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पूंजीवाद की आड़ में विश्व में फैल रहे साम्राज्यवादी नीतियों के भी घोर विरोधी थे डॉक्टर हेडगेवार

प्रहलाद सबनानी

आज पूरे विश्व में पूंजीवाद की तूती बोल रही है। लगभग समस्त देश अपनी अर्थव्यवस्थाओं को पूंजीवाद के सिद्धांत के आधार पर चला रहे हैं। मुक्त बाजार अथवा मुक्त उद्यम प्रणाली पूंजीवाद का दूसरा नाम है, जो उत्पादक संसाधनों पर निजी स्वामित्व के हक को मानते हुए देश में आर्थिक विकास को गति देने की नीति को अपनाती है। पूंजीवादी सिद्धांत के जनक कहे जाने वाले एडम स्मिथ का कहना था कि अर्थव्यवस्था में अधिक से अधिक धनकुबेर पैदा होने चाहिए, इससे अंततः वह देश विकसित देश की श्रेणी में शामिल हो सकता है। अतः देश में धनकुबेर पैदा करने में शासन द्वारा आर्थिक नीतियों को उद्योगपतियों के हित में बनाया जाना चाहिए।

इस सम्बंध में एडम स्मिथ ने “वेल्थ आफ नेशन” नामक सिद्धांत भी प्रतिपादित किया था, जिसमें यह कहा गया था कि बाजार को चलाने में किसी अदृश्य शक्ति की भूमिका होती है। इस अदृश्य शक्ति में शासन की नीतियों को भी शामिल किया जा सकता है। पूंजीवादी सिद्धांत पर आधारित आर्थिक नीतियों को अमेरिका में बहुत उत्साहपूर्वक लागू किया गया था। 1950 के दशक के बाद अमेरिका में इन सिद्धांतों के अनुपालन के पश्चात अमेरिकी अर्थव्यवस्था में विकास दर बहुत तेजी से आगे बढ़ी और शीघ्र ही अमेरिका विकसित देशों की श्रेणी में शामिल हो गया था। हालांकि, इस आर्थिक विकास के परिणामस्वरूप देश में आर्थिक असमानता भी उतनी ही तेज गति से बढ़ती है क्योंकि देश में आर्थिक नीतियों को एक वर्ग विशेष को आगे बढ़ाने की दृष्टि से विकसित किया जाता है, इससे अमीर और अधिक अमीर होते चले जाते हैं एवं गरीब और अधिक गरीब होते चले जाते हैं।

विश्व में साम्राज्यवाद का सिद्धांत सबसे पुराना माना जाता है। शक्ति एवं प्रभुत्व बढ़ाने की राज्य की नीति मानी जाती रही है और इसकी समय समय पर वकालत भी की जाती रही है। कुछ क्षेत्रों पर प्रत्यक्ष रूप से अधिग्रहण करके एवं कुछ क्षेत्रों पर राजनैतिक एवं आर्थिक नियंत्रण करके कुछ राज्य अपने वर्चस्व को बढ़ाते रहे हैं। ब्रिटिश शासन ने भी इसी सिद्धांत का अनुसरण करते हुए दुनिया के कई देशों पर अपना राज्य कायम कर लिया था। इस सिद्धांत के अनुपालन से भी जिन राज्यों पर सत्ता स्थापित की जाती है उन राज्यों के नागरिकों को दोयम दर्जे का नागरिक बना लिया जाता है और उनका शोषण किया जाता है। इस शासन प्रणाली में भी गरीब और अधिक गरीब हो जाते हैं और राज्य करने वाले देश के नागरिक शोषित राज्यों के संसाधनों का अति शोषण करते हुए इन्हें अपने हित में उपयोग करते हैं और वे स्वयं अमीर से और अधिक अमीर बनते चले जाते हैं।

पूंजीवाद के सिद्धांतों का अनुपालन करने वाले कुछ देशों, विशेष रूप से अमेरिका के विकसित देश हो जाने के पश्चात, ने भी बाद के समय में साम्राज्यवाद का चोला पहिन लिया था। इन पूंजीवादी देशों ने छोटे छोटे गरीब देशों के संसाधनों पर व्यापार के माध्यम से अपना हक जताना प्रारम्भ कर दिया था। शोषण करने वालों के केवल नाम बदल गए थे, क्योंकि राज्यों के स्थान पर अब पूंजीपति इन देशों के नागरिकों एवं संसाधनों का शोषण करने लगे थे। एक तरह से पूंजीवाद स्वयं ही राजा बन बैठा। वैसे भी पूंजीवाद के सिद्धांतों के आधार पर चलने वाली अर्थव्यवस्था में येन केन प्रकारेण लाभ कमाना ही मुख्य लक्ष्य होता है, चाहे इसके लिए किसी वर्ग अथवा देश का शोषण ही क्यों न करना पड़े।

एक आर्थिक प्रणाली के रूप में पूंजीवाद की उत्पत्ति 16वीं शताब्दी में मानी जा सकती है। इंग्लैंड में 16वीं से 18वीं शताब्दी तक, कपड़ा उद्योग जैसे बड़े उद्यमों के औद्योगिकीकरण ने एक ऐसी प्रणाली को जन्म दिया जिसमें उत्पादकता बढ़ाने के लिए संचित पूंजी का निवेश किया गया और उद्योगपतियों ने मजदूरों का शोषण प्रारम्भ कर अधिक लाभ अर्जित करना प्रारम्भ किया। इस प्रकार किसी एक व्यक्ति को पूंजीवाद का आविष्कार करने वाला नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि पूर्ववर्ती पूंजीवादी प्रणालियां प्राचीन काल से ही अस्तित्व में थीं।

चूंकि पूंजीवादी सिद्धांतों के अनुपालन में कुछ देश तेजी से विकास कर रहे थे एवं कुछ अन्य देशों का अति शोषण हो रहा था और पूंजीवाद एक तरह से विश्व के कई देशों में फैल रहा था अतः पूंजीवाद के साम्राज्यवाद के पद चिन्हों पर आगे बढ़ने के कारण डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार ने वर्ष 1920 में नागपुर में आहूत किए जाने वाले कांग्रेस के अधिवेशन में प्रस्ताव समिति के सामने एक प्रस्ताव रखने का प्रयास किया था। इस प्रस्ताव में दो विषयों का उल्लेख किया गया था। एक, कांग्रेस को यह वादा करना चाहिए कि वह अंग्रेजों से भारत की पूर्ण स्वतंत्रता के नीचे कुछ भी स्वीकार नहीं करेगी और दूसरे, पूरे विश्व को पूंजीवादी नीतियों से मुक्ति दिलायी जाएगी। परंतु, दुःख का विषय है कि उस समय के कांग्रेस के नेताओं ने डॉक्टर हेडगेवार के उक्त प्रस्ताव को प्रस्ताव समिति से आगे बढ़ने ही नहीं दिया एवं यह प्रस्ताव कांग्रेस अधिवेशन में भी प्रस्तुत नहीं किया जा सका।

इस प्रकार, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के परम पूजनीय प्रथम संघचालक डॉक्टर हेडगेवार ने वर्ष 1920 के पूर्व ही पूंजीवाद से उत्पन्न होने वाले खतरों को पहचान लिया था तथा वे पूंजीवाद की आड़ में विश्व में फैल रहे साम्राज्यवादी नीतियों के भी घोर विरोधी थे। साम्राज्यवादी नीतियों के अंतर्गत कुछ पूंजीवादी देश, विश्व के अन्य गरीब देशों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयास कर रहे थे। ब्रिटेन ने भी भारत पर ईस्ट इंडिया कम्पनी के माध्यम से ही आधिपत्य स्थापित किया था। शुरुआती दौर में तो ब्रिटेन की ईस्ट इंडिया कम्पनी भी भारत में व्यापार करने के उद्देश्य से ही आई थी। परंतु, बाद का खंडकाल गवाह है कि किस प्रकार भारत के संसाधनों का ब्रिटेन के हित में उपयोग किया गया। अति तो तब हुई जब ब्रिटेन ने भारत के हथकरघा उद्योग को ही तबाह कर दिया।

भारत में सस्ती दरों पर कपास खरीद कर वे ब्रिटेन ले जाने लगे एवं ब्रिटेन में कपड़ा मिलों की स्थापना की गई ताकि इस कच्चे माल (कपास) से कपड़ों का निर्माण किया जा सके एवं ब्रिटेन में रोजगार के अवसर निर्मित हो सकें। इस कपड़े को वापिस भारत में लाया जाकर भारतीय जनता को उच्च दरों पर बेचा जाने लगा। भारत से कच्चा माल (कपास) ले जाकर, भारत में ही ब्रिटेन में तैयार उत्पाद (कपड़ा) बेचा जाने लगा, अतः भारत को एक बाजार के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा था। पूंजीवाद के नाम पर इस प्रकार की व्यवस्था खड़ी की गई और ब्रिटेन ने स्पष्ट रूप से भारत को लूटा। एक अनुसंधान प्रतिवेदन में यह बताया गया है कि अंग्रेजों ने भारत पर अपने शासनकाल के दौरान लगभग 45 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर की खुली लूट की थी एवं यह धन वह ब्रिटेन में ले गए थे।

उस खंडकाल में पूंजीवाद के नाम पर अपनी साम्राज्यवादी नीतियों को लागू कर विकसित देशों ने गरीब देशों पर न केवल अपना शासन स्थापित किया था बल्कि इन गरीब देशों को जमकर लूटा भी गया था। ब्रिटेन के बारे में तो यह भी कहा जाता है उन्होंने अपने साम्राज्य को विश्व के कई देशों में इस प्रकार फैला लिया था कि ब्रिटेन के साम्राज्य का 24 घंटे में कभी सूरज ही नहीं डूबता था। उक्त कारणों के चलते ही परम पूज्य डॉक्टर हेडगेवार ने विश्व के देशों को पूंजीवाद की जकड़ से बाहर निकालने का प्रयास वर्ष 1920 में किया था।

लेखक सेवानिवृत बैंक अधिकारी एवं आर्थिक मामलों के जानकार हैं।

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