व्यवस्था के अंधेरे पक्ष का निर्मम अनावरण है डा. बलदेव की कविता “अंधेरे में”
27 मई डाँ. बलदेव जी की 82 वीं जयंती के अवसर पर कविता डा. बलदेव की कविता “अंधेरे में” की समीक्षा
हिंदी साहित्य में “अंधेरे में ” शीर्षक से दो कविताएं महत्वपूर्ण हैं । एक मुक्तिबोध की दूसरी डा. बलदेव की । मुक्तिबोध की कालजयी प्रलंब कविता “अंधेरे में ” उनकी कविताओं के संचयन “चांद का मुंह टेढा है ” में संकलित है । इस रचना में स्वातंत्र्य के पूर्व और स्वतंत्रता के पश्चात की भयावह और विकट स्थिति – परिस्थितियों के यथार्थ को चित्रित किया गया है। इस कविता में यह प्रदर्शित किया गया है कि स्वातंत्र्य समर के जिन दुर्धर्ष योद्धाओं, हुतात्माओं ने मातृभूमि की बलिवेदी पर हंसते – हंसते अपने प्राणों की आहुति दी, वे विस्मृति के घटाटोप अंधेरे में खो गए, यहां तक कि लाखों अनाम शहीदों की पहचान तक नहीं हो पाई है, उनका सूचीकरण तक नहीं हो पाया है और इसके ठीक विपरीत नितांत स्वार्थी, लोभी, सुविधाभोगी,अवसरवादी, कुटिल मुखौटे प्रकाश में आ गए। अंधेरा घोर अव्यवस्था का जीवंत प्रतीक है। इस कविता में व्यवस्था की विसंगतियों और विद्रूपताओं तथा विकृतियों की वीभत्सता को गहनता और सघनता के साथ अभिव्यक्त करने का उपक्रम परिलक्षित होता है।
दूसरी “अंधेरे में “कविता डा. बलदेव रचित है। जो उनके काव्य संग्रह “वृक्ष में तब्दील हो गई औरत” में समाविष्ट है। इस विवेच्य कविता में बिंबधर्मिता, प्रतीक योजना की अद्वितीय और अनूठी उपस्थिति है। इस रचना में अन्योक्ति का विकट और रहस्यमय रूपक श्लेषित है। इसमें फैंटसी भी है, कठोर यथार्थ भी है और गहरी भावुकता की समाविष्टि भी है। राजनीति, सत्ता, लोकतंत्र की जटिल अव्यवस्था के कुरूप चेहरे को फ्रायड की मनोवैज्ञानिकता के औजारों के प्रयोगों द्वारा निर्ममतापूर्वक बेनकाब किया गया है। आज सत्ता लोलुपता वासना का पर्याय हो गई है। सत्ता लब्धि के लिए तमाम षड्यंत्र बुने जा रहे हैं। सत्ता आज जन सेवा न होकर मेवा अर्थात् वैभव प्राप्ति का माध्यम हो गई है। समाज भी इस विडंबना के लिए कम दोषी नहीं है। संप्रति समाज में विद्वानों, साहित्यकारों, कलाकारों तथा समाजसेवियों का स्थान गौण हो गया है।
राजनीति के महत्वपूर्ण पदों पर विराजमान और विद्यमान चेहरों का सम्मान किया जा रहा है। उनकी अगवानी की जा रही है, उनकी जय-जयकार हो रही है। उनकी तारीफों के कसीदे गढे जा रहे हैं। चारणों, भाटों की नयी जमात पैदा हो गई है। राजनीति एक बेहद लाभप्रद धंधे में बदल गई है। वस्तुत: येन केन प्रकारेण अर्थात् साम, दाम, दंड, भेद के सहारे सत्ता पर काबिज होनेवाले सत्ता सुन्दरी का उपभोग करनेवाले सत्ताभोगी आज के पेशेवर, धुरंधर राजनीतिबाज ही कामातुर पशु हैं और शहर लोकतंत्र का प्रतीक है। ऐसे कुटिल राजनीति के शकुनियों, काम मोहितों को ही डा.बलदेव ने पशु संबोधित किया है।
सत्ता की अनंत -असीम पिपासा इस लोकतंत्र को कहाँ और किस स्तर तक ले जायेगी या कहा जाए कि कुर्सी की भूख लोकतंत्र को किस सीमा तक अधोपतित करेगी, कहा नहीं जा सकता। यह कल्पनातीत है। सत्ता की काम वासना अनंत है। सत्ता संतुष्टि की कोई परिधि ही नहीं है। लोकतंत्र में नवीन किस्म का राजतंत्र पनप गया है। राजनीति जन जीवन पर हाबी हो गई है। यही कारण है कि समाज में आज भ्रष्टाचार – अनाचार का जानलेवा कैंसर व्याप्त हो गया है। भाई भतीजावाद पसर गया है। सर्वत्र जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। आज राजनीतिबाज कामांध हो गए हैं। कुर्सी के प्रति उनकी आसक्ति सर्वोपरि है। जनता भोग्या हो गई। महाभारत की द्रौपदी की तरह उसकी अस्मिता के शीलहरण का खेल जारी है।
लोकतंत्र को परिभाषित करते हुए अब्राहम लिंकन ने कहा है, लोकतंत्र जनता का, जनता के द्वारा, जनता के लिए शासन है। लोकतंत्र में चुनाव ही सत्ता प्राप्ति का राजमार्ग है। चुनाव की वैतरिणी पार करने के लिए मतदाताओं को मांस, मदिरा, मुद्रा और इतर सामग्रियों की सहायता से प्रलोभित – सम्मोहित किया जाता है। मदिरा की मानों नदिया बहती हैं। आदमी व्होट में तब्दील हो गया है। सत्ता की राजनीति मादा पशु की तरह लोगों को अपनी ओर आकर्षित करती है। सत्ता की मादक गंध सत्ता लोलुपों को मदहोश कर देती है। मदांध बना देती है। आज की राजनीति तिलस्मी है , मायावी भी है।
सत्ता प्राप्ति का स्त्रोत चुनाव है। चुनाव में वही सफल होता है, जो चुनावी प्रबंधन में जितना कुशल होता है। आज चुनाव में दलीय प्रणाली प्रचलित है। किसी महत्वपूर्ण दल का टिकट पाना भी दुष्कर कार्य है। टिकट पा जाने पर प्रत्याशी की वित्तीय स्थिति, उसके प्रचारकों,अनुचरों,कार्यकर्ताओं की संख्या चुनाव जीतने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। लोकतंत्र में भेड़ चाल भी दिखती है। सामयिक लहर में जनता प्रभावित हो जाती है।जार्ज बर्नार्ड शा ने ठीक ही कहा है ” यदि मतदाता मूर्ख हैं ,तो उनके प्रतिनिधि धूर्त होंगे।”
लोकतंत्र के चार स्तंभ है। विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और पत्रकारिता। न्याय की देवी की आंखों में पट्टी बंधी हुई है। चतुर्थ स्तंभ ढहता नजर आ रहा है। सर्वत्र गोदी मीडिया का बोलबाला है। आज बिकने और बिछने की होड़ मची हुई है, चिंतक, विचारक, पत्रकार, साहित्यकार जनता की अस्मिता के चीरहरण को चुपचाप देख रहे हैं। नपुंसक की भांति कुछ नहीं कर पा रहे हैं। सचमुच आज लोकतंत्र क्षत – विक्षत हो रहा है। इन्हीं तिमिराच्छन्न विकट भयावह स्थिति- परिस्थितियों को कवि द्वारा अपनी कविता “अंधेरे में “में बिंबधर्मिता और प्रतीक योजना के माध्यम से सारगर्भित रूप में रहस्यमय ढंग से उतारा गया है। डा.बलदेव की “अंधेरे में” कविता कलेवर में सधी हुई और कसी हुई है, शब्द स्फीति का अभाव है , केदार- नाथ सिंह की रचनाधर्मिता की तरह अनावश्यक शब्दों का प्रयोग अदृश्य है। “अंधेरे में ” कविता का शिल्प अनूठा है, कविता के धर्म और मर्म की दृष्टि से भी कविता के सृजन में उत्कृष्टता द्रष्टव्य है।
लेखक प्रतिष्ठित साहित्यकार एवं टिप्पणीकार हैं।
बहुत बढ़िया