futuredमनकही

जीवन और संघर्ष एक दूसरे के पूरक : मनकही

कहते हैं माल खाये गंगाराम और मार खाये मनबोध। जीवन में ऐसा भी होता है कभी-कभी। मनुष्य को न जाने क्या कुछ करना पड़ता है सतंति के लिए, परिवार के लिए। यह समझना आवश्यक है कि परिवार के लिए एक श्रेष्ठ परिजन तैयार करने में माता की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। शास्त्र भी कहते हैं माता निर्माता भवति।

वाहन दुर्घटना के एक मामले में कोर्ट में आने के बाद पुकार की प्रतीक्षा कर रही थी बैंच पर बैठकर। इस अवधि में मन में उथल-पुथल मची हुई थी। मुझे महाभारत के पात्र अभिमन्यु की याद आ गई, मैं भी उसी की तरह जीवन युद्ध लड़ रही हूँ, स्वयं विषम परिस्थिति में उलझी, अपनों के लिए, बिना अपनों का साथ पाए लड़ रही थी।

जीवन अनुभवों की खान है, बड़े बूढ़े सही कहते थे, थाना, कचहरी, अस्पताल जैसी जगहों से तो भगवान बचाये। यह एक ऐसा भंवर होता है जहाँ से निकलना बहुत मुश्किल होता है। कचहरी में अपराधी न होते हुए भी अपराधी बनकर खड़ा होना बहुत कष्टदायक होता है।

See also  जे.पी. नड्डा ने वृक्षारोपण कर मैनपाट में किया भाजपा प्रशिक्षण वर्ग का शुभारंभ

पर व्यक्ति को मजबूरी में सब करना पड़ता है, एक क्षण ऐसा भी लगता है कि बस अब नही हो पायेगा, फिर मन कहता है जो होगा देखा जायेगा, अच्छा या बुरा। बस यही दो परिणाम होते हैं, अच्छा हुआ तो नई सीख मिलेगी और परिस्थितियों को समझने की दृष्टि यदि बुरा हुआ तो आत्मावलोकन होगा कि प्रयास में कमी कहाँ रह गई?

यह एक सांप-सीढ़ी का खेल है, फिर से नई उर्जा एवं रणनीति के साथ शुरुआत करना चाहिए। दोनों ही स्थिति में प्राप्त ही होना है बस सोच सकरात्मक होनी चाहिये। इस सिद्धान्त पर चल कर किसी तीसरे, चौथे से मदद मांग कर काम उलझाने से बेहतर होता है कि सीधा मार्ग अपनाओ। कहते भी हैं एकै साधे सब सधे ,सब साधे सब जाये

कर्तव्य के साथ सफलता और सीख दोनों मिलती है। सीख ये की अपने पर पूरा विश्वास करो, दूसरों पर भरोसा और विश्वास सिर्फ एक सीमा तक करो,चाहे परिवार हो या कोई और। चूक या गलती इंसान से ही होती है ,जो आवश्यक है सिखने एवं सिखाने के लिए। पर इस काल में व्यक्ति को अनिच्छा, सहमति-असहमति का अवसर भी मिलना चाहिए। जिससे गलतियों को सुधारा जा सके।

See also  लक्ष्मीबाई केलकर : राष्ट्र निर्माण में नारीशक्ति जागरण की अग्रदूत

जीवन के कर्तव्यों को निभाने में लम्बा समय बीत जाता है, इस अवधि में बहुत कुछ सीखा, बचपना था पता ही नही चला कि चीजें होती कैसी है, दुनिया के प्रपंच क्या हैं। जो बोला गया उसे किया समय के साथ। निर्वहन की चिंता में तनाव के कारण व्याधियों से ग्रसित होना आम बात है।

प्रतिदिन सांसारिक कर्तव्य निभाते हुए लगता है कि कुछ महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां पूरी करनी शेष हैं, फिर आत्मबोध होता है कि जो बचा है उसे ही संभाल लिया जाए, जो बिगड़ गया उसे मूल रूप में तो नही ला सकते परन्तु उनको संरक्षित कर सकते हैं और जो सही है उसे बिगड़ने ना दें, तभी तो बचे जीवन को आनन्द और सुख से बिताते हुए ॠषि ॠण एवं पितृ ॠण से उॠण हुआ जा सकता है।

गीता दर्शन कहता है कि जो होता है ,अच्छे के लिये होता है। यह दर्शन हमें आत्मबल और संतोष प्रदान करता है और नकारात्मक सोच की तरफ जाने से रोकता है। जीवन में झरने को आदर्श मानते हुए आगे बढ़ना चाहिए। आत्मबल बनाये रखना चाहिए, जीवन और संघर्ष एक दूसरे के पूरक है, क्योंकि रुकने का अर्थ मृत्यु है।

See also  गुरु पूर्णिमा और भगवद्ध्वज: संघ की सांस्कृतिक परंपरा का दिव्य उत्सव

आलेख

रेखा पाण्डेय
अम्बिकापुर, सरगुजा
छत्तीसगढ़