मित्रता बंधनमुक्त स्वनिर्मित अनमोल होती है : मनकही
मित्र, सखा, साथी, बंधु, दोस्त, मितान, आदि शब्दों को सुनते ही ह्रदय उमंग से भरकर हिलारें लेने लगता है क्योंकि माता-पिता, भाई-बहन चयन तो ईश्वराधीन होता है। हम सिर्फ़ इनके चयन की कल्पना भी नहीं कर सकते, यह प्रकृति निर्धारित करती है। परन्तु दो चीजों का चयन हमारे हाथ में है, पहला मित्र, दूसरा शत्रु। शत्रु का चयन कोई नहीं करना चाहता पर मित्र का चयन स्वयं करता है।
ॠग्वेद कहता है -समानः मन्त्रः समितिः समानी, समानं मनः, सः चित्तम् एषाम (हों विचार समान सबके, चित्त मन सब एक हों।) विचारों की समानता एवं चित्त मन के एकसार होने पर निश्छल मित्रता होती है, जिसकी कोई पार नहीं पा सकता। ऐसी मित्रता के कई उदाहरण हमें वांग्मय एवं समाज में मिलते हैं।
कृष्ण-सुदामा की मित्रता को भला कौन नही जानता? विशेषकर वह प्रसंग जब गुरुमाता ने जंगल लकड़ी लाने भेजते समय चने की पोटली देकर कहा कि दोनों मिलकर खा लेना पर सुदामा ने सारे चने अकेले ही खा लिए। प्रत्यक्ष रूप से सब यही जानते हैं, लेकिन सच तो यह था कि वे चने अभिशापित थे, उसे जो खायेगा दरिद्र हो जायेगा, इस बात को सिर्फ सुदामा जानते थे और भला वे अपने मित्र कृष्ण को दरिद्र कैसे होने देते, बस उन्होंने उस अभिशापित चनों को स्वयं ग्रहण कर लिया।
मनुष्य बहुत से रिश्तों के साथ जन्म लेता है। पर मित्रता बंधनमुक्त स्वनिर्मित, अनमोल संबंध है, जिसमें हमारी भावनाएं सीधे हृदय से जुडी होती हैं। अन्य संबंधों, नातों में तो आदर, भय, संकोच, इच्छा, अनिच्छा आदि का बंधन होता है। एकमात्र मित्र से ही मन की बात बेझिझक की जा सकती है, इसलिए एक सच्चे और अच्छे मित्र की आवश्यकता हर मनुष्य को होती है।
मित्र दर्पण के समान होता है, जो अपने मित्र का जीवन उज्जवल बनाता है। सच्चा मित्र मार्गदर्शक बन कर हर विषम परिस्थितियॉ मे धैर्य और साहस से सामना करना सिखाता है। त्रुटियों पर समझाता, डाँटता है। बिना लक्ष्य प्राप्ति तक थकने-रुकने नही देता। रूठना मनाना मित्रता का सुखद पहलू है।
आमतौर पर मित्रता को संगति से जोड़ा जाता है। नीति शास्त्र कहता है – सत्संगति किंम् न करोति पुंसां। संगत का प्रभाव जीवन में पड़ता ही है, यह कटु सत्य है। मित्र चाहे तो अच्छा, सच्चा बनाकर सफलता के शिखर पर पहुंचा दे, चाहे बुराई के दलदल में धकेल दे। परंतु मेरा मानना है किजहाँ स्वार्थ हो, जो बुराई के गर्त में ले जाये वह मित्र हो ही नही सकता। मित्रता जैसे पवित्र एवं पावन शब्द, ऐसे लोगों के लिए प्रयोग करना सर्वथा अनुचित है।
मेरे एक बालमित्र का कहना है कि मित्र कुंए के सामान होता है, जिससे मन के सारे अच्छे-बुरे उदगार को साझा कर पाते हैं। हर किसी से मन की बातें करने में बदनामी, जग हंसाई का भय रहता है। सबकी सोच सही हो यह आवश्यक नहीं। परन्तु कोई सखा ऐसा अंधेरा कूप होता है कि उसे जो चाहो बता आओ, मन की भड़ास निकल जाती है और चित्त शुद्ध हो जाता है। इसलिए जीवन में ऐसे मित्र का होना आवश्यक है।
सच्चा मित्र और उसकी मित्रता निःस्वार्थ होती है। मनुष्य जीवनपर्यंत कार्य साधने हेतु मित्र बनाता है। मित्रता में छल-कपट ईर्ष्या-घृणा, ऊंच -नीच, अमीर-गरीब, जाति-पाँति का कोई स्थान नही होता, परंतु बालमित्र और उनकी मित्रता का जीवन में जो स्थान होता है उसकी अपनी विलक्षण अनुभूति है, जो अकथनीय होती है।
जिस प्रकार हम ईश्वर पर विश्वास रखते हुए प्रार्थना करते हैं – त्वमेव माताश्च पिता त्वमेव, त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेय। यहां नीतिकार यहाँ मित्र को ईश्वर के समकक्ष ले जा कर खड़ा कर देता है। मिताई ऐसी होती है। हम उस सर्वव्यापी, सर्वज्ञ को विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न रुपों में देखते हैं और अंत में उसे अपना सखा मानते हुए, पूर्ण विश्वास से सब उस पर छोड़ देतें हैं मित्र की मित्रता भी ऐसी ही होती है। इसलिए कहा जाता है – जग में ऊंची प्रेम सगाई, दुर्योधन के मेवा त्यागे, साग विदूर घर खाई……
आलेख
आपके रूप में अग्रज, सलाहकार एवं मित्र पाकर मैं स्वयं गौरवान्वित महसूस करता हुं। सादर प्रणाम आदरणीय ललित भैया🙏🙏