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जनकवि लक्ष्मण मस्तुरिया : छत्तीसगढ़ी चेतना के स्वर

स्वराज करुण 
(ब्लॉगर एवं पत्रकार )

स्वर्गीय लक्ष्मण मस्तुरिया को अपनी छत्तीसगढ़ी कविताओं के लिए अपार लोकप्रियता मिली। आम तौर पर उनकी पहचान छत्तीसगढ़ी भाषा के जनकवि के रूप में बनी रही, जिन्होंने आम जनता की भावनाओं को, किसानों और मजदूरों के दुःख-दर्द को अपनी कविताओं में अभिव्यक्ति दी। अपने मधुर स्वरों में माटी-महतारी का जयगान किया। लेकिन बहुत कम लोगों को मालूम है कि मस्तुरिया जी हिन्दी में भी कविताएँ लिखते थे। छत्तीसगढ़ी और हिन्दी के सशक्त कवि लक्ष्मण मस्तुरिया का आज जन्म दिवस है। वे अगर हमारे बीच होते, तो 76 साल के हो चुके होते; लेकिन उनका कवि हृदय उस वक्त भी अपनी रचनाओं में युवा दिलों की धड़कनों को स्वर दे रहा होता।

बिलासपुर जिले के ग्राम मस्तूरी में 7 जून 1949 को जन्मे लक्ष्मण मस्तुरिया की ज़िंदगी का सफ़र राजधानी रायपुर में 3 नवम्बर 2018 को अचानक हमेशा के लिए थम गया। उनके लाखों चाहने वाले श्रोता और प्रशंसक स्तब्ध रह गए। लेकिन लगता नहीं कि वे अब हमारे बीच नहीं हैं, क्योंकि छत्तीसगढ़ी गीतों के एलबमों में संरक्षित उनके सदाबहार गानों की अनुगूँज, जनता के होठों पर गाहे-बगाहे उन गीतों की गुनगुनाहट और किताबों में शामिल उनकी कविताएँ हमें एहसास दिलाती हैं कि वे आज भी यहीं कहीं हमारे आस-पास हैं।

उनकी कविताओं में छत्तीसगढ़ सहित सम्पूर्ण भारत के आम जनों, मज़दूरों और किसानों की भावनाएँ तरंगित होती हैं। उनका जनप्रिय और कालजयी गीत है — ‘मोर संग चलव गा’, जिसमें समाज के गिरे, थके लोगों से साथ चलने का आव्हान है। आकाशवाणी के रायपुर केंद्र से सत्तर के दशक में जब पहली बार यह प्रसारित हुआ, तो कर्णप्रिय संगीत के साथ इसके शब्दों ने जनता को सम्मोहित कर लिया। लोग झूम उठे। तब से लेकर अब तक, विगत लगभग पाँच दशकों में, इस गीत ने लोकप्रियता का ऐसा कीर्तिमान बनाया है कि आज भी यह आम जनता की जुबान पर है। यहाँ तक कि परस्पर विरोधी राजनीतिक दलों और एक-दूसरे के प्रतिस्पर्धी प्रत्याशियों को भी अपने चुनाव प्रचार के दौरान रैलियों और आम सभाओं में लाउडस्पीकर पर इस गीत को बजवाते देखा जा सकता है। मस्तुरिया जी के ऐसे कई छत्तीसगढ़ी गीत हैं, जिनके ऑडियो, वीडियो कैसेट और एलबम काफ़ी लोकप्रिय हुए हैं।

उनकी छत्तीसगढ़ी कविताओं के प्रकाशित संकलनों में (1) हमू बेटा भुइंया के, (2) गंवई गंगा, (3) घुनही बंसुरिया, (4) छत्तीसगढ़ के माटी शामिल हैं। वहीं, एक खंड काव्य ‘सोनाखान के आगी’ भी प्रकाशित हो चुका है, जो यहाँ के महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, अमर शहीद, सोनाखान के वीर नारायण सिंह के नेतृत्व में 1857 में अंग्रेज हुकूमत के ख़िलाफ़ हुए विद्रोह पर आधारित है।

उनकी हिन्दी कविताओं का पहला संकलन ‘सिर्फ़ सत्य के लिए’ वर्ष 2008 में राजधानी रायपुर की साहित्यिक संस्था ‘सृजन सम्मान’ द्वारा प्रकाशित किया गया था। इसमें उनकी 71 कविताएँ शामिल हैं। इनमें मुक्त छंद की रचनाओं के साथ-साथ छन्दबद्ध रचनाएँ भी हैं। पहली कविता है — ‘गाँवों की ओर’। इसमें लक्ष्मण कहते हैं —

लौट चलो गाँवों की ओर,
गौतम – गांधी मिलेंगे,
गलियों, चौपाल पर,
खेतों की मेड़,
नदी, नालों और ताल पर।
मुक्त करो प्राण पंख
सभ्यता की डोर।

शहरों की भीड़ में
खो गया विवेक,
रास्ते बहुत बने, पर
आदमी वह एक,
रुंध रहे दिल-दिमाग,
दहलाते शोर।

रुपयों के पीछे बस
भाग रहा आदमी,
प्रतिस्पर्धा – धूर्तता में
नाच रहा आदमी,
पंगु व्यवस्था में बढ़ा
डंडे का ज़ोर।

संग्रह की शीर्षक कविता ‘सिर्फ़ सत्य के लिए’ में आज के विसंगतिपूर्ण लोकतंत्र में सिर झुकाकर जीने को मजबूर आम नागरिक की पीड़ा अभिव्यक्त होती है। कवि इस बेरहम व्यवस्था पर तंज कसते हुए उस दलित, शोषित मनुष्य से कहता है —

मस्तक ज़रा झुकाकर जी, सर को यहाँ बचाकर जी,
सबके सब पद्मासन में, तेरा क्या सिंहासन में।
कंचन बिखरा आँगन पर, कंकर तेरे दामन भर,
अपने हिस्से के रजकण को अपना तिलक बनाकर जी।

छूना मत अनजाने में, बैठे सर्प ख़ज़ाने में,
निर्धन की क्या हस्ती है, धनवालों की बस्ती है।
अपनी खरी मजूरी पर, तू रूखी-सूखी खाकर जी।

पग-पग अत्याचार बढ़ा, झूठों का सत्कार बढ़ा,
छल जो किया अदाओं ने, तमगे दिए सभाओं ने।
देख, समझ मत लेकिन उंगली दाँतों तले दबाकर जी।

तूने जितना भी देखा, वह सब पानी पर रेखा।
पाँव-पाँव में कंटक है, जीवन सब पर संकट है।
बीच डगर पर पड़े हुए, ये सारे शूल उठाकर जी।

है बिसात क्या भवनों की, शोभा कितनी गहनों की।
हर श्रृंगार अधूरा है, सारा वैभव धूरा है।
सिर्फ़ सत्य के लिए स्वयं की अंतर ज्योति जलाकर जी।

किसी भी सच्चे कवि की संवेदनाएँ सम्पूर्ण सृष्टि, यहाँ तक कि रूखी-सूखी घास के प्रति भी होती हैं। कवि कफ़न ढूँढती लाश और युद्ध के विनाश से भी दुःखी होता है। लक्ष्मण मस्तुरिया ‘दुःख है’ शीर्षक कविता में कहते हैं —

सबको अपनी प्यास का दुःख है,
मुझे धरा, आकाश का दुःख है।
टूट गिरी जो उस शबनम को,
रूखी-सूखी घास का दुःख है।

फ़िक्र तुम्हें है नागफनी की,
मुझको मगर पलाश का दुःख है।
चार गिरह जो कफ़न ढूँढती,
बदक़िस्मत उस लाश का दुःख है।

कभी बात रोटी तक पहुँची,
और कभी आवास का दुःख है।
फूँके जो आबाद घरों को,
ऐसे युद्ध विनाश का दुःख है।

कवि सम्मेलनों के मंचों पर भी वह काव्य पाठ करते थे, जहाँ सैकड़ों, हज़ारों श्रोता उन्हें मंत्रमुग्ध होकर सुना करते थे, क्योंकि उनकी रचनाओं में आम जनता के दिलों की आवाज़ गूँजती थी। मंचीय कवि सम्मेलनों में वह खूब जमते थे, लेकिन उन्हें कवि सम्मेलनों में कुछ कवियों द्वारा हास्य कविता के नाम पर परोसा जाने वाला विदूषकीय फूहड़पन बिल्कुल पसंद नहीं था। मंचीय कविता की आड़ में होने वाली चुटकुलेबाज़ी से उन्हें सख़्त नफ़रत थी। उनके इस हिन्दी काव्य संग्रह के दो मुक्तकों में इसे महसूस किया जा सकता है —

(1)
डंडे को बेलन क्या कहना,
टुनटुन को हेलन क्या कहना।
चुटकुले सुनाने वाले मंच को,
कवि सम्मेलन क्या कहना।

(2)
चारों ओर चलन बिक रहा है,
असहाय मेरा वतन दिख रहा है।
इस कारण राष्ट्र रतन मिट रहा है,
चिंतन और लेखन बिक रहा है।

लोकतंत्र के नाम पर आज के सियासी माहौल को देखकर भी वह बहुत क्षुब्ध रहते थे। साहित्यिक मंचों के साथ-साथ राजनीतिक मंचों के वातावरण से वह निराश थे। उनकी यह निराशा इस संग्रह की ‘मंच पर’ शीर्षक कविता में व्यंग्य के रूप में प्रकट हुई है —

मंच पर विदूषक बनकर आ रहे हैं लोग,
वर्जनाएँ भूलकर सब गा रहे हैं लोग।
बात पहुँची है यहाँ तक इस नई तहज़ीब में,
आज नंगी लाश भी नचवा रहे हैं लोग।

संग्रह में मुक्त छंद की उनकी कविता ‘रंगे सियार बैठे हैं’ देश और समाज के वर्तमान माहौल पर निशाना साधती है। वे जनता को ‘रंगे सियारों’ से सावधान करते हैं। कुछ पंक्तियाँ देखिए —

संभल कर रहना साथियों,
रंगे सियार बैठे हैं,
पराये कंधों से बंदूक चलाने वाले बैठे हैं।

यहाँ सुकर्म, आदर्शों का मोल कौन समझेगा?
जो जितना होगा पैंतरेबाज़, उतना और चमकेगा।

संग्रह की कविताओं पर छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध साहित्यकार विनोद शंकर शुक्ल ने ‘संस्कृति की बदसूरती के ख़िलाफ़ प्रतिरोध की कविताएँ’ शीर्षक अपनी भूमिका के अंत में लिखा है —
“लक्ष्मण मस्तुरिया की हिंदी कविताएँ मंचवादी नहीं हैं। वे मुग्ध करने या वाह-वाह करने के लिए नहीं लिखी गई हैं। वे पाठक या श्रोता को अपने समय और परिवेश की विसंगतियों पर सोच-विचार के लिए उत्तेजित करने वाली कविताएँ हैं। विलुप्त होती मनुष्यता की चिंता उनकी मूल धुरी है। समय और समाज की विसंगतियों से कवि की टकराहट के विविधकोणी छायाचित्र उनमें उपस्थित हैं।”

संग्रह में वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. शोभाकांत झा का अभिमत भी प्रकाशित किया गया है। उन्होंने लिखा है —
“कविता भी एक कला है, सृजन है, सौन्दर्यमूलक सत्याग्रह है और है मनुष्य में निहित एक बेहतर संसार की माँग। इस माँग और समाधान के बीच से लक्ष्मण मस्तुरिया का कविता संग्रह ‘सिर्फ़ सत्य के लिए’ उपजा है।” इन रचनाओं के संदर्भ में दोनों विद्वान साहित्यकारों की ये टिप्पणियाँ बहुत मूल्यवान हैं।

वास्तव में लक्ष्मण मस्तुरिया की ये हिन्दी कविताएँ मानव हृदय की कोमल भावनाओं के साथ गाँव, शहर, देश और समाज की जीवन व्यापी हलचल और आज के मनुष्य के दुःख-दर्द का एक जीवंत दस्तावेज़ हैं।

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