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भारतीय समाज में एकता और समरसता के प्रतीक महर्षि वाल्मीकि

महर्षि वाल्मीकि भारत के उन विरली विभूतियों में से एक हैं जिनकी उपस्थिति पूरे देश में है और सभी सामाजिक स्वरूप में मान्यता है। हर समाज उन्हें अपना पूर्वज मानकर गर्व करता है। भारत की समाज व्यवस्था जन्म के आधार पर कभी नहीं रही। गुण और कर्म के आधार पर रही है। महर्षि व्यास की माता मछुआरा समाज से हैं तो महर्षि जाबालि की माता गणिका। लेकिन अपने गुण कर्म ऋषि बने। इसी प्रकार बाल्मीकि जी भी अपने गुण कर्म से महर्षि बने। इसलिये समाज में उनकी गणना महर्षि परंपरा में होती है।

उनकी मान्यता भारत के सभी समाज जनों में हैं। सब उन्हें अपना मानते हैं। भारत का भील वनवासी समाज उन्हें अपना पूर्वज मानता है, पंजाब में एक समाज स्वयं को क्षत्रिय मानता है और वाल्मीकि जी को अपना पूर्वज मानता है, मालवा और राजस्थान में सेवावर्ग से संबंधित एक समाज स्वयं को बाल्मीकि का वंशज मानता है। गुजरात में उन्हें निषाद समाज से संबंधित माना जाता है। भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में बाल्मीकि जी अलग अलग समाज से जोड़ कर देखा जाता है।

स्वयं को वाल्मीकी जी का वंशज मानने वालों में उपनाम भी ऐसे हैं जो सभी वर्गों की ओर इंगित करते हैं। वाल्मीकि समाज में “चौहान” उपनाम भी होता है और “झा” उपनाम भी। बिहार प्राँत के भोजपुरी क्षेत्र में “झा” ब्राह्मणों में उपनाम होता है तो “चौहान” पूरे देश में क्षत्रियों का उपनाम माना जाता है। वाल्मीकि समाज में “वर्मा” भी होते हैं और चौधरी एवं पटेल भी। इस प्रकार वे लगभग सभी वर्गों और उपवर्गो में मान्य हैं।

महर्षि वाल्मीकि किस समाज या समूह से संबंधित हैं, इस पर मतभेद हो सकते हैं पर यह तथ्य सर्व स्वीकार्य है कि वे संसार के आदि कवि हैं, उन्होंने पुरुषार्थ, परिश्रम और तप से अपने व्यक्तित्व का निर्माण किया। वे सर्व समाज में मार्गदर्शक और  पूज्य हैं। वे भारत में सामाजिक एकत्व और समरसता के प्रतीक हैं। उन्होंने अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से संपूर्ण समाज और भूभाग को एक सूत्र में पिरोया। वे सबके लिये आदर्श थे तभी तो दशरथ नंदन राम ने उन्हें धरती पर लेटकर साष्टांग प्रणाम किया था और उन्हीं से वन में रहने के लिय सुगम स्थान पूछा। माता सीता उन्ही के आश्रम में रहीं और बाल्मीकि जी ने ही लवकुश को शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा दी।

भारतीय वाड्मय में जिस प्रकार उनकी सामाजिक व्यापकता है। भारत के हर प्राँत और क्षेत्र में बाल्मीकि जी के आश्रम होने का उल्लेख मिलता है। इससे एक बात स्पष्ट होती है कि या तो स्वयं वाल्मीकि जी ने संपूर्ण भारत की यात्रा करके समाज और राष्ट्र को एक स्वरूप में बांधने का प्रयास किया होगा अथवा उनकी शिष्य परंपरा पूरे देश में फैली और अपने गुरु महर्षि बाल्मीकि जी के नाम पर आश्रम स्थापित करके संपूर्ण भारत राष्ट्र को एक ही ज्ञानसूत्र में पिरोया। इसीलिये उनका संदर्भ सभी समाजों में और देश के सभी स्थानों में मिलते हैं।

 

बाल्मीकि जी का जन्म और जन्म कथायें

वाल्मीकि जी का जन्म अश्विन माह की पूर्णिमा को माना जाता है। शरद पूर्णिमा के रूप में यह पूर्णिमा विशिष्ट है। इस वर्ष यह पूर्णिमा 17 अक्टूबर को पड़ रही है। इसलिये इस वर्ष 17 अक्टूबर को बाल्मीकि जयंति मनाई जा रही है। भारत के विभिन्न स्थानों बाल्मीकि के मंदिर या तपस्या स्थल मिलते हैं। इन सभी स्थानों में उनके जन्म स्थान होने की मान्यता है।

नेपाल, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, विहार, मध्यप्रदेश महाराष्ट्र, गुजरात और छत्तीसगढ़ ही नहीं सुदूर केरल में भी वाल्मीकि जी के मंदिर हैं। नेपाल के चितवन जिले में वाल्मीकि मंदिर है तो उत्तर प्रदेश में तमसा, सोना और सप्त गंडक के संगम स्थल को उनकी जन्म स्थली और आश्रम होने की मान्यता है।

एक दावा प्रयाग से लगभाग चालीस किलोमीटर दूर झाँसी माणिकपुर रोड पर उनके जन्म स्थान होने का दावा किया जाता है तो एक दावा चित्रकूट का है। एक दावा सीतामढी के बिठूर में तो एक दावा हरियाणा फतेहाबाद में और कोई मध्यप्रदेश के मंडला जिले में नर्मदा संगम पर बने वाल्मीकि आश्रम को उनकी तपोस्थली मानता है। इन सभी स्थानों पर शरद पूर्णिमा को पूजन भंडारे होते हैं। कहीं कहीं तो चल समारोह भी निकलते हैं ।

जैसी विविधता उनके जन्मस्थान की है वैसी ही विविध पुराणों और ग्रंथो विविधता से भरा उनका संदर्भ मिलता है। उनकी जन्म कथाएँ भी विविध हैं। कुछ पुराण कथाओं में उन्हें प्रचेता का ग्यारहवाँ पुत्र और महर्षि भृगु का भाई बताया है तो कहीँ महर्षि अंगिरा का वंशज, कहीँ उन्हे वनवासी बताया गया है और पिता का नाम सुमाली लिखा है। लेकिन सभी कथाओं में यह एक बात समान है कि बाल्मीकि जी का नाम रत्नाकर था, और उनका पालन पोषण वनवासी भील समाज में हुआ। वे आजीविका के लिये चाँडाल कर्म करते थे। उन दिनों चोरी डकैती, शमशान घाट में काम करके अथवा हिंसात्मक कार्यों से आजीविका कमाने वालों को चाँडाल कहा जाता था।

पुराण कथाओं के अनुसार एक दिन नारदजी कहीं जा रहे थे। मार्ग में रत्नाकर ने रोका और लूटने का प्रयास किया पर नारद जी ने कहा कि उनके पास तो वीणा है। इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं। रत्नाकर ने वीणा ले ली। वीणा देकर नारद जी ने पूछा कि यह सब किसलिये करते हो। रत्नाकर ने कहाकि “परिवार पालन के लिये”। नारद जी ने कहा कि यह दस्युकर्म तो पाप है और पूछा कि “क्या परिवार जन इस पाप में भी भागीदार होंगे”? सुनकर चौंक पड़े रत्नाकर और घर जाकर यही प्रश्न परिवार से पूछा तो सबने पाप की सहभागिता से अपना पल्ला झाड़ लिया। इसी घटना से रत्नाकर का हृदय परिवर्तन हो गया। उन्होंने चाँडाल कर्म छोड़कर भक्ति आरंभ की। कठोर तप के बाद ब्रह्म ज्ञान प्राप्त हुआ। और उनके मुँह से व्याकरण युक्त संस्कृत के पहला श्लोक प्रस्फुटित हो गया। आगे चलकर उन्हें ऋषित्व प्राप्त हुआ और वे महर्षि  कहलाये।

 

“वाल्मीकि” नाम का रहस्य

वाल्मीकि नाम साधारण नहीं है। सामान्य तौर पर कहा जाता है कि कठोर तप और साधना में इतने निमग्न हो गये थे शरीर पर दीमक लग गयी थी दीमक का एक नाम बाल्मी भी कहा जाता है इसलिए उनका नाम वाल्मीकि पड़ा। लेकिन यह तो लोक चर्चा है। जिस संस्कृत में स्वर और व्यंजन की ध्वनि भी गहरे अनुसंधान के बाद निश्चित किये गये, प्रत्येक नाम सार्थक रखे जाते थे तब वाल्मीकि नाम निरर्थक नहीं हो सकता है।

वस्तुतः “वाल्मीकि” शब्द संस्कृत की दो धातुओं से मिलकर बना है। संस्कृत में एक धातु है “वल्” जिसका अर्थ होता है केन्द्रीयभूत शक्ति। दूसरी धातु है “मक्” जिसका अर्थ आकर्षण होता है। इन दोनों धातुओं की संधि से शब्द बना “वाल्मीकि” जिसका अर्थ होता आंतरिक शक्ति का आकर्षण। नाम के अर्थ के संदर्भ में भी वाल्मीकि जी के व्यक्तित्व को देखें। उनका अमृत्व उनके जन्म या परिवार की पृष्ठभूमि के कारण नहीं अपितु उनकी ज्ञानशक्ति के कारण है। यह ज्ञान उन्हे अपनी आंतरिक प्रज्ञा शक्ति से उत्पन्न हुआ और इसी से संसार के प्रत्येक व्यक्ति के लिये आकर्षण का केंद्र बने।

 

वाल्मीकि जी का कृतित्व

महर्षि वाल्मीकि संस्कृत में काव्यविधा के जन्मदाता माने जाते हैं। यह मान्यता है कि संस्कृत की पहली काव्य रचना उन्हीं के स्वर में प्रस्फुटित हुई। भारत के लगभग सभी काव्य रचनाकारों ने अपना साहित्य सृजन करने से पहले उनकी वंदना की है। इनमें पूज्य आदिशंकराचार्य भी हैं और रामानुजार्य भी। राजाभोज भी हैं और संत तुलसीदास भी।

वैदिक काल से आधुनिक काल तक भारत में ऐसा कोई काव्य रचनाकार नहीं जिनने उनका स्मरण न किया हो। उन्होंने ऋषित्व ही नहीं देवत्व भी प्राप्त किया। वे वैदिक ऋषि हैं। उनके द्वारा रचित वाल्मिकी रामायण भारत ही नहीं अपितु संसार भर का पहला महाकाव्य है। इस महाकाव्य में पच्चीस हजार श्लोक हैं और हर हजारवें श्लोक का आरंभ गायत्री मंत्र के प्रथम अक्षर होता है।

उनकी रामायण रचना की दो विशेषताएं हैं। एक तो इसमें सूर्य और चन्द्र की स्थिति का सटीक उल्लेख है। इससे अनुमान है कि उन्हें अंतरिक्ष या सौर मंडल का भी ज्ञान था। दूसरा रामजी के वनवास काल के वर्णन में स्थानों के नाम, उनकी भौगोलिक स्थिति और मौसम का जिस प्रकार का वर्णन है, यह केवल कल्पना से संभव नहीं हैं। स्थानों के नाम और स्थिति का उल्लेख यथार्थ परक है इससे लगता है कि उन्होंने रामायण लिखने से पूर्व राम जी के वन गमन पथ की यात्रा की, अध्ययन किया और उसी आधार पर वर्णन किया।

उनके वर्णन में सामाजिक एकत्व और समरसता को जिस प्रमुखता से विवरण दिया गया है। विशेषकर वनवासी एवं ग्रामवासी समाज के विभिन्न समूहो एवं उप समूहों में एकरूपता का अद्भुत विवरण है। इससे यह बात स्पष्ट है कि प्राचीन भारत के विभिन्न भूभागों में निवासरत व्यक्तियों के बीच वे एकत्व और समरसता का भाव रहा है और इसी का सटीक विवरण बाल्मीकि जी ने दिया।

वे सही मायने में राष्ट्र जागरण और सामाजिक एकत्व के अभियान में सक्रिय रहे। उन्होंने रामायण के अतिरिक्त और भी काव्य रचनाएं तैयार की। भारतीय रचना शीलता जगत में गुरु वंदना के अतिरिक्त भगवान गणेशजी और माता सरस्वती के बाद बाल्मीकि जी की ही वंदना की जाती है। इसे भारतीय वाड्मय के किसी भी ग्रंथ रचना से समझा जा सकता है।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं।

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