छत्तीसगढ़ी लोक गीत-महिलाओं की भूमिका

लोक गीत चाहे वह किसी भी देश की हो वहां की अमूल्य निधि होती है। इससे एक जाति, स्थान या समाज ही नहीं अपितु पूरा राष्ट्र गौरवान्वित होता है। लोक गीत शब्द के साथ ही हमारे जेहन में ग्राम्यांचल का दृश्य उभरने लगता है। जीवन के विविध इन्द्रधनुषी छटाओं के साथ ही नृत्य-गीत, आल्हादकारी मनोरंजन, सहकारिता की भावना, प्रेम भाइचारे की भावना का दर्शन हमें गावों में ही होता है। लोक गीत न केवल मनोरंजन का साधन है अपितु इसका सामाजिक महत्व भी है। घर-आंगन, खेत-खलिहान, मंदिर-चैपाल, हाट-बाजार, मेला-मड़ई, बाग-बगीचा ऐसी कौन सी जगह नहीं है जहां मानव गाता न हो। वह गाता है और वह भी समूह के साथ। वैसे भी जहां तक मेरी धारणा है कि ‘‘लोक गीतों की अभिव्यंजना व्यक्तिगत नहीं बल्कि सामूहिक होती है। इसके साथ ही उनके आचार-विचार, रहन-सहन एक से होते हैं। यह लोक गीत ही है जो मानव कंठ से निकलकर आत्मिक सुख का अनुभव कराता है। भूले-भटके राही का मार्ग प्रशस्त कर उन्हें कर्तव्य पथ की ओर अग्रसर करता है। वर्तमान के साथ अतीत की मधुर स्मृतियों में गोते लगवाता है। गीतों की स्वर लहरियों के साथ विगत और आगत के मघ्य नये-नये गीतों का संधान करने के साथ ही हमें कुछ नया और नया करने के लिये प्ररित करता है।’’ आशा-निराशा, हर्ष-विशाद, सुख-दुख, संघर्ष आदि की मार्मिक अभिव्यंजना का चित्रण हमें लोक गीतों से ही मिलता है।
लेखिका ‍शकुन्तला तरार
विद्वान साहित्यकारों, संगीत मनीषियों आदि ने अपने-अपने अनुभवों के माध्यम से लोक गीतों की उत्पत्ति में अनुमान का सहारा लिया है। लोक गीतों का यदि वर्गीकरण किया जाय तो उसमें शब्द, धुन, लय, टेर, स्वर व रंजकता के गुण पाये जाते हैं। इसकी उत्पत्ति चाहे जिस रूप में भी हुई हो इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि लोक गीत सर्वप्रथम महिलाओं द्वारा ही गाये गये होंगे। क्योंकि माता ने जब गर्भ धारण किया होगा उसके अंदर नये-नये अहसासों ने जन्म लिया होगा। पहली बार शिशु जब गोद में आया होगा तो माता ही उसे सुलाने के लिये लोरियां गाई होगी,रोने पर चुप कराने स्वरों का सहारा लिया होगा तब उसके मुख से जो बोल निकले होंगे उस बोल ने लोरी को जन्म दिया होगा और यही गीत लोरी गीत बनकर सामने आया होगा।

धान का कटोरा कहलाने वाली हमारी पुण्य धरा छत्तीसगढ़ में तो   महिलाओं ने एक वैभवली परम्परा को कायम किया है। क्षेत्र चाहे षहरी हो या आरण्यक महिलाओं ने सदा ही लोक गीतों को परिमार्जित, परिष्कृत करने में पुरुषों का साथ निभाया है। अन्य प्रान्तों में जैसे पंजाब का गिद्दा,महाराष्ट्र् की लावणी, निमाण-मालवा के गणगौर, फूलपाती, असम का बीहू, केरल का ओणम महिलाओं द्वारा सम्पन्न लोक गीत हैं। उसी तरह छत्तीसगढ़ में कुछ गीत केवल महिलाओं द्वारा ही सम्पन्न किये जाते हैं जैसे-सुवा नृत्य गीत, विवाह गीत, सोहर, भोजली, धनकुल, ककसार, आदि। रावतनाच, डंडा नाच, बांस गीत, जवारा, पंथी, गेड़ी आदि केवल पुरुषों द्वारा ही सम्पन्न किये जाने वाले नृत्य और गीत हैं किन्तु वर्तमान समय में पंथी नृत्य में महिलाओं ने पुरुषों के एकाधिकार को तोड़ा है। अतः लोक गीतों में पुष्पित, पल्लवित लय,ताल,सुर देने में पुरुषों के साथ महिलाओं के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है। करमा, ददरिया, सरहुल ऐसे नृत्य-गीत हैं जो श्रम, भक्ति, कर्म और श्रृंगारपरक हैं। गीतों में माधुर्य, सौंदर्य, सौम्यता का सहजता से प्रयोग महिलाओं द्वारा ही सम्पन्न होता है। उत्सवों में संस्कारित मांगलिक कार्यों में फूल-पत्ते सजाना, कलष सजाना, अल्पना बनाना,साज-श्रृंगार आदि कार्यों को विधि -विधान से सम्पन्न कराने में महिलाओं का योगदान अमूल्य है।
छत्तीसगढ़ में कुछ गीत जातिगत होते हैं जैसे सुवा गीत। सुवा गोंड़ जनजाति का प्रमुख उत्सव नृत्य-गीत है। सुवा गीत कार्तिक कृष्ण पक्ष से षुरू हो कर दीपावली के दिन तक गाया जाता है, जिसमें नारियां बांस की टोकनी में धान रखकर उसके बीच में दो तोता रखती हैं जिसे शिव-पार्वती का प्रतीक मानती हैं। ये समूह में जिसमें आठ-दस होती हैं, टोकनी को बीच में रखकर उसके इर्द-गिर्द गोल घेरा बनाकर गोल घूमते हुए गीत गाती जाती हैं और साथ में लयबद्ध ताली भी बजाती जाती हैं। इस वक्त उनके पैर जमीन पर ठुमकने की शैली में होते हैं और उनका यह ठुमकना तोते की चाल की तरह होता है। गीतों के माध्यम से उनका यह मानना है कि तोता उनका यह संदेश जरूर परदेश गये प्रियतम तक पहुंचा देगा। पुराने समय में कबूतर के माध्यम से राजा-महाराजाओं के द्वारा खतों का, संदेशों का आदान-प्रदान किया जाता था यह हम जानते हैं। शायद उसी कड़ी में ही इस सुवा गीत को भी हम ले सकते हैं। सुवा गीत विशेषतः दूर परदेस गये अपने प्रिय को संदेशे के रूप में उसकी करूणा की अभिव्यक्ति का माध्यम होता है।  नारी उसके आने की बाट जोह रही होती है या मायके गई हुई स्त्री को जब उसके ससुर, जेठ, देवर लिवाने जाते हैं तब उसके मन के उद्गार कुछ इस तरह होते हैं कि —
तरी हरी नहा ना मोर नहा नारी नाना रे सुवना कि
लाल भाजी जमे झकझोर
ओही लाल भाजी खावन नहीं पाएवं रे सुवना कि
आई गईस ससुर मोर लेवाय
नारे सुवना कि आई गईस ससुर मोर लेवाय
ससुरे के संग-संग मैं नहीं जावौं रे सुवना
कि घेरी-बेरी पईयां ला पड़ाय
नारे सुवना कि घेरी-बेरी पईयां ला पड़ाय।।
इसी तरह गीतों की रानी ददरिया भी बिना नारी स्वर के अधूरा है और फिर जहां नारी स्वर हो वहां प्रेम-अनुराग, सौंदर्य, लालित्य, ठिठोली, के साथ ही होती है पसीनों के बूंदों की महक। स्त्री-पुरुष दोनों ही एक दूसरे का साथ निभाते हुए गीतों की लडि़यां बांधते हैं। इस वक्त जो गीत गाया जाता है उसे ददरिया कहते हैं। ददरिया में श्रृंगार की बहुलता के साथ ही साथ सुख-दुख, सौहार्द्र, उमंग, हंसी-ठिठोली, मौज-मस्ती से विभोर हार्दिक आत्मीयता का समावेष रहता है। कहते हैं कि नारी बिना ददरिया श्री विहीन है। चूंकि, ददरिया श्रम प्रधान गीत है अतः यह खेतों-खलिहानों, बाग-बगीचों, जंगल-झाड़ी, कुआं-तालाबों में कहीं भी जहां श्रम हो गाया जाता है। कभी उलाहना के स्वर में, तो कभी प्रेम-अनुराग से, तो कहीं श्रृंगारपरक जैसे–
बागे बगीचा दिखे ल हरियर
मोटर वाला नई दिखे बंधे हों नरियर ।।
आमा ला टोरेवं खाहूंच कहिके
मोला दगा दिये राजा आहूंच कहिके।।
नारी प्रधान गीतों में ही हम भोजली को प्रकृति पूजा का प्रतीक मानते हैं। गेहूं, जौ, उड़द आदि अनाज को छोटी-छोटी टोकनी में खाद डालकर श्रावण शुक्ल की नवमी के दिन उगाया जाता है। भाद्रपद कृष्ण प्रतिपदा को उस उगाये हुए अन्न को जिसे हम भोजली के रूप में रूपायित करते हैं, समूह में चलकर तालाबों में उसका विसर्जन किया जाता है। जहां मां गंगा की स्तुति की जाती है ताकि उनकी कृपा से भोजली की तरह यह जीवन भी हरा-भरा बना रहे। उसी भोजली के कुछ गुच्छों को लेकर लड़कियां, स्त्रियां एक दूसरे से आदानप्रदान कर प्रगाढ़ सम्बन्ध स्थापित करती हैं जिसे भोजली बदना कहते हैं। यह होता है मित्रता का प्रतीक, आजीवन सम्बन्ध कायम रखने का प्रतीक। जब भोजली का विसर्जन किया जाता है तब मां गंगा की स्तुति में यह लोक गीत गाया जाता है–
अहो देबी गंगा
देबी गंगा देबी गंगा लहर तुरंगा
हो लहर तुरंगा
हमर भोजली दाई के भीजे आठो अंगा
अहो देबी गंगा
आई गईस पूरा बोहाई गईस कचरा
बोहाई गईस कचरा
हमर भोजली दाई के सोने सोन के अंचरा
अहो देबी गंगा।।
फुगड़ी बालिकाओं द्वारा गाया जाने वाला खेल गीत है। धनकुल, ककसार छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग में गाया जाता है। इसके अलावा देष के अन्य प्रान्तों की तरह यहां भी बच्चे के जन्म संस्कार से लेकर विवाह के समस्त गीत जिनमें मंडपाच्छादन से लेकर चूलमाटी, मंगरोहन, देवतेल, तेलचघी, नहडोरी, मौर सौंपनी, बारात प्रस्थान, बारात स्वागत, समधी भेंट, भड़ौनी, भांवर, टिकावन, विदाई, डोला परछन आदि  के गीत महिलाओं द्वारा ही गाये जाते हैं।
हमारे छत्तीसगढ़ के लिये यह गर्व का विषय है कि यहां की महिलाएं घूंघट प्रथा, पर्दा प्रथा जैसी रूढि़यों से हटकर अपनी अस्मिता को बनाये हुए पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कार्य करती हैं। खेत-खलिहानों में कार्य करते वक्त जब श्रम की थकन होती है तो उस थकन को मिटाने के लिये गीतों का सहारा लिया जाता है। युग चाहे जितना परिवर्तन करले रहन-सहन, खान-पान, पहनावे में जिस तरह से बदलाव आये किन्तु हमारी आंचलिक धरोहर लोक गीत की पहचान को संजोए रखने में पहले भी महिलाओं की सहभागिता रही है और हमेशा से ही रहेगी। ग्रामीण श्रमिक, खेतिहर महिलाओं के साथ ही हमारी लोक कलाकार जिनमें पंडवानी गायिका पद्मश्री तीजन बाई, ऋतु वर्मा, उषा बारले, मीना साहू, ममता बारले, सुप्रसिद्ध भरथरी गायिका सुरूज बाई खाण्डे, रेखा जलक्षत्री, ममता चंद्राकर आदि के नाम हम गर्व से ले सकते हैं जिन्होंने छत्तीसगढ़ की लोक परम्परा को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर महत्वपूर्ण पहचान दी है।
अतः कुछ पुरुष प्रधान गीतों को छोड़कर छत्तीसगढ़ के लोक गीतों में महिलाओं ने आदि काल से ही सहभागी बनकर बराबर पुरुषों का साथ दिया है। बौद्धिक सृजन की उठापटक से दूर निश्छल वातावरण में मन के उद्गारों के माध्यम से लोक गीत रूपी निधि से स्वयं उपकृत होकर पुरुष प्रधान समाज को भी उपकृत किया है और समाज को एक नई दिशा प्रदान की है। छत्तीसगढ़ राज्य सरकार द्वारा समय-समय पर कला के माध्यम से महिला लोक कलाकारों को विषेष प्रोत्साहन देकर देश-विदेश में उन्हें मंच उपलब्ध कराया जा रहा है जिससे उनकी प्रतिभा में और निखार आ सके साथ ही छत्तीसगढ़ की वाचिक धरोहर लोक गीतों के संरक्षण संवर्धन में वे सहभागी बनें।
शकुंतला तरार
रायपुर छत्तीसगढ.