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कालीपानी जेल में जनेऊ के रक्षार्थ अनशन कर प्राणाहुति देने वाले क्रांतिकारी

27 मई 1919 : सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी रामरक्खा का बलिदान

सुप्रसिद्ध क्राँतिकारी रामरख्खा ऐसे बलिदानी थे जिन्होंने पहले अंग्रेजों से भारत की मुक्ति केलिये सशस्त्र संघर्ष किया और जब बंदी बनाकर अंडमान-निकोबार जेल भेजा गया तो वहाँ स्वत्व रक्षा केलिये अनशन किया और बलिदान हुये।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कितने बलिदानी ऐसे हैं जिनका इतिहास के पन्नों में नाम तो मिलता है पर पूरा विवरण नहीं मिलता ही नहीं। ऐसे ही बलिदानी क्राँतिकारी रामरख्खा हैं। जिनका स्वाधीनता संघर्ष के इतिहास में केवल इतना उल्लेख है कि वे “लाहौर षड्यंत्र केस” में आरोपी थे। उन्हे आजन्म कारावास की सजा केलिये अंडमान की कालापानी जेल भेजा गया। अंडमान-निकोबार की जेल में भी उनका रिकार्ड है। वहाँ अनशन और बीमारी से मौत दर्ज है। लेकिन जेल के भीतर उनके संघर्ष का विवरण सुप्रसिद्ध क्राँतिकारी शचीन्द्रनाथ सन्याल की आत्मकथा में मिलता है।

क्राँतिकारी राम रख्खा का जन्म  23 फरवरी 1884 को पंजाब प्राँत के होशियारपुर में हुआ था। पिता जवाहर राम कर्मकांडी ब्राह्मण थे। बचपन में यज्ञोपवीत हुआ और आगे पढ़ने के लिये काशी भेज दिये गये। पढ़ाई के दौरान काशी में इनका संपर्क क्राँतिकारियों से हुआ और वे पढ़ाई छोड़कर भारत को अंग्रेजों से मुक्त कराने के अभियान में गये। उन्होंने क्राँतिकारियों के साथ मेरठ, अमृतसर, बर्मा, मलाया और सिंगापुर की यात्राएँ की और अंग्रेजी सेना के भीतर काम कर रहे भारतीय सैनिकों के बीच 1857 की भाँति क्राँति का वातावरण बनाने का प्रयास किया।

इस काम में उन्हे एक जमादार सोहनलाल पाठक का सहयोग मिला। सोहनलाल बनारस के रहने वाले थे। पढ़ाई के दौरान दोनोँ की भेंट काशी में हुई थी। लेकिन समय के साथ दोनों के मार्ग अलग अलग हो गये थे। सोहन लाल सेना में भरती हो गये और रामरख्खा क्राँति की दिशा में आगे बढ़े। लेकिन पुनः भेंट हुई दोनों मिलकर राष्ट्र चेतना जागरण अभियान में लग गये। सेना में जाग्रति अभियान में इन्हें तीन अन्य तीन साथियों का सहयोग मिला। ये साथी मुजतबा हुसैन, अमर सिंह और अली अहमद थे।

राम रख्खा कुशाग्र बुद्धि के अच्छे वक्ता थे। उन्हें बम बनाने और क्राँतिकारियों की कमरा बैठकों में संबोधन का काम मिला। उन्होंने यह काम भारत के विभिन्न नगरों के साथ वर्मा, बैंकाक और जर्मनी में भी किया। उनके कार्यों की सूचना अंग्रेज सरकार को लगी। पुलिस पीछे लगी तो वे सिंगापुर चले गये। उनका मानना ​​​​था कि भारत में क्राँति के लिये जर्मनी से पूरी सहायता मिलेगी। 1857 की भाँति 1915 में बकरीद के दिन पूरे देश में एक साथ क्राँति की योजना बनी। विद्रोह का कारण बनने के लिए रंगून में एक प्रस्ताव लिया गया था।

पहले मांडले षडयंत्र केस के संबंध में एकत्रित सूचना के आधार पर पुलिस ने चार क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर लिया और 28 मार्च 1917 को मुकदमा शुरू हुआ। इन पर युद्ध छेड़ने, साजिश रचने, सेना को निष्ठा से भ्रमित करने के आरोप लगाए गए। इसके साथ विदेश में षड्यंत्र करने का आरोप लगा। 6 जुलाई 1917 को फैसला आया। राम रख्खा सहित चारों क्राँतिकारियों को पहले प्राण दंड मिला। अपील हुई तो सजा आजीवन कारावास में बदलकर अंडमान-निकोबार जेल भेज दिया गया।

चारों क्राँतिकारियों को अंडमान लाया गया। अंडमान जेल में कैदी के आने और जाने पर पूरे कपड़े उतारकर तलाशी होती थी। राम रख्खा जी की तलाशी हुई और तलाशी के दौरान यज्ञोपवीत उतारने को कहा गया। उन्होंने सारे वस्त्र तो उतार दिये पर यज्ञोपवीत उतारने से मना कर दिया। जब नहीं माने तो जेलर ने पिटाई की और जनेऊ तोड़कर फेक दिया। क्राँतिकारी राम रख्खा ने अनशन आरंभ कर दिया। उन्हे बल पूर्वक खिलाने की कोशिश हुई। अन्न मुँह में ढूसा गया। क्राँतिकारी राम रख्खा ने सब सहा लेकिन अपना जनेऊ पुनः प्राप्त करने की जिद न छोड़ी। उनका अनशन और संघर्ष तीन महीने चला। जो उनके प्राणों के बलिदान के बाद ही रुका।

उनके इस संघर्ष का वर्णन अंडमान जेल में उनके दो समकालीन क्राँतिकारियो ने किया है। एक तो शचीन्द्रनाथ सन्याल की आत्मकथा में जो उन्होंने रिहाई के बाद लिखी। शचीन्द्र सान्याल की आत्म कथा में वर्णन है कि “एक और क्रांतिकारी था, नाम रामरक्खा था, वे पंजाब के रहने वाले थे। उन्होने चीन जापान अदि देशों के प्रवासकाल में क्रांतिकारी दल की सदस्यता ग्रहण की वो रंगून में क्रांति फ़ैलाने के आरोप में गिरफ्तारी हुई। उन्हें आजन्म सजा ए कालापानी का पुरस्कार मिला।

रामरक्खा जब अंडमान की जेल में आएं तो उसने देखा कि यहाँ गले से जनेऊ निकाल दिया जाता है। यह बात उसको खटकी। वह देश-विदेश घूम चुके थे। विचार विकसित हो चुके थे। रूढ़ीवाद या अंधश्रद्धा के कारण नही बल्कि विचारपूर्वक ही उन्हें अंग्रेजों का यह अन्याय सहन नही हुआ। उन्होने इस बात का विरोध किया कि किसी के इच्छा के विरुद्ध उसके जनेऊ आदि नही छीने जाएँ| अतः जब बलपूर्वक उनका जनेऊ उतारकर छिन्न-भिन्न कर दिया तो राम रख्खा बिगड़ उठे और उन्होने कसम खायी कि जब तक नया जनेऊ नहीं मिलेगा तब तक रोटी नही लूंगा, जल भी नही लूंगा, रामरक्खा को अनशन किये जब पंद्रह दिन गुजर गए।

तब उनकी नाक में नली डाल कर कुछ खाद्य द्रव रूप में पहुँचाया जाता रहा। रामरक्खा कमजोर हो गए किन्तु वह डिगे नही, उनकी छाती में भयंकर पीड़ा होने लगी, डॉक्टरों ने परीक्षण कर कहा कि ये तो यक्ष्मा ने ग्रस हो गए है। यह जानकर सभी साथी चिंतित हुए और रामरख्खा को अनशन तोड़ने का आग्रह भी किया, वह इनकार करते रहे। मुझे लगा कि शायद उसने मृत्यु के द्वार पर ही आसन जमा लिया है। रोग बढ़ता गया, दो महीने तक उन्होने भयंकर यातनाएं भोगी और अंततः वह क्रांतिकारी बलिदान की भेंट चढ़ गया।

किन्तु यह सनसनीखेज शोक-संवाद भारतीय अख़बारों तक पहुँच गया। बात दबाई नही जा सकी और अंततः सरकार को यह आदेश जारी करना पड़ा कि अंडमान में अब किसी के भी जनेऊ नही उतारे जायेंगे। यही नहीं, सभी धर्मों के अनुयाइयों को अपने धर्म चिन्ह जेल में अपने पास रखने की अनुमति मिल गयी। मेरा मन मुझसे कहने लगा कि शायद मुझे भी इसी रास्ते जाना पड़ेगा। रामरक्खा सरीखे उदार और शूरवीर देशभक्तों को जब मृत्यु के मुख में जाते देखता तो ह्रदय अशांत हो जाता”

वहीं दूसरा वर्णन त्रिलोक्य चक्रवर्ती जी ने लिखा । उन्होंने लिखा है… ‘‘बर्मा के कैदियों में ही पंडित रामरक्खा थे। रामरक्खा उत्तर भारत के ब्राह्मण थे। जब उनका जनेऊ ले लिया गया, तो उन्होंने अनशन कर दिया। तीन महीने अनशन के बाद उनकी मृत्यु हो गई, पर उन्हें जनेऊ वापस नहीं मिला।

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं।

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