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राजनीति में साहित्यिक योद्धा : आचार्य विष्णुकांत शास्त्री

भारत में लोकतंत्र के महा पर्व का शुभारंभ हो चुका है। जल्द ही पश्चिम बंगाल में भी मतदान होने वाले हैं। देश भर में विभिन्न नेता ऐसे हैं जो साहित्य में रुचि रखते हैं और राजनीति में भी अपनी क़िस्मत आज़मा रहे हैं। ऐसे में, 2 मई, 1929 को कलकत्ता के एक सारस्वत ब्राह्मण परिवार में, पंडित गांगेय नरोत्तम शास्त्री तथा रूपेश्वरी देवी के घर में जन्में आचार्य विष्णुकान्त शास्त्री का स्मरण हो आता है जो साहित्य, संस्कृति और राजनीति के अद्भुत समन्वयक थे। इन्होंने भारतीय राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाते हुए अपनी अमिट छाप छोड़ी है।

एक बार उनसे किसी बंगाली प्रोफेसर ने प्रश्न किया कि, ‘आप कहाँ के रहने वाले हैं?’ इसपर आचार्य शास्त्री ने बड़ा ही रोचक उत्तर दिया, “मेरा मन बंगाली है, बंगाल में जन्मा, पला, बढ़ा, बांग्ला- साहित्य पढ़ा, बंगाल की भावुकता पायी, अतः मन से बंगाली हूँ। मेरे पिता, पितामह, प्रपितामह काशी में संस्कृत का अध्ययन-अध्यापन करते रहे। पारिवारिक संस्कार और आचार-विचार का विवेक भी काशी से ही प्राप्त हुआ है, अतः कह सकता हूँ कि बुद्धितत्त्व काशी का है। चित्त और चित्तेश्वरी दोनों जम्मू की देन हैं। पूर्वज जम्मू से आए थे। आन-बान, स्वाभिमान और दृढ़ता का डोगरा स्वभाव विरासत में मिला है। अहंकार सारे भारतवर्ष का है। अब आप ही बताइये कि मैं अपने को कहाँ का कहूँ ।”

आचार्य जी की शिक्षा कलकत्ता के सारस्वत क्षत्रिय विद्यालय, प्रेसीडेंसी कॉलेज (अब विश्वविद्यालय), विद्यासागर कॉलेज और फिर कलकत्ता विश्वविद्यालय से हुई। उन्होंने अपने छात्र जीवन की सभी परीक्षाएं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। आगे चलकर आचार्य जी को छत्रपति शाहू जी महाराज विश्वविद्यालय, कानपुर द्वारा मानद उपाधि, डी.लिट. तथा बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय द्वारा डी. लिट्. की मानद उपाधि से सम्मानित किया गया। 1953 में वे कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्राध्यापक नियुक्त हुए तत्पश्चात् विभागाध्यक्ष भी बने। आचार्य के पद से उन्होंने 31 मई, 1994 को अवकाश ग्रहण किया।

राजनैतिक अवदान :

प्रखर राष्ट्रप्रेम और समाज के प्रति अपने कर्त्तव्यों का अनुभव करते हुए आचार्य जी 1944 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्त्ता बने। 1977 में नवगठित जनता पार्टी की ओर से वे कलकत्ता के जोड़ासाँको अंचल से विधान सभा प्रत्याशी बने और भारी मतों से विजयी घोषित हुए। 1977 से 1982 तक पश्चिम बंगाल विधान सभा के विधायक रहे। 1980 में नवगठित भारतीय जनता पार्टी से संबद्ध होते हुए उन्हें बंगाल का प्रदेश अध्यक्ष चुना गया। 1988 से 1993 तक आचार्य जी भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी रहे। 1992 से 1998 तक वे राज्यसभा सांसद भी निर्वाचित हुए। केन्द्र की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने 2 दिसंबर 1999 को उन्हें हिमाचल प्रदेश का राज्यपाल नियुक्त किया। 23 नवंबर 2000 तक वे इस प्रदेश के संवैधानिक मुखिया रहे। तत्पश्चात् उन्हें देश के अत्यंत महत्त्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश स्थानांतरित कर दिया गया, जहाँ 24 नवंबर 2000 से 2 जुलाई 2004 तक उन्होंने राज्यपाल के रूप में कार्य करते हुए अपार लोकप्रियता अर्जित की। शास्त्रीजी ने कुछ दिनों तक पंजाब के राज्यपाल एवं चंडीगढ़ के प्रशासक का अतिरिक्त कार्यभार भी सँभाला।

शास्त्रैरपि, शरैरपि गुण के धारक :

प्रख्यात विद्याव्रती आचार्य विष्णुकांत शास्त्री शास्त्रैरपि, शरैरपि गुण के धारक भी थे। 1962 में भारत-चीन युद्ध में देश की पराजय का क्षोभ हर राष्ट्रप्रेमी के हृदय में व्याप्त था। आचार्य जी भी उसी दौरान एन.सी.सी. से जुड़े और 1964-65 में तीन कम्पनियों के कमाण्डर नियुक्त हुए। ‘मेरी रचना प्रक्रिया’ शीर्षक आलेख में वे लिखते हैं- “मेरे स्वभाव का एक पहलू यह भी है कि मैं समाज और देश के सामने आयी चुनौतियों से तटस्थ नहीं रह पाता। देश कठिन समय से गुजरता रहे और मैं पढ़ने-लिखने आदि में ही लगा रहूँ, यह मैं नहीं कर पाता।”

बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में भूमिका :

1971 में जब पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) ने अपनी स्वाधीनता के लिए संघर्ष प्रारंभ किया, तो उस कालखण्ड में कलकत्ता विश्वविद्यालय द्वारा गठित ‘बांग्लादेश सहायक समिति’ से जुड़ गए और उसकी कार्यसमिति के सदस्य के रूप में सक्रिय रहे। डॉ० धर्मवीर भारती जी के साथ मिलकर वे मोर्चे पर गए साथ ही बांग्लादेश की तत्कालीन स्थिति को बयां करने वाले ऐतिहासिक रिपोर्ताज लिखे। साप्ताहिक पत्रिका ‘धर्मयुग’ के संपादक डॉ० भारती ने उनकी महत्त्वपूर्ण रचनाओं को प्रमुखता से निरंतर प्रकाशित किया। आचार्य जी लिखते हैं, “कैसे अद्भुत थे वे दिन! उत्तेजना, विक्षोभ और उत्साह का जैसा अनुभव उन दिनों हुआ, वैसा कभी नहीं हुआ था। कहाँ विश्वविद्यालय का शान्तिपूर्ण प्राध्यापक जीवन और कहां युद्ध के मोर्चों पर अर्द्ध सैनिक वेश में गोलों के बीच मुक्ति योद्धाओं का साहचर्य। शरणार्थियों को दुर्दशा देखकर कलेजा मुँह को आता था, तो बांग्लादेश के नौजवान कार्यकर्त्ताओं की निष्ठा और लगन आश्वस्त करती थी कि स्थिति पलटकर रहेगी।”

श्रीराम के अनन्य भक्त :

आचार्य शास्त्री भक्ति काव्य के मर्मज्ञ विद्वान के रूप में समादृत रहे हैं। धर्म संस्कृति एवं अध्यात्म के गहन विश्लेषक, उपनिषद् एवं गीता के प्रवचनकार के रूप में भी उनकी पहचान बनी। भगवान श्रीराम के प्रति उनकी भक्ति सुविदित थी। वे लिखते हैं कि, “मैं आस्तिक विद्वान परिवार में पैदा हुआ था। भजन, पूजन, कथाश्रवण, दान पुण्य, तीर्थाटन आदि हम लोगों के परिवार का सहज अंग था। विद्वान पंडितों, संतों, संन्यासियों के प्रवचन मैं बचपन से सुनता आ रहा हूँ। चढ़ती जवानी में ही मैंने रामकृष्ण, विवेकानंद के साहित्य के अधिकांश का पारायण कर लिया था। श्रीमद्भागवत गीता एवं रामचरित मानस मेरे नित्य पाठ के पूज्य ग्रंथ रहे हैं।”

वे अपनी उपलब्धियों को ‘रामजी की कृपा’ और असफलताओं को ‘रामजी की इच्छा’ मानते थे। भक्तिपरक रचनाओं में अपने आराध्य रामजी के प्रति उनका समर्पण बड़े ही भावपूर्ण शब्दों में व्यक्त हुआ है। अपार भक्ती और विनम्रता का परिचय देते हुए वे लिखते हैं, “तुम्हीं काम देते हो स्वामी, तुम्हीं उन्हें पूरा करते हो, असफलता के दारुण क्षण में, अश्रु पोंछ पीड़ा हरते हो। कभी-कभी अचरज होता है, इतना अगुणी होने पर भी, कैसे, क्योंकर तुम मुझपर, यों कृपा मेघ जैसे झरते हो।”

निष्कर्षतः आचार्य विष्णुकांत शास्त्री का सम्पूर्ण जीवन शिक्षा, आध्यात्म, समाजसेवा, भक्ति और राष्ट्रप्रेम से ओत-प्रोत था। उनका नाम एक कुशल वक्ता और अप्रतिम राजनेता में शुमार है। इसके इतर वे छात्र वत्सल प्राध्यापक भी थे। राजनीति में रहने के पश्चात भी उनकी साहित्य साधना कभी कम नहीं हुई। आज के दौर में बंगाल की राजनीति में ऐसे कुशल प्रभावशाली नेतृत्व की महती आवश्यकता है।

शुभांगी उपाध्याय
शोधार्थी, कलकत्ता विश्वविद्यालय

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