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आपात काल : एक ऐसी अंधेरी रात जिसके सुबह होने की कोई तिथि नहीं थी…

संविधान में आपातकाल लगाने का प्रावधान है, लेकिन यह तब है जब संकट राष्ट्र पर हो। लेकिन 25 जून 1975 को राष्ट्र पर कोई संकट नहीं था, फिर भी आपातकाल लागू किया गया था। सभी नागरिकों के संवैधानिक अधिकार निलंबित कर दिए गए थे। प्रशासन के किसी निर्णय पर कोई अपील नहीं हो सकती थी। वकील या दलील के भी मार्ग बंद कर दिए गए थे। वह एक ऐसी अंधेरी रात थी, जिसकी सुबह होने का अनुमान किसी को नहीं था। भारत को इस भयावह आपातकाल से मुक्त होने में लगभग इक्कीस माह का समय लगा।

25 जून 1975 को लागू हुआ आपातकाल भारत में पहला आपातकाल नहीं था। इससे पहले भी दो बार आपातकाल लागू हुआ था। पहला आपातकाल वर्ष 1962 में चीन युद्ध के समय और दूसरी बार 1971 में पाकिस्तान युद्ध के समय लागू हुआ था। ये दोनों अवसर राष्ट्रीय संकट घिर आने के कारण आए थे। भारत राष्ट्र का प्रत्येक नागरिक उस समय सरकार के साथ था, सहयोगी था। वे आपातकाल कब लागू हुए और कब समाप्त हो गए, जन सामान्य को इसका आभास तक न हुआ। लेकिन 25 जून 1975 को लागू हुआ आपातकाल बहुत अलग था। यह पूरे देश को उथल-पुथल करने वाला था। यह भारत राष्ट्र पर किसी संकट के कारण नहीं, अपितु तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को उनकी पद और प्रतिष्ठा पर आए संकट से बचाने के लिए था। यह आपातकाल इतना भयानक था, जिसकी कल्पना आपातकाल का प्रावधान करते हुए संविधान निर्माताओं ने भी नहीं की होगी।

तब प्रत्येक नागरिक से उसके सभी संवैधानिक अधिकार छीन लिए गए थे। संवैधानिक संस्थाएँ नाम मात्र की रह गई थीं। इन संवैधानिक संस्थाओं के अधिकांश प्रमुखों को बदल दिया गया था। उन पदों पर ऐसे लोगों की नियुक्ति दी गई थी, जो बिना कुछ कहे सब समझकर निर्णय ले सकें। सारी शक्ति प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के हाथ में थीं। वे कलेक्टरों के माध्यम से स्वयं पूरे देश का संचालन कर रही थीं। प्रशासन के किसी भी कार्य को कोई चुनौती नहीं दी जा सकती थी। पुलिस कब, किसको, किस अपराध में पकड़कर ले जाए और जेल में डाल दे, इसकी कोई जवाबदेही नहीं थी। भले गिरफ्तारी का कोई कारण न हो। पुलिस को घर में घुसने के लिए किसी वारंट की आवश्यकता नहीं थी। ऐसी गिरफ्तारी पर भी पीड़ित अपने बचाव में किसी वकील की सहायता से न्यायालय में अपील नहीं कर सकता था।

इससे पहले जो आपातकाल राष्ट्रीय संकट पर लागू हुए थे, उनमें ऐसी कोई त्रासदी नहीं थी जैसी इस आपातकाल में थी। उन दोनों आपातकाल का सामान्य जन को तनिक आभास तक न हुआ था। वे कब लागू हुए और कब समाप्त हो गए, इसकी भनक तक किसी को न लगी। लेकिन इस आपातकाल का एक-एक क्षण भारी था, और किसी को यह अनुमान तक नहीं था कि इसका अंत कब होगा।

इस भीषण आपातकाल लागू होने के दो कारण थे। दोनों का संबंध तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी से था। 1971 में युद्ध के बाद भारत में महंगाई सातवें आसमान पर पहुँच गई थी। वह सरकार के नियंत्रण से बाहर हो गई थी। पूरे देश में महंगाई की मार से हाहाकार मच गया था। पीड़ा के इस चीत्कार को समवेत स्वर दिया सर्वोदय नेता श्री जयप्रकाश नारायण ने। आंदोलन ज़ोर पकड़ गया। प्रशासन महंगाई पर नियंत्रण करने के बजाय आंदोलन पर नियंत्रण करने में जुट गया। देशभर में जगह-जगह लाठी और गोली चलने लगी। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में भी गोली चली। महंगाई विरोधी उस आंदोलन में केवल भोपाल नगर में आठ बलिदान हुए। एक पुलिस की लाठी से और सात नौजवानों के पुलिस की गोली से प्राण गए।

इससे भोपाल के किसी नागरिक का कोई मनोबल नहीं टूटा। पुलिस जितना प्रताड़ित करती, जन सामान्य का गुस्सा उतना बढ़ता। इसका अनुमान श्री जयप्रकाश नारायण जी की भोपाल में संपन्न एक सभा से ही लगाया जा सकता है। जयप्रकाश जी रेलमार्ग से कहीं जा रहे थे। भोपाल केवल डेढ़ घंटे के लिए रुके थे। उनकी सभा वहीं रेलवे स्टेशन के द्वार पर हुई। वह सभा सुनने के लिए भोपाल के हजारों लोग पहुँच गए थे। लगभग यही स्थिति पूरे देश में थी।

महंगाई विरोधी यह आंदोलन चल ही रहा था कि इसी बीच इलाहाबाद उच्च न्यायालय का एक निर्णय आ गया। यह निर्णय श्रीमती इंदिरा गांधी के लोकसभा चुनाव से संबंधित था। श्रीमती इंदिरा गांधी ने 1971 का लोकसभा चुनाव रायबरेली संसदीय क्षेत्र से जीता था। इस चुनाव में पराजित श्री राज नारायण ने उन पर कदाचार से चुनाव जीतने का आरोप लगाया और अदालत में याचिका दायर कर दी, जिसमें सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग करने, मतदाता को प्रभावित करने के लिए घूस देने और चुनाव के लिए निर्धारित धनराशि से अधिक व्यय करने जैसे आरोप थे। श्रीमती इंदिरा गांधी अदालत में अपने पर लगे आरोपों को असत्य साबित न कर सकीं। 12 जून 1975 को आए इलाहाबाद हाई कोर्ट के निर्णय में उन्हें दोषी माना गया। हाई कोर्ट ने न केवल उनका चुनाव निरस्त किया, अपितु उन्हें आगामी छह वर्षों तक चुनाव लड़ने पर भी पाबंदी लगा दी। अदालत ने उन पर कुल 14 आरोपों को सही माना।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय का यह निर्णय ऐसे समय आया, जब इस कमरतोड़ महंगाई के लिए इंदिराजी को ही दोषी माना जा रहा था। 1971 के युद्ध में पाकिस्तान के दो टुकड़े होने से प्रत्येक भारतीय को प्रसन्नता तो थी, लेकिन उससे भारत को कोई लाभ नहीं हुआ था। करोड़ों शरणार्थियों के बोझ से भारत दब गया था। युद्ध का भार पड़ा तो अलग। इस महंगाई का असली कारण यही था। इससे मुक्ति के लिए यह आंदोलन आरंभ हुआ था। पता नहीं, सरकार की ऐसी क्या विवशता थी कि वह महंगाई पर नियंत्रण और जमाखोरों पर कार्रवाई करने की बजाय आंदोलन दबाने में लग गई।

इसी तनाव के बीच 12 जून को इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय आया। इससे आंदोलन और उग्र हो गया। 12 जून के बाद एक ओर आंदोलन उग्र हुआ, तो दूसरी ओर पूरी कांग्रेस देशभर में सभाएँ करके इंदिराजी के पक्ष में वातावरण बनाने लगी। 20 जून 1975 को कांग्रेस ने एक विशाल रैली का आयोजन किया, जिसमें इंदिराजी के पक्ष में कविताएँ पढ़ी गईं। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता देवकांत बरुआ ने नारा लगाया – “इंदिरा तेरी सुबह की जय, तेरी शाम की जय, तेरे काम की जय, तेरे नाम की जय।” इस जनसभा में श्रीमती इंदिरा गांधी भी उपस्थित थीं। उन्होंने अपने संबोधन में स्पष्ट शब्दों में कहा कि वह प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा नहीं देंगी।

इसके बाद महंगाई विरोधी आंदोलन के सूत्रधार श्री जयप्रकाश नारायण की अपीलें भी तीखी होने लगी थीं। उन्होंने इंदिरा जी से तुरंत पद छोड़ने की माँग की, और इस माँग के समर्थन में देशवासियों से अपने-अपने मोहल्लों और नगर में प्रदर्शन का आह्वान किया। उन्होंने सेना से यह अपेक्षा भी की कि यदि इंदिरा जी पद न छोड़ें तो सेना आगे आए। तनाव से भरी इन्हीं गतिविधियों के बीच 25 जून का दिन आया। उस दिन दो बड़ी घटनाएँ घटीं – एक दिन में और एक रात में।

25 जून 1975 को दिन में दिल्ली के रामलीला मैदान में एक विशाल आमसभा का आयोजन हुआ। इस सभा में मुख्य वक्ता श्री जयप्रकाश नारायण थे। उन्होंने सभी विपक्षी दलों से एकजुटता की अपील की और कहा कि इंदिराजी तानाशाही की ओर बढ़ रही हैं। इस सभा में लोक संघर्ष समिति के सचिव नानाजी देशमुख ने आंदोलन की आगामी रूपरेखा प्रस्तुत की, और बताया कि इंदिराजी से इस्तीफे की मांग को लेकर गाँव-गाँव में बैठकें होंगी, और 29 जून से राष्ट्रपति आवास के सामने दैनिक सत्याग्रह की घोषणा भी की गई। सभा का समापन शाम को हुआ। सभा में उपस्थित विशाल जन समूह की संख्या का इसी बात से अनुमान लगाया जा सकता है कि रामलीला मैदान को खाली होने में घंटों लगे थे।

25 जून को एक ओर यह घटनाक्रम चल रहा था, तो उसी समय प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी राष्ट्रपति से भेंट कर रही थीं। उन दिनों राष्ट्रपति पद पर श्री फखरुद्दीन अली अहमद थे। राष्ट्रपति पद पर आसीन होने के पूर्व वे श्रीमती इंदिरा गांधी के मंत्रीमंडल में कृषि और खाद्यमंत्री रह चुके थे। वे इंदिराजी के विश्वस्त भी माने जाते थे। सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आते ही इंदिराजी ने अपने विश्वस्त विधि विशेषज्ञों से परामर्श किया था। इस पूरी तैयारी के साथ वे राष्ट्रपति श्री अहमद से मिली थीं। इंदिराजी की सलाह पर राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 352 के अंतर्गत देश में आपातकाल लागू करने की घोषणा कर दी।

इसके साथ ही सभी नागरिकों को उनके संवैधानिक अधिकारों से वंचित कर दिया गया। विरोधी दलों के सभी प्रमुख नेताओं को बंदी बनाकर उन पर आंतरिक सुरक्षा कानून, अर्थात मीसा लागू कर दिया गया। इन गिरफ्तार नेताओं में श्री जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, नानाजी देशमुख, राज नारायण, मध्यप्रदेश में कुशाभाऊ ठाकरे, सुंदरलाल पटवा, वीरेंद्र कुमार सकलेचा, कैलाश नारायण सारंग, रघुनंदन शर्मा, मेघराज जैन आदि प्रमुख थे।

आपातकाल में केवल सामान्य नागरिकों को उनके संवैधानिक अधिकार से वंचित नहीं किया गया था, अपितु सुप्रीम कोर्ट के अधिकार भी सीमित कर दिए गए थे। सुप्रीम कोर्ट को इंदिराजी के राजनीतिक विरोधियों पर लगाए गए इस मीसा कानून की सुनवाई करने से रोक दिया गया था। समाचार पत्रों पर सेंसरशिप लागू हुई और अनेक पत्रकार भी गिरफ्तार हुए। आपातकाल की यह अंधेरी रात लगभग अठारह महीने बहुत गहरी रही। 20 जनवरी 1977 को इंदिराजी ने आपातकाल हटाने की घोषणा की। इससे कुछ अंधेरा तो छटा, लेकिन आपातकाल के आतंक से पूरी तरह मुक्ति के लिए कुछ समय और लगा। अंत में जब 21 मार्च 1977 को भारत आपातकाल से पूरी तरह मुक्त हुआ, तब राहत मिली।

लेखक का अनुभव
जिन दिनों देश में आपातकाल लागू हुआ, उन दिनों मैं मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र के संपादकीय विभाग में कार्यरत था। 25–26 जून की मध्यरात्रि के आसपास अपना काम पूरा कर घर पहुँचा। लेकिन 26 जून को सबेरे अखबार नहीं आया। मुझे आश्चर्य हुआ। घर में फोन भी नहीं था, अतएव समाचार पत्र के न आने का कारण पता न चला। लेकिन थोड़ी देर बाद ही पुलिस का एनाउंसमेंट सुनाई दिया, जिसमें घर से बाहर निकलकर भीड़ न लगाने की अपील थी। जो लोग यहाँ-वहाँ चौराहे पर खड़े थे, उन्हें फटकार कर घर जाने को कहा जा रहा था। यह सुनकर गंभीरता आई और तेजी से अपने कार्यालय की ओर गया।

लगभग सभी दैनिक समाचार पत्रों में प्रतिदिन संपादकीय विभाग की एक बैठक होने की परंपरा है, जिसमें पूरे दिन के समाचारों की कार्ययोजना बनती है। मैं उस बैठक के लिए अपराह्न 12 बजे अपने समाचार पत्र कार्यालय गया। तब पता चला कि रात में पुलिस आई थी, सारे पेज तोड़ गई और समाचार पत्र प्रकाशित ही नहीं हुआ। उस रात ऐसा केवल मेरे समाचार पत्र के साथ ही नहीं हुआ था — भोपाल के सभी समाचार पत्रों में यही हुआ था।

सरकार के विरोध में समाचार छापना तो दूर, कोई भी सामान्य समाचार भी बिना सरकार को दिखाए नहीं छापा जा सकता था। सरकार ने एक “प्रेस सेंसर अधिकारी” नियुक्त किया था। प्रतिदिन समाचार पत्र के पृष्ठों के “प्रूफ” दिखाना होते थे। प्रूफ पर सेंसर अधिकारी के हस्ताक्षर के बाद ही समाचार पत्र छपने जाता था।

उन दिनों संवाद एजेंसियाँ समाचारों का मुख्य स्रोत होती थीं। समाचारों की यह दोहरी जाँच होती थी। समाचार एजेंसियाँ भी सेंसर अधिकारी को बिना दिखाए कोई समाचार जारी नहीं कर सकती थीं। यही समाचार यदि समाचार पत्र ने उपयोग किया, तो उसकी दोबारा जाँच होती थी।

उन दिनों श्री प्रकाशचंद्र सेठी मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे। एक दिन वे कार से इंदौर जा रहे थे। देवास के समीप उनकी कार दुर्घटना से बाल-बाल बची। यह समाचार उन दिनों की एक प्रतिष्ठित समाचार एजेंसी ने देर रात जारी किया। जब यह समाचार टेलीप्रिंटर पर आया, तब तक सेंसर अधिकारी की जाँच के बाद “प्रूफ” लौट आया था। मुझे यह समाचार महत्वपूर्ण लगा। मैंने प्रथम पृष्ठ पर एक छोटा-सा अन्य समाचार निकालकर यह समाचार लगा दिया। अगले दिन भारी पूछताछ हुई। मेरी नौकरी पर बन आई। तब प्रभारी संपादक जी की अनुशंसा और मेरी लिखित माफी से नौकरी बची।

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