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गांव-गुलेल और पेड़ में गिट्टी

गांव के बच्चे गुलेल को न जाने ऐसा बिल्कुल सम्भव नहीं है। गुलेल का उपयोग सबसे पहले कहां हुआ? कौन इसका आविष्कारकर्ता है? इसमें पड़ने की बजाय हम गुलेल की वह यादें याद करना चाहते हैं, जहां आम, ईमली, बेर, जामुन, आंवला, गंगा-ईमली आदि तोड़ने के लिए उपयोग में लाते थे।
बचपन के दिनों में तालाब, नदी, खेत, बाड़ी, जंगल जब दोस्तों के साथ घूमने जाते थे, तब बबूल, नीम, अमरूद की डंठलों और सायकल की टिव से बनाए गुलेल हाथ में जरूर होते थे। कभी बिजली के तारों, वृक्षों में बैठे पक्षियों को निशाना लगाते तो कभी फलों को तोड़ने में नजर गड़ाते। वह बचपन की यादें कैसे भूल पाएंगे। सायकल एक लेकिन सवारी एक नहीं बल्कि तीन-चार हुआ करते थे।
शरारत की वह उम्र भी अजीब है..! मधुमक्खी के छत्ते पर गुलेल की निशान और मधुमक्खी के उग्र रूप को उस उम्र ने भी दिलेरी से सामना किया है। कभी कुएं में घड़े लेकर पानी लेने पहुंचती, उसके पहले दोस्तों की हार जीत की बाजी ने गुलेल के निशाने से कई मटके तोड़ने का रिकॉर्ड कायम भी किए हैं। यह गुलेल बॉलीवुड में भी खूब वाहवाही लूटी है..बदमाशों के छक्के छुड़ाया है.. तो रियल लाइफ में सुरक्षा कवच भी बना है।
गुलेल सिर्फ निशाने लगाकर शिकार करने की कला नहीं सिखाती बल्कि एकाग्रचित्त मन, धीरज व संयम का गुण भी विकसित करती है। गुलेल के दौर में जहां खिड़कियों के कांच तोड़ने की अदभुत बाजीगिरी भी हमने देखा-सीखा है।
एक दोस्त, गुलेल को अपने पास रखे हुए थे.. बाजार का दिन था.,एक राहगीर को किसी ने गिट्टी-पत्थर मार दिया।
सिर से खून टपकने लगा। दोस्त के पिताजी बाजार आए थे।. घायल व्यक्ति से पूछने लगे, हम लोग वहां से जाने लगे.. दोस्त के पिताजी कहने लगे, चिंता मत करो, ज्यादा चोट नहीं लगा है, लेकिन चोट कैसे लगा है..यह मैं भली-भांति समझ गया हूँ.., दोस्त के पिताजी हमें देखते, इसके पहले अपने- अपने घर पहुंच गए.. शाम करीब 6 बज रहा था.. घर में लालटेन जल चुका था.. चूल्हे से धुआं निकल रहा था।
एक लालटेन को सामने रखकर मैं ‘वंडर ऑफ साइंस’ ‘एसे’ पढ़ने में मशगूल हो गया। घर से बाहर.. मैं नहीं.. मत मारो.. अब रहने दो.. इनसे पूछ लो..उनसे पूछ लो, बजरंगबली की कसम.. मैं नहीं, ये तमाम वाक्या मैं अंग्रेजी पुस्तक को खोलकर रखा था लेकिन कान व दिमाग उस आवाज की तरफ चले गया था।
इतने में मेरे दोस्त के पिताजी, मेरे दोस्त के सर की बाल खींचकर मेरे पास धमक गए.. बोलो.. तुम दोनों ने ही बाजार में उस बेचारे का सिर, गुलेल से मारा है न.? मैं कुछ कहता, इसके पहले दोस्त के पिताजी कहने लगा..वह गुलेल इनके जेब में मिला है। तुम दोनों बाजार में थे.. अब तुम भी झूठ बोलेगे। यह बात सुनते ही मेरी माँ, चूल्हा के पास से चिमटा लेकर पहुंची और मेरे पैर-पीठ व हाथ में बरसाने लगी।
मैं कुछ बोलता.. इतने में पड़ोसी कहने लगे.. अब छोड़ दो.. गुलेल से, धोखा से गिट्टी-पत्थर लग गया होगा। जानबूझकर तो किया नहीं होगा.? रात करीब पौने आठ बज गया था..भूख लगने लगी थी। आखिरी माँ बुलाकर खाना परोसने लगी.. बोलने लगी जा तुम्हारे दोस्त को भी बुला ले.. उसे बहुत मार पड़ी है.. खाना नहीं खाया होगा..दोनों एक साथ खा लो।
मैं, उसे, उनके घर बुलाने गया। उनके पिताजी दरवाजा खोला। उनसे कहा, दोस्त को खाने के लिए माँ बुला रही है। यह आवाज सुनकर, दोस्त चौखट के पास पहुंचे.. उनके पिताजी उन्हें इशारे करके कहने लगे, जाओ खाना खा लो.. और वहीं सो भी जाना..ठीक से पढ़ाई भी करना।
दोनों दोस्त भोजन किए, अंग्रेजी का ‘वंडर ऑफ साइंस’ पढ़ना कम। रात दो-ढाई बजे तक यही सोचते रहे कि हमने गुलेल चलाया नहीं, उस व्यक्ति के सिर पर गिट्टी-पत्थर मारा नहीं, फिर हम दोनों को मार क्यों पड़ी? उस रात तय कर लिए कि गुलेल अब बाजार लेकर नहीं जाएंगे..न गुलेल को हाथ लगाएंगे.. सुबह उठे..पेपर बांटने सायकल लेकर निकल पड़े, मार माँ की मार भूल गए..सब कसमें भूल गए..स्कूल गए.. घर वापस आए।
पुस्तक-कॉपी के थैले घर में रख दिए। हम दोनों दोस्त गुलेल लेकर तालाब के किनारे मन्दिर के पास बैठकर यही दिमाग लगाते रहे कि बाजार में गुलेल लेकर गए जरूर थे, लेकिन गुलेल चलाया नहीं, फिर मार क्यों पड़ी? बाद में याद आया.. उस पीपल के पेड़ में तोता था, उसको कई बार गुलेल से निशाना लगाया..लेकिन गुलेल के निशाने से तोता बच निकलता। लेकिन वह पत्थर उस डाल में फंसा था, बाजार के दिन, शाम के समय हवा चलने लगी थी और वही गिट्टी-पत्थर गिरकर उस राहगीर के सिर में लग गया था. और उन्हीं के नजदीक हम लोग खड़े थे।
काफी मनन करने के बाद पता चला कि गुलेल का निशाना तोता पर तो नहीं लगा लेकिन उस राहगीर के सिर में जरूर लग गया। उस घटना को याद करके हम दोनों दोस्त आज भी खिलखिला उठते हैं। सचमुच, वह गुलेल की यादें, आप लोग भी याद कीजिए.. मन को, तन को कुछ समय के लिए उस सुनहरे बचपन की यादों में लौटा लीजिए।
(विजय मानिकपुरी)
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