देखिए पंचमहाल के कलेशरी का प्राचीन शिल्प पथिक के संग : तरुण शुक्ला

गुजरात के इत्तिहास में चावड़ा -सोलंकी-वाघेला युग सुवर्ण युग माना जाता है। ईस्वीं सन की आठवी सदी से तेरहवीं सदी तक गुजरात मे राज करने वाले इस वंश के राजा सिद्धराज जयसिंह और कुमारपाल ने काफी सारे विविध शिल्पयुक्त मंदिर, वाव (बावड़ी), कुण्डवाव (चौरस आकार की बावडिया), किल्ला, दरवाजे पूरे गुजरात और गुजरात से सटे राजस्थान और मालवा में जहाँ जहाँ इनका शासन था, वहाँ बनवाये थे ।

उससे पहले के यानी आठवी सदी के पहले के निर्माण पूरे गुजरात मे कुछ मैत्रक सैंधवकालीन मंदिरों को छोड़कर आज मिल नही रहे है। सोलंकी युग के बाद गुजरात मे सल्तनत काल मे मुस्लिम स्थापत्य जैसे कि मस्जिद, रोज़ा वगैरह बनाये गए। मंदिर निर्माण काफी कम हुआ। जबकि मराठा और अंग्रेज शासन में निर्माण ठप्प रहा।

पंचमहाल के पथ पर पथिक

पाटण से मालवा के राज पथ पर पंचमहाल जिला पड़ता था । इसका व्यूहात्मक महत्व था। इस रास्तो पर बंजारों के कारवां (पोठ) और सेना की टुकड़ियां माल समान और लश्कर का सामान वहन करती थी। इसलिए ऐसे रास्तो पर बावडिया बनाई जाती, जिसमे जमीन की सतह के नीचे आराम के लिए कमरे बनाये जाते थे।

तालाब के किनारे पत्थर के मंडप बनते थे । जिसमे बंजारा लोग और अन्य राहगीर आराम करते। रास्ते भी नदी, तालाब जैसे जलस्तोत्र के पास बनाये जाते थे, जिससे कि आवा जाही करने वालो को पानी की किल्लत न हो। मंदिर भी भक्तिभाव, आराधना और उत्सव के केंद्र बनते थे।

पंचमहाल में लुणावाड़ा से बीस किलोमीटर दूर लवाणा गांव के पास कलेशरी या कलेशरी नी नाल (नाल मतलब दो पहाड़ी के बीच का रास्ता) नामक जगह है। जहाँ अद्भुत शिल्प स्थापत्य, मंदिर, वाव और घना जंगल है। यहाँ पर शिवरात्रि और जन्माष्टमी के दिन स्वयंभू लोकमेला लगता है ।

जिसका वर्णन गुजरात के ज्ञानपीठ विजेता लेखक पन्नालाल पटेल ने अपनी नवलकथा “मलेला जीव” में किया है । यहां पर उन्ही की कथा पर आधारित फ़िल्म “मानवी नी भवाई ” फ़िल्म का शूटिंग हुआ था । यहाँ ईस्वीं सन दसवीं से पंद्रहवीं सदी तक के स्थापत्य है।

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कुछ को बाद में पुराने स्थापत्य अवशेष से लुणावाड़ा के राजाओ द्वारा पुनः निर्मित किया गया है। चौदहवी -पंद्रहवीं सदी की दो नंदा प्रकार की बावडिया है । जिसे “सासु वहु नी वाव” कहते है । वाव के गोख में लज्जागौरी -नन्दीश्वर का शिल्प है, नवग्रह पट्ट, शेषशायी विष्णु और वैष्णवी की प्रतिमाएं भी है।

यहाँ एक मंडप मंदिर है, जिसके स्तंभ के ऊपर एक अवांच्य लेख है। जो कि लुणावाड़ा के युवराज माला राणा द्वारा संवत 1605 (ई सन 1549 ) में इस मंदिर के जीर्णोद्धार के अनुसंधानं में है। मंदिर में एक गोख मे भगवान नटराज की मूर्ति है, जिसे कुछ अनजान कारणों से कलेशरी माता के रूप में पूजा जाता है

यहाँ पर विश्वरूप विष्णु भगवान की मूर्ति थी, जो कि अब नही हैं । कुछ साल पहले मूर्ति चोरी हो गयी । पास में एक शिव मंदिर है, जो पुराने मंदिर की जगति पर पुनः निर्मित है । इसकी दीवारों में नष्ट मंदिर की मूर्तिया जड़ी हुई है। जो कि प्रेक्षणीय है।
यह मंदिर लुणावाड़ा के राजा वखतसिंहजी द्वारा ई सन 1735 से 1757 के बीच निर्मित है।

थोड़ा आगे एक कुण्डवाव है, जिसके पगथार के गोख में शेषशायी विष्णु और शिवजी की प्रतिमा है । परिसर के एक कोने में एक प्लेटफॉर्म के ऊपर नौंवी -दशमी सदी की करीब 25-30 प्रतिमाएं जड़ी हुई है। जो कि ताल मान से निर्मित होने से बड़ी अच्छी लगती है।

 

पास में एक छोटी सी पहाड़ी है, उसके ऊपर जाने के रास्ते पर एक शिकार मढ़ी नामक पुराने पत्थरो से निर्मित मकान है, जिसकी दीवारों पर कामक्रीड़ा दर्शाने वाले पुराने शिल्प और नृत्य गणेश, महिष मर्दिनी, विष्णु, चामुंडा, वाराही, दर्पण कन्या के शिल्प लगे है, इस मकान का प्रयोग लुणावाड़ा के राजा यहाँ शिकार के लिए आते थे, तब रुकने के लिए करते थे ।

पहाड़ी पर अर्जुन चोरी नामक मंदिर की द्वारशाख में अद्भुत शिल्प पट्ट है, भीम चोरी नामक शिवालय मंदिर में भी काफी शिल्प भी भी है। तीसरे मंदिर में सिर्फ दो विशालकाय पाँव के अवशेष बचे है, जिसे “भीम ना पग़ला ” कहते है । यह विस्तार पहले हिडिम्बा वन कहा जाता था।

अदभुत शिल्पकारी : रुड़ा बाई नी बाव -રુદ઼ા બાઈ ની બાવ​

 

यहाँ पहाड़ी से आसपास का नज़ारा दर्शनीय है । यहाँ के काफी शिल्प खजाना की लालच में या फिर मूर्तियॉ की तस्करी में चोरी हो गए है, फिर भी जो बचा है, वह भव्य और नयनरम्य है । कलेशरी में गुजरात सरकार के वन विभाग ने प्रवासियों के लिए रुकने और वनभ्रमण के लिए सुविधा बनाई है । यहाँ एक निजी रिसोर्ट भी बना है । जिससे वन भ्रमण में गाइड की सेवा और अन्य सुविधाएं आसानी से मिल जाती है।

मही नदी के किनारे मधवास गांव में महादेव मंदिर में ई सन 1586 का लुणावाड़ा के राजवी द्वारा मंदिर की स्थापना का अभिलेख दीवार में जडा हुआ है । यहाँ मंदिर समूह, नदी और नवीन मोक्षधाम मिलकर सुंदर दृश्य बनाते है । पास में डोलरिया गांव में भग्न सूर्य मंदिर के अवशेष पड़े है, जो इस विस्तार में सूर्य पूजा होती थी, उसका प्रमाण देते है ।

लुणावाड़ा पाटण के सोलंकी राजाओ के वंशजो द्वारा ई सन 1434 की अक्षय तृतीया को स्थापित राज्य है । जहां पहाड़ की गोद में भुवनेश्वरी माताजी का मंदिर और महल सब से पहले निर्मित हुआ था।

लुणेश्वर महादेव, देवल माता, घेली माता, रामजी, गणपति यहाँ के प्रमुख मंदिर है । जब कि यहाँ संस्कृत पाठशाला में पढ़ कर बने विद्ववान छात्रों के कारण लुणावाड़ा छोटी काशी कहा जाता था। मैक्समुलर सरीखे संस्कृत के विद्ववान यहाँ के प्रकांड पंडितों के लोहा मानते थे।

 

गुजराती भाषा की प्रथम नवलकथा “करण घेलो ” जो कि गुजरात के सोलंकी वंश कब अंतिम राजा के जीवन पर आधारित थी । उसे यहाँ के दीवान नंदशंकर मेहता ने 1866 में लिखी थी । नंदशंकर मेहता ने यहां किशन सागर सरोवर के किनारे नंदकेश्वर महादेव बनाया था।

लुणावाड़ा के पास पानम नदी के किनारे देसर महादेव का दसवीं सदी का शिव पंचायतन मंदिर था। जो पानम डेम बनने से डूब गया है। पानम डेम आसपास पहाड़ो और जंगल जैसे कुदरती माहौल की वजह से देखने जैसा है।

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लेखक तरुण शुक्ला गांधीनगर (गुजरात)

 

 

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