांवों में ‘लोक रामायण’ का आयोजन हर्षोल्लास के साथ होता है। विदर्भ में इसे ‘ललित’, ‘भरतभेट’ कहा जाता है। गांव से राम-सीता की बारात निकाली जाती है। इसमें भजन मंडली उत्साह से सम्मिलित होती है।गाँव के कलाकार सहज भाव से इसने अपनी कला को प्रदर्शित करते हैं। कोई राम तो कोई सीता बन जाता है। कोई रावण का रूप धारण करता है, तो कोई हनुमान। छोटे बच्चे वानर बन जाते हैं। झांझ, ढोल, मृदंग, मंजिरा आदि बजाकर संगीत प्रदान किया जाता है।

रामकथा में प्रतिदिन की घटनाओं को सम्मिलित एवं प्रदर्शित किया जाता है।इसके लिए गांव से चंदा, सामान, अनाज इकट्ठा किया जाता है। किरदारों का चयन शारीरिक बनावट, बुद्धि और अभिनय के आधार पर किया जाता है। सुंदर युवाओं को राम-लक्ष्मण, सीता की भूमिका दी जाती है। ऊंची आवाज और बडे कद वाले राक्षस बनते है।

हनुमान की भूमिका किसी ताकतवर व्यक्ति को दी जाती है। एक लंबा और ताकतवर आदमी रावण बन जाता है। बुजुर्ग सज्जन राजा दशरथ, राजा जनक, ऋषि वाल्मिकी, विभीषण का किरदार निभाते हैं। इस प्रस्तुती में चौपाई गायन होता है।

कोंकण में कार्तिक पूर्णिमा के बाद ग्राम देवताओं के मेले लगते हैं। जिसमें ‘दशावतार’ नाट्य प्रस्तुत किये जाते हैं। दशावतार के उत्तररंग में रामायण से संबंधित नाट्य दिखाये जाते हैं। जिसमें ‘दशरथ-कौशल्या विवाह’, ‘सीता स्वयंवर’, ‘भरत दर्शन’, ‘हनुमान जन्म’, ‘रामेश्वर लिंग स्थापना’, ‘वेडी-विजया’, ‘गोकर्ण महाबलेश्वर’, ‘अहिल्या उद्धार’, ‘लव-कुश’ आदि प्रमुख हैं।

मध्य भारत के कुछ हिस्सों में मातंग जाति के लोग डफला बजाते हैं। हर साल वे महाशिवरात्रि और श्रावण माह के दौरान सालबर्डी और चौरागढ़ (पंचमढ़ी) की पैदल तीर्थयात्रा करते हैं। उनके कंधे पर महादेव का बाण और हाथ में डफला होता है।यह समूह मुख्यतः महादेव-पार्वती के गीत गाते हैं। इन गीतों में रामकथा सुनाई जाती हैं।

जनजातीय संस्कृति का भी रामायण से नज़दीकी रिस्ता है। यहाँ कातकरी खुद को वानर सेना का वंशज मानते हैं। भील माता शबरी को अपना वंशज मानते हैं।सह्याद्रि क्षेत्र के वनवासी हर साल बोहाडा उत्सव मनाते हैं।

गाँवों मे राम, लक्ष्मण, सीता, रावण, हनुमान आदि के रूप लेकर जुलूस निकाला जाता हैं। रावण ताटी का नृत्य होता है।भीलों में ‘रोनम सीतामणी वारता’ अर्थात भीली रामायण प्रचलित है। जिसे बारहमासा उत्सवों, पर्वों एवं अनुष्ठानों के दौरान प्रस्तुत किया जाता है। श्रावण-भाद्रपद माह में ‘सीता कथा’ सुनाने की प्रथा है।

विवाह समारोह में ‘राम सीता विवाह’, ‘राम सीता और लक्ष्मण का अरण्य खंड’ होता है। किसी की मृत्यु होने पर सूतक, दसक्रिया अनुष्ठान, समाधि के अवसर पर ‘नाई दशरथ राजा’, ‘श्रवण कुमार’, ‘जनक राजा’ तो माघ माह में ‘हनुमान का लंका कांड’, ‘राम लक्ष्मण का लंका आगमन’, ‘रावण वध’ जैसी कथायें बताई जाती हैं।

यहाँ कोरकूओं की अलग मौखिक परंपरा है। कोरकू राम, लक्ष्मण, सीता, हनुमान के साथ-साथ रावण, मेघनाथ को भी देवता मानते हैं। कोरकू लोककथाओं में रामायण बताया जाता हैं।जिसमें राम, सीता और लक्ष्मण पूरी तरह से वनवासियों की तरह जीवन अर्जित करते हैं। उनके जैसा ही खाना खाते हैं और उनकी जीवन शैली में जीते है।

इस क्षेत्र में अनेक स्थानों पर ‘मेघनाथ स्तंभ’ स्थापित होता है। जिसकी भूमका द्वारा पूजा की जाती है। उसके सामने मुर्ग़ा तथा बकरें की बलि चढ़ाई जाती है। वनवासी निहाल होली में रावण की पूजा करते हैं और गीत गाते है। खानदेश में भील, कोंकणा , वारली, धानका, पावरा, मावची जनजातीयों के देवता, त्यौहार, उत्सव प्रकृति से जुड़े हैं। डोंगर देव तथा कनसरी पूजन उनके बड़े उत्सव है।

इन उत्सवों के दरम्यान वाचिक परम्परा का रामायण सुनाया जाता है। जिसे थालगान कहते है। जिसमें रामकथा संवादात्मक ढंग से प्रस्तुत होती है। ठाकरों की प्रदर्शन कलाओं में ‘कलसूत्री बाहुली’, ‘छायनाट्य’ और ‘चित्रकथी’ आदि प्रमुख हैं। इन कलाओं में रामकथा प्रमुख होती है। यह लोग अपनी पुश्तैनी ढंग में रामायण प्रस्तुत करते हैं ।

ऐसे लोक संस्कृति के विभिन्न प्रकारों में रामायण प्रदर्शित किया जाता है। जिसमें मिट्टी की गन्ध है। जनजीवन के कई आयाम कलाओं में प्रकट होते हैं। हज़ारों सालों से रामकथा का जतन एवं संवर्धन इन कलाओं द्वारा सहजता से हो रहा है। जनसामान्य का राम से रिश्ता जोड़ने में यह कलाएँ काफ़ी अहम भूमिका निभाती आ रही है।

इन कलाओं की विशेषता यह रही है कि जो कोई राम को जैसा महसूस करता है, वैसा ही प्रस्तुत करने का प्रयास करता है। यह कलाएँ हमारी संस्कृति की अनमोल धरोहर हैं। समय के साथ इनमें काफी बदलाव हो रहे है। कुछ तो लुप्त होने की कगारपर है। जिनका संरक्षण एवं संवर्धन बेहद जरूरी है।

आलेख

डॉ श्रीकृष्ण काकडे,
महाराष्ट्र kakadeshri@gmail.com

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