संयमित जीवन एवं कार्य शैली ही श्रेयकर

जो मननशील है उसे मनुष्य कहा गया है। जो व्यक्ति मननशील होकर आत्मा के समान अन्यों के सुख-दुख और हानि-लाभ को समझे एवं किसी भी कार्य को युक्तिपूर्वक चैतन्य होकर सम्पादित करे, उसे मनुष्य कहा गया है। इसी युक्ति को व्यवस्था भी कहते हैं। यही युक्तिपूर्वक कार्य करने की चेतना उसे व्यवस्थापक बनाती है एवं मनुष्य की संज्ञा देती है।

व्यवस्था शब्द सुनते ही समुचित प्रबंध, इंतजाम, सुनियोजित कार्यशैली की छबि मानस पटल पर सहज ही उभरती है। दूसरे शब्दों में सुव्यवस्था कहते हैं। जिसका लाभ तो सभी लेना चाहते हैं, परन्तु इसे बनाये रखने में विरले ही योगदान करते हैं। मनुष्य बिना स्वार्थ और दबाव के स्वप्रेरित होकर कार्य हेतु अग्रसर नही होता, परिणाम स्वरुप अव्यवस्था से सर्वत्र, अशांति असन्तोष, नकारात्मकता फैलने लगती है।

व्यवस्था का सही अर्थ समझने के लिए प्रकृति से अनूठा प्रत्यक्ष उदाहरण दूसरा कोई हो ही नही सकता। प्राकृतिक सौंदर्य को निहारते ही तन-मन आनन्द की स्फूर्ति से भर जाता है। कभी विचार किया है कि प्रकृति अपने अनुपम सौंदर्य को किस तरह समेटे हुए है कि इसकी सुंदरता आज भी वैसी की बनी हुई है। इसका कारण है प्रकृति स्वनियंत्रित एवं अनुशासित होकर सुव्यवस्थित ढंग से शांत भाव से अनवरत सक्रिय रहती है। चारों दिशाएं, धरती से गगन तक , ग्रह-नक्षत्र ,तारा मंडल, ऋतुएँ, रात-दिन, बिना भेदभाव के निर्बाध रूप से अपना काम करते रहते है।

 

तभी तो राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त जी ने लिखा है कि

“बन्द नही, अब भी चलते हैं, नियति नटी के कार्यकलाप।

पर कितने एकांत भाव से कितने शांत और चुपचाप।”

 

ईश्वर की सर्वोत्तम कृति मनुष्य है। जिसे प्रभु ने सुंदर काया, बुद्धि, विवेक के साथ हृदय में बहुत सारी भावनाओं को भरकर बनाया है ताकि मनुष्य बहुमूल्य जीवन को आनन्दपूर्वक जी सके। समस्त जीव इसी प्रकृति में जन्म लेकर अपनी जीवन यात्रा पूर्ण तो करते ही हैं साथ ही प्रकृति के सुंदर स्वरूप को क्षति भी पहुंचाते हैं, जिसका दुष्परिणाम मनुष्य को ही भुगतना पड़ता है। प्रकृति हमें सुव्यवस्थित और संयमित होना सिखाती है।

किसी भी व्यक्ति ,समाज, राष्ट्र का कल्याण व्यवस्थित कार्य शैली को अपनाकर ही हो सकता है। सुव्यवस्था ही प्रगति का मार्ग प्रशस्त करती है। वेद-पुराण व शास्त्रों में जीवन को सुखी करने के लिए निरोगी काया के साथ संयमित आहार-विहार प्रमुखता दी गई है। वास्तुशास्त्र भी वास्तु अनुरूप ही सभी दिशाओं और उससे संबंधित तत्वों के अनुसार ही निर्माण क्रिया के महत्व को सिखाता है, ताकि दो विपरीत गुण-धर्म के कारण असंतुलन की स्थिति निर्मित न हो।

ठीक यही दशा मानव शरीर की भी होती है। अनियमित जीवनचर्या, कार्य व्यवहार मनुष्य को व्याधिग्रस्त बनाते हैं। विपरीत गुण धर्म के तत्त्वों के साथ सामंजस्य नही बैठने से शरीर का संतुलन बिगड़ जाता है “अति सर्वत्र वर्जयेत।“ अति सदैव दुष्परिणाम ही लाती है। अतः अति का त्याग करते हुए संयमित जीवन शैली व कार्य शैली को अपनाना ही श्रेयकर है।

स्वस्थ शरीर मानव जीवन की महत्वपूर्ण उपलब्धि है। यदि मनुष्य सुख सुविधाओं का उपभोग दीर्घकाल तक करना चाहता है तो उसे प्रकृति के समान ही शांतिपूर्वक, स्वनियंत्रित और अनुशासित दिनचर्या को अपने जीवन में आत्मसात करना होगा क्योंकि सुव्यवस्था से ही संरक्षण संभव है।

आलेख

रेखा पाण्डेय
व्याख्याता हिन्दी, अम्बिकापुर, छत्तीसगढ़

 

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