लोकतंत्र की रक्षा हेतु आपातकाल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका
आपातकाल में सबसे अधिक दबाव राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर था। संघ पर प्रतिबंध लगा। सभी प्रमुख प्रचारक और दायित्ववान अधिकारी या तो गिरफ्तार हुए अथवा भूमिगत रहकर समाज जागरण के अभियान में सक्रिय रहे। आपातकाल के इक्कीस महीनों में 1.30 लाख से अधिक लोग जेल में रहे। उनमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता एक लाख से अधिक थे।
तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए 25 जून 1975 को आपातकाल लागू किया था, जो 21 मार्च 1977 तक रहा। इन पौने दो वर्षों तक भारत का प्रत्येक नागरिक अपने संवैधानिक अधिकारों से वंचित रहा। सर्वोच्च न्यायालय को भी इस संबंध में किसी विषय पर विचार करने से रोक दिया गया था। भारत के सभी विपक्षी दलों के नेताओं की गिरफ्तारियाँ 25 और 26 जून की मध्यरात्रि से आरंभ हो गई थीं।
आपातकाल में पुलिस और प्रशासन का सर्वाधिक दबाव राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर था। पूरे देश में संघ कार्यालयों पर छापे पड़े और प्रचारकों के घरों तक की तलाशी ली गई। तत्कालीन सरसंघचालक बालासाहब देवरस की गिरफ्तारी 30 जून को हुई। वे प्रवास पर जाने के लिए निकले थे। उन्हें नागपुर स्टेशन से गिरफ्तार किया गया।
संघ को देश में प्रशासनिक स्तर पर किसी भी अप्रत्याशित निर्णय का अनुमान था। इसका स्पष्ट संकेत तीन माह पहले दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में मिल गया था। 15 और 16 मार्च 1975 को दीनदयाल शोध संस्थान द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम में चर्चा का विषय ही “संविधान में आपातकाल और लोकतंत्र” था। इस चर्चा में उच्चतम न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री कोका सुब्बाराव भी एक वक्ता थे। उन्होंने स्पष्ट कहा था— “ऐसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है जब राष्ट्रपति और मंत्रिमंडल संवैधानिक लोकतंत्र को नष्ट करने के लिए एकजुट हों।” (इस कार्यक्रम का उल्लेख पी. जी. सहस्रबुद्धे और माणिकचंद्र वाजपेई द्वारा लिखित पुस्तक “इमरजेंसी स्ट्रगल स्टोरी” में है।)
समय के साथ 12 जून को इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय आ गया। लगभग सभी विचारक इंदिराजी के स्वभाव और कार्यशैली से परिचित थे। इसीलिए संघ ने अपनी वैकल्पिक नीति तैयार कर ली थी। सरसंघचालक जी को अपनी गिरफ्तारी का अनुमान था। उन्होंने पहले ही संघ संचालन की भावी रूपरेखा का निर्धारण कर दिया था। इस विषम परिस्थिति में उन्होंने सभी स्वयंसेवकों से धैर्य से काम करने का संदेश दिया था। उन्होंने कहा था— “यह स्थिति असाधारण है, इसमें स्वयंसेवकों का कर्तव्य है कि वे अपना संतुलन न खोएं।” उन्होंने संभवतः सरकार्यवाह माधवराव जी मुले को वैकल्पिक व्यवस्था बनाने का संकेत कर दिया था।
इसलिए संघ पर प्रतिबंध और संघ के अधिकारियों की देशव्यापी गिरफ्तारी के बाद, भले ही नियमित शाखा, शिक्षण-प्रशिक्षण या प्रबोधन रुक गया हो, लेकिन संघ का जनसंपर्क और जनजागरूकता का काम निरंतर रहा। सरसंघचालक जी की गिरफ्तारी हुई और 4 जुलाई 1975 को संघ पर प्रतिबंध लगा। संघ पर प्रतिबंध लगाने का सबसे बड़ा कारण स्वयंसेवकों की ध्येयनिष्ठ कार्यशैली है। स्वयंसेवक सीधे जनसामान्य से जुड़े रहते हैं। महंगाई विरोधी जे. पी. आंदोलन में संघ शक्ति की भूमिका से भी इंदिराजी का प्रशासन अवगत था।
इसलिए आपातकाल लागू होने के पहले चरण में सभी विपक्षी राजनीतिक दलों के कार्यालयों और प्रमुख नेताओं के घर पुलिस के छापे पड़े और दूसरे चरण में पुलिस ने देशभर में संघ कार्यालयों और कार्यकर्ताओं के घरों पर धावा बोल दिया। जो जहाँ जैसा मिला, उसे पकड़कर जेल में डाल दिया गया। संघ पर प्रतिबंध और लगातार गिरफ्तारियों के बाद भी संघ कार्यकर्ता बहुत धैर्य और योजना से काम करते रहे। योजना पूर्वक प्रतिदिन किसी न किसी नगर में कुछ न कुछ घटता। कभी पर्चे फेंककर गिरफ्तारी दी जाती और कभी नारे लगाकर। एक टोली जेल जाती तो वह दूसरी टोली को तैयार करके जाती।
जिस प्रकार सरसंघचालक जी ने अपनी गिरफ्तारी के पूर्व संघ संचालन की वैकल्पिक व्यवस्था बना दी थी, उसी प्रकार नानाजी देशमुख ने लोक संघर्ष समिति की वैकल्पिक व्यवस्था बना दी थी। लोकनायक जयप्रकाश नारायण जी के नेतृत्व में चलने वाले महंगाई विरोधी आंदोलन की पूरी व्यवस्था यही समिति कर रही थी। नानाजी देशमुख ने अपनी गिरफ्तारी होने से पूर्व इस समिति की व्यवस्था श्री सुन्दर सिंह भंडारी को सौंप दी थी। इसलिए नानाजी की गिरफ्तारी के बाद भी इस समिति का कार्य निरंतर चलता रहा। यह समिति भी आपातकाल विरोधी अभियान निरंतर चलाती रही।
प्रतिबंध और देशव्यापी गिरफ्तारियों के बाद भी संघ के स्वयंसेवकों के मनोबल पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उन्होंने इसे चुनौती के रूप में लिया। संघ के अनेक स्वयंसेवकों ने अपने घरों पर साइक्लोस्टाइल मशीन का प्रबंध कर लिया। वे स्वयं पंपलेट तैयार करते और हाट-बाजार में छोड़ देते। कई बार आपातकाल विरोधी साइक्लोस्टाइल सामग्री रद्दी के कागजों में दुकानदारों को बेच देते ताकि उनमें बँधा हुआ सामान लोगों के घरों पर पहुँचे और लोग पढ़ सकें। कितने ही स्वयंसेवक रात के अंधेरे में दीवारों पर कोयले से लिख जाते और सबेरे पुलिस अथवा नगर निगम कर्मचारी उन्हें पानी से मिटाते हुए देखे जाते। पूरे आपातकाल यही क्रम चला।
समय अपनी गति से चला। अंततः 20 जनवरी 1977 को इंदिराजी ने घोषणा की और आपातकाल में गिरफ्तार राजनीतिक बंदियों की रिहाई का क्रम चला और 21 मार्च 1977 को आपातकाल की पूरी तरह विदाई हुई। देश को आपातकाल से मुक्त करने के लिए इंदिराजी की अपनी रणनीति हो सकती है, लेकिन पूरे इक्कीस महीने जनजागरण अभियान निरंतर रखने का काम केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं ने किया।
आपातकाल हटने और सत्ता परिवर्तन के बाद भी संघ ने इसका कोई श्रेय कभी नहीं लिया। संघ की कार्यशैली में श्रेय लेने का स्वभाव है भी नहीं। वे कोई कार्य श्रेय अथवा किसी लाभ के लिए नहीं करते। उनका उद्देश्य राष्ट्र का परम वैभव है। वे इसी के लिए समर्पित हैं।
उस कालखंड में भारत का जनमानस महंगाई से परेशान था। इसलिये स्वयंसेवकों ने महंगाई विरोधी आंदोलन की व्यवस्था संभाली। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद आपातकाल और नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों का निलंबन, मानवता के साथ अन्याय था। इसलिए संघ से जुड़े कार्यकर्ता पूरे आपातकाल में सक्रिय रहे। संघ के अनेक प्रचारक पूरे आपातकाल भूमिगत रहे। भूमिगत रहकर उन्होंने उन परिवारों की देखभाल की, जिन परिवारों के मुखिया जेल में डाल दिए गए थे।
संघ की कार्यनिष्ठा और राष्ट्रभाव का जनसामान्य में सदैव सम्मान रहा है। इसका लाभ आपातकाल में मिला। जनसामान्य के सहयोग से वे सभी परिवार सुरक्षित रहे, जिनके मुखिया अथवा एकमात्र संचालक को किसी न किसी बहाने जेल में डाल दिया गया था। आपातकाल के बाद राजनीति अपनी राह पर चली और संघ के स्वयंसेवक राष्ट्र सेवा की अपनी राह।