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होलिका दहन का वैदिक, पौराणिक और वैज्ञानिक महत्व

रेखा पाण्डेय  (लिपि)

भारत में मनाए जाने वाले समस्त पर्व, व्रत, त्यौहार ग्रह-नक्षत्रों की दशा एवं चाल पर आधारित हैं। इन्ही की गणना कर हिंदू पंचांग का निर्माण किया गया। तदनुसार ही त्यौहार मनाने की परंपरा चली आ रही है। प्रत्येक त्यौहार में आंचलिक रीति-रिवाजों, परंपराओं एवं कृषि एवं ऋतुओं का विशेष महत्व होता है।

धार्मिक एवं पौराणिक महत्व का पर्व होली पारंपरिक रूप से दो दिन मनाए जाने वाला रंगो का त्यौहार है। प्रथम दिवस होलिका दहन। दूसरे दिन कई तरह के रंगों के अबीर, गुलाल से होली खेली जाती है। क्योंकि मानव जीवन में रंगों का विशेष महत्व होता है जिनका भावनात्मक संबंध होता है। रंग ऊर्जा और आनंद का प्रतीक होते हैं।

हिन्दू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि के प्रदोष काल में होलिका दहन किया जाता है। होलिका तैयार करने का कार्य बसन्त पंचमी से शुरू किया जाता है। माँ सरस्वती की पूजा के बाद नगर, गांव के बाहरी खुले स्थान में अरण्ड के पेड़ को गाड़ दिया जाता है।

तभी से इसके चारों ओर धीरे-धीरे लकड़ियां एकत्र कर एक विशाल होलिका तैयार की जाती है। यह कार्य बच्चे और युवाओं के द्वारा किया जाता है। होली बसन्त ऋतु में मनाई जाने  के पीछे एक वैज्ञानिक कारण यह है कि यह समय ऋतुओं का सन्धिकाल होता है। शीत ऋतु की समाप्ति और ग्रीष्म ऋतु के आगमन का  होता है।

कड़ाके की ठंड में लोग नियमित और सही  ढंग से स्नान नहीं करते फलस्वरूप त्वचा रोग की संभावना बढ़ जाती है। अरण्ड भी औषधीय गुणों का पेड़ है, लकड़ियों के साथ जलने पर  इसका धुँआ वायुमंडल के कीटाणुओं को नष्ट करता है। साथ ही होलिका दहन के पूर्व जो पूजन -अर्चन कर हवन -सामग्री, घी, कपूर, गाय के गोबर से बने उपलों को डालने से जो धुआँ होता है उससे वातावरण कीटाणुमुक्त होता है। इसकी अग्नि की परिक्रमा करने से शरीर भी शुद्ध होता है।

होली को नव जीवन का त्योहार माना जाता है। किसान अच्छी फसल एवं अपनी भूमि की उर्वरता के लिए अनुष्ठान  करते हैं। होलिका दहन में गेँहू की नई बालियों होलिका को समर्पित करते हैं और चना के फलदार पौधों को होलिका की अग्नि में भूनते हैं। इसप्रकार होली शारिरिक-मानसिक रूप से लाभप्रद पर्व है।

होलिका का आध्यात्मिक महत्व है। होली राम-कृष्ण से भी पहले सतयुग से अद्यतन कलयुग तक मनाई जा रही है। इसका उद्देश्य समस्त मानव जाति को सन्देश देना है कि अहंकार, अन्याय, काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष जैसी बुराइयों का अंत निश्चित है।

सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, और कलियुग चार युग हैं जिनमें सतयुग सत्रह लाख अट्ठाईस हजार वर्ष का, त्रेतायुग बारह लाख छियानबे हजार वर्ष का, द्वापरयुग आठ लाख चौंसठ हजार वर्ष और कलियुग चार लाख बत्तीस हजार वर्ष का होना है इस गणना के अनुसार 39 लाख वर्ष पहले सत युग से होली मनाई जा रही है। गरुड़ पुराण के अनुसार विष्णु के दशावतारों में सतयुग में मत्स्य, हयग्रीव, कूर्म, वाराह और नरसिंह अवतार, त्रेता युग में वामन, परशुराम, और श्रीराम, द्वापरयुग में कृष्णावतार लिया एवं कलियुग में कल्कि अवतार लेंगे। मानव जीवन के हितार्थ भगवान ने अवतार लेकर लीलाएं कीं।

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व होली है। पुराणों में वर्णित भक्त प्रहलाद की कथा सबसे प्राचीन कथा है। जिसके अनुसार महर्षि कश्यप और दिति के दो पुत्र हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप और एक पुत्री होलिका थी। हिरण्याक्ष से पृथ्वी को बचाने के लिए भगवान विष्णु ने वाराह रूप धारण कर उसका वध किया।

हिरण्यकश्यप विष्णु को अपना शत्रु मानता था।

उसने ब्रह्मा की कठोर तपस्या प्रारंभ की। तब देवताओं ने हिरण्यकश्यप की नगरी में आक्रमण कर अपना शासन स्थापित कर लिया। महर्षि नारद मुनि ने हिरण्यकश्यप की पत्नी कयाधु की रक्षा करने अपने आश्रम में आश्रय दिया। वहीं उसने पुत्र प्रहलाद को जन्म दिया।

नारद मुनि की संगति में प्रहलाद भगवान विष्णु का भक्त बन गया। हिरण्यकश्यप की वर्षों तपस्या पश्चात ब्रम्हा जी ने उसे दर्शन दिया। उसने अपनी मृत्यु के लिए वरदान मांगा कि मेरी मृत्यु न मानव से हो न पशु से, न किसी अस्त्र -शस्त्र से, न दिन में न रात में हो, न धरती पर न आकाश में हो। ऐसा वरदान प्राप्त कर वह अपने को अजेय समझने लगा और प्रजा पर अत्याचार करने लगा।

सभी को आदेशित किया कोई भी ईश्वर की पूजा नहीं करेगा। किन्तु उसका पुत्र प्रहलाद भगवान विष्णु की पूजा करता था। उसने प्रहलाद को मारने के कई प्रयास किए परन्तु भगवान विष्णु की भक्ति से वह सुरक्षित रहा। तब हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका जिसे वरदान प्राप्त था कि उसे अग्नि नहीं जला सकती, को प्रहलाद को गोद में लेकर अग्नि में प्रवेश करने को कहा परन्तु भगवान विष्णु की कृपा से भक्त प्रहलाद बच गया और होलिका अग्नि में भस्म हो गई। ततपश्चात नरसिंह अवतार लेकर विष्णु जी ने हिरण्यकश्यप का वध किया।

होली की अन्य कथानुसार, शिव-पार्वती और कामदेव की कथानुसार पार्वती जी ने शिव से विवाह के लिए तपस्या में लीन थीं और शिव जी भी ध्यान मग्न थे। उन्होंने ध्यान नहीं दिया तब पार्वती जी ने के अनुरोध से कामदेव ने शिव पर पुष्प बाण चला दिया। शिव जी ने क्रोधित हो अपनी तीसरी आंख खोल दी। जिसमें कामदेव भस्म हो गए। उनकी पत्नी रति की प्रार्थना पर शिव जी ने कामदेव को जीवनदान दिया। मान्यता है कि कामदेव के भस्म होने पर होलिकादहन और पुनः जीवित होने की प्रसन्नता में  रंगों का त्योहार होली मनाई जाती है।

महाभारत काल की कथानुसार द्वापर युग में कृष्ण ने युधिष्ठिर को कथा सुनाई थी। जिसके अनुसार श्रीराम के पूर्वज राजा रघु के शासन में एक राक्षसी ढुण्ढा ने शिव जी से अमरत्व प्राप्त कर लोगों को विशेषकर बच्चों को सताना शुरु किया। प्रजा ने राजा रघु से प्रार्थना की तब उन्होंने गुरुवशिष्ठ से समाधान पूछा तब उन्होंने बताया कि उस राक्षसी की मृत्यु देवता, मनुष्य, अस्त्र-शस्त्र, ठंड, गर्मी, बारिश किसी से संभव नहीं है।शिवजी ने कहा खेलते बच्चों के शोरगुल से उसकी मृत्यु संभव है।

ऋषि ने फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन जब शीत ऋतु की समाप्ति और ग्रीष्म का आगमन के समय होता है उसी समय सभी बच्चों के साथ एकत्रित होकर हँसे, नाचे, ढ़ोल, नगाड़े बजाकर हाथ में लकड़ी लेकर उसे जलाएं और घास, उपले डालें, इस क्रिया से राक्षसी का अंत किया जा सकता है। होली के अवसर पर राजस्थान में नवजातक की ढूण्ढ पूजा करने की भी परम्परा यहीं से प्रांरभ हुई एवं वर्तमान जयपुर क्षेत्र को पूर्व में ढूण्ढाड़ कहा जाता था।

द्वापरयुग में कृष्ण को मारने के लिए पूतना वेश बदलकर विषपान कराने के लिए उन्हें स्तनपान करा देती है। कृष्ण दुग्धपान करते उसके प्राण ले लेते हैं। पूतना के वध पर खुशियां मनाई गई और यह कथा भी होली से जुड़ गई। राधा-कृष्ण के पवित्र प्रेम की कहानी भी होली से जुड़ी हुई है। मथुरा वृन्दावन की होली राधा कृष्ण के रंग में डूबी होती है।बरसाने और नन्दग्राम की लट्ठमार होली प्रसिद्ध है।

इस त्यौहार को दक्षिण भारत में कामदहन के नाम से भी जाना जाता है। ग्रामीण तमिलनाडु में इस अवसर पर  कामदेव का नाटक कर उसके पुतले जलाए जाते हैं। भारत व नेपाल में हर्षोल्लास के साथ रंगों का त्योहार मनाया जाता है। इसे फगुआ, घुलेंडी, छारंडी, धूलि वन्दन आदि नामों से जाना जाता है।

फाग और धमार गीत गाये जाते हैं। ढोल, मंजीरा, झांझ की धुन में नाचते- गाते, रंगों की फुहारों के साथ होली मनाई  जाती है। सभी के घरों में विभिन्न तरह के पकवान बनाए जाते हैं। विशेषकर गुझिया, भांग, ठंडई से सबका स्वागत किया जाता है।

एकता, प्रेम और आनंद का त्योहार होली जिसे बसन्तोत्सव एवं मदन महोत्सव भी कहते हैं, जो संस्कृत साहित्य में कवियों का प्रिय विषय रहा है। प्राचीन अभिलेखों एवं पुराणों में इसका उल्लेख मिलता है। प्राचीन चित्रों, भित्तीचित्रों, मन्दिरों की  भित्तियों पर इस उत्सव के चित्र उत्कीर्ण मिलते हैं।

वैदिक काल में इस पर्व को नवासस्येष्टि यज्ञ कहा गया। उस समय अधपके अन्न को यज्ञ में दान कर प्रसाद रूप में ग्रहण किया जाता था। इस अन्न को होला कहते थे। अतः इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा।

भारतीय ज्योतिष के अनुसार चैत्र शुदी प्रतिपदा से हिन्दू नववर्ष का आरंभ माना जाता है। इस उत्सव के बाद ही चैत्र मास आरंभ होता है यह पर्व नवसंवत का प्रतीक है। इसी दिन प्रथम पुरुष मनु का जन्म हुआ था। इसलिए इसे मन्वादितिथि कहते हैं।

होलिका  हमारे विकारों का प्रतीक है तो प्रहलाद पवित्रता और ईश्वरीय विश्वास का प्रतीक है। अग्नि ईश्वरीय ज्ञान की शक्ति का प्रतीक है जो आत्मा का शुद्धिकरण करती है। इसलिए होली पर अपने मन के नकारात्मक विचारों को नष्ट कर प्रेम और शांति पूर्ण एवं सुखमय जीवन को प्राप्त करने का पवित्र पर्व है।

लेखिका साहित्याकर एवं व्याख्याता हैं।

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