ऐसी ब्रिटिश नागरिक जो भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के प्रति समर्पित रहीं
भारतीय परंपरा और संस्कृति ने सदैव विश्व को आकर्षित किया है। ऐसी ही ब्रिटिश नागरिक थीं नैली जिन्होंने भारतीय युवा जितेंद्र मोहन से विवाह किया, स्वतंत्रता आँदोलन में जुड़ी और अंत में स्वदेशी के लिये जीवन समर्पित कर दिया। नेली सेनगुप्त मूलतः भारतीय नहीं थीं वे इंग्लैंड में जन्मीं थीं। इग्लैंड की नागरिक थीं। उनकी शिक्षा भी इंग्लैंड के कैम्ब्रिज स्कूल में हुई। उनके पिता एडिथ फ्रेडरिक एक क्लब में काम करते थे और माता एडिथ हेनरीटा ग्रे भी एक डिपार्टमेन्टल स्टोर में काम करतीं थीं।
पढ़ाई के दौरान उनका परिचय भारतीय छात्र यतीन्द्र मोहन सेनगुप्त से हुआ। दोनों में प्रेम बढ़ा और विवाह कर लिया। नेली के माता पिता इस विवाह के विरुद्ध थे पर नेली अपने निर्णय पर दृढ रहीं। अंततः विवाह हुआ। विवाह के बाद उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की और 1909 में पति के साथ भारत आ गयीं।
पति यतीन्द्र का संपर्क अनुशीलन समिति से था। यह समिति भारतीयों के साथ अंग्रेजों के अमानवीय व्यवहार के विरुद्ध जन जागरण कर रही थी। जब वे भारत लौटीं तब यहाँ अंग्रेज सरकार ने उन्हें ब्रिटिश नागरिक होने के नाते सरकारी नौकरी का प्रस्ताव दिया जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया और नौकरी करने लगीं। किन्तु उन्हें शासकीय कार्यालयों और सार्वजनिक स्थलों पर भारतीयों के साथ अंग्रेजों द्वारा किया जाने वाला तिरस्कार का व्यवहार और शोषण अच्छा न लगा। वे मानवीय स्तर पर सबको समान मानती॔ थीं।
यदि कहीं कोई भारतीय बड़े पद पर है और अंग्रेज छोटे पद पर तब भारतीय को क्यों खड़े होना चाहिए और क्यों सामान्य अंग्रेज को पानी पिलाना चाहिए। आरंभ में उन्होंने स्थानीय अधिकारियों से चर्चा करके मानवीय व्यवहार समझाना चाहा, पर बात नहीं बनी और वे भी नौकरी छोड़कर समाज के जागरण में जुट गयीं।
उनका मानना था कि यदि समाज जागरुक हो, शिक्षित हो तो तो अनेक समस्याये अपने आप हल हो जाती है। उन्होंने स्पष्ट कहा कि वे नागरिक सम्मान की समानता केलिये प्रयत्नशील हैं। उनकी सक्रियता से अंग्रेज अधिकारी बेचैन हुये। अधिकारियों को उनको समझाना चाहा। पर बात नहीं बनीं।
बातचीत में नैली ने स्पष्ट किया कि वे सरकार के विरुद्ध नहीं हैं, मानसिकता सुधारने केलिये प्रयास कर रहीं हैः। उनका सरकार के समर्थन या विरोध का कोई लेना देना नहीं। यह मानवीय अधिकार और मानवीय सम्मान का प्रश्न हैं। और नेली ने घूम घूम कर सभायें करना और लोगों को जाग्रत करना आरंभ कर दिया।
वे नौकरी छोड़ कर भारत की स्वतंत्रता आँदोलन में जुड़ गयीं और अंग्रेज सरकार के विरूद्ध खुल कर सभाएँ करने लगीं। समय के साथ दो बेटे हुये। जिनके नाम शिशिर और अनिल रखे गये। नेली के पति जतिन्द्र मोहन ने कोलकाता में एक वकील के रूप में अच्छी प्रतिष्ठा अर्जित की। वे तीन बार कोलकाता के मेयर बने।
1921 के असहयोग आंदोलन भाग में दोनों पति पत्नि गिरफ्तार हुये। उन्हें तीन दिन कैद में रखकर डराया और समझाया गया अंततः ब्रिटिश नागरिक के नाते केवल चेतावनी देकर छोड़ दिया गया। इस घटना से उनका गुस्सा एक कदम और आगे बढ़ा। वे स्वतंत्रता आँदोलन के साथ स्वदेशी अभियान से भी जुड़ गईं। उन्होंने अपना खादी उत्पादन केन्द्र बनाया और घर-घर जाकर बेचने का अभियान चलाया। वे न केवल स्वयं खादी पहनने लगीं। अन्य को भी प्रेरित करतीं।
उनके खादी अभियान ने जरूरतमंद महिलाओं को भी रोजगार उपलब्ध कराया। 1931 में पुनः गिरफ्तार हुईं इस बार उन्हें माह का कारावास मिला। वे दिल्ली की जेल में रहीं। 1933 में रांची जेल में जतिन की मृत्यु हो गयी। फिर भी स्वाधीनता संघर्ष से दूर न हुई। उन्होंने 1940 और 1946 में बंगाल विधान सभा के लिए कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा और विजयी हुईं। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान उन्होंने घायल भारतीय सैनिकों की सेवा की। स्वतंत्रता के बाद पति के गृहनगर चटगाँव में आ गई।
बंटवारे में यह हिस्सा पाकिस्तान में चला गया और इस क्षेत्र को पूर्वी पाकिस्तान नाम मिला। पाकिस्तान में हिन्दू अल्पसंख्यक हो गये। और पीड़ित काये गये ।नैली बंटवारे की हिंसा से पीड़ित हिंदू अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा में जुट गई। 1954 में वे पूर्वी पाकिस्तान जो (अब बंगलादेश है) की विधान सभा के लिए निर्विरोध सदस्य बनीं।
। 1972 में गिर पड़ने से घायल हो गईं उनका कुल्हा टूट गया और वे विस्तर पर आ गई। उन्होंने भारत आने की इच्छा व्यक्त की। पूर्वी पाकिस्तान 1971 में बंगलादेश बन चुका था। उनकी इच्छा के अनुरूप बंगलादेश के प्रधानमंत्री शेख मुजीबुर्हमान ने भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी से संपर्क किया। 1972 में नैली जी को भारत लाया गया। उनके उपचार का प्रबंध भारत सरकार ने किया सभी चिकित्सा खर्चों का भुगतान भारत सरकार द्वारा किया गया। अंततः 23 अक्टूबर 1973 में कलकत्ता में उनका निधन हुआ।
बहुत सुंदर जानकारी भईया💐💐💐💐