मेरा गाँव मेरा बचपन

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भारतीय संस्कृति में है पक्षी प्रेम की प्राचीन परम्परा

इन दिनों उत्तर भारत की अनेक झीलों में विचरण करते विविध प्रकार के प्रवासी पक्षी आमजन को लुभा रहे हैं । पक्षी प्रेम और संरक्षण की बहुत ही सशक्त परम्परा भारतीय समाज में प्राचीन काल से रही है। चरक संहिता, संगीत रत्नाकर और भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में पक्षियों की चारित्रिक विशेषताओं का सुन्दर चित्रण किया गया है। मनुस्मृति व पाराशरस्मृति आदि में पक्षियों के शिकार का निषेध किया गया है।

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स्वच्छ जल और पर्यावरण की प्रहरी फुरफुन्दी

सावन,भादों में बच्चों के बीच इसे पकड़ने के लिए होड़ लग जाती थी, कि किसने कितनी पकड़ी और लाल पंखों वाला राजा किसके हाथ लगा। फुरफुन्दी पकड़ना आसान भी नहीं था। छोटे-छोटे पौधों पर इधर से उधर, कभी आगे, कभी पीछे उड़ने वाली फुरफुन्दी जिसे दबे पांव चुपचाप पकड़ना पड़ता था।

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नाना नानी हो तो नीम जैसे

नीम इतना परिचित और अपना है कि नीमला, नीबड़ा जैसे मैत्री वाली भाषा से भी बुलाया और बतलाया जाता है। है भी ठेठ गंवाई पेड़। गली का पेड़। गली की गांठ चौरे का पेड़। इसको पेड़ से ज्यादा अपना सगा ही माना जाता है। आत्मिक नीम! सेहरी का प्रहरी और घर का जर। रोग हर।

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गांव-गुलेल और पेड़ में गिट्टी

गांव के बच्चे गुलेल को न जाने ऐसा बिल्कुल सम्भव नहीं है। गुलेल का उपयोग सबसे पहले कहां हुआ? कौन इसका आविष्कारकर्ता है? इसमें पड़ने की बजाय हम गुलेल की वह यादें याद करना चाहते हैं, जहां आम, ईमली, बेर, जामुन, आंवला, गंगा-ईमली आदि तोड़ने के लिए उपयोग में लाते थे।

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