अलख निरंजन शब्द की उत्पत्ति एवं सामाजिक आध्यात्मिक प्रभाव
अलख निरंजन का नाद धान कटने और देवउठनी मनाने के बाद सुबह सुबह सुनाई देता था। इससे पहले भोर में सारंगी की धुन पर बाबा ‘राम नाम की फ़ेरी है’, गाते हुए गांव की गलियों से गुजरते थे। यह उनका नित्य का कार्य होता था। दस पन्द्रह दिन एक गांव में फ़ेरी देकर फ़िर घर घर से बिदाई दक्षिणा लेकर अगले गांव के लिए निकल जाते थे। बात बात में उनसे अलख निरंजन सुनने मिलता था और यह मन को भी भाता था, जैसे कोई अलख निरंजन कहकर आशीष देकर मंगल कामनाएं कर रहा हो।
इसका अर्थ और तात्पर्य बालकपन में कहां समझ आता है, मैं भी नहीं समझता था परन्तु अच्छा बहुत लगता था। कालांतर में समय निकलते गया और फ़ेरी वाले गोरखपंथी साधु भी दिखने बंद हो गए और बात आई गई हो गई। कुछ दिनों पूर्व अलख निरंजन फ़िर याद आ गये। अब अलख निरंजन का अर्थ हो समझ गया था।
अलख, अ+लख, जो दिखाई न दे, जो दृष्टिगोचर न हो। माने निराकार और निराकार ईश्वर को ही कहा गया है। निरंजन शब्द की उत्पत्ति अंजन शब्द में निर् प्रत्यय लगाने के बाद होती है। निर का अर्थ है बिना या रहित तथा अंजन का अर्थ है काजल या अंधकार। निरंजन का शाब्दिक अर्थ होता है “जो अंजन (काजल या अंधकार) से रहित हो। किन्तु इसका तत्वार्थ बहुत गहरा है।
इसका तत्वार्थ शुद्ध और निर्मल से है, जो किसी भी प्रकार के दोष या मलिनता से मुक्त हो। प्रकाशमय, जो अज्ञान के अंधकार से परे हो, ज्ञान के प्रकाश से युक्त हो, माया रहित हो, जो सांसारिक भ्रम या माया से परे हो। जिसे संसारिकबंधन प्रभावित न कर सके। यह शब्द परमात्मा का विशेषण है, अक्सर परमात्मा या ब्रह्म के लिए प्रयोग किया जाता है, जो सभी दोषों और सीमाओं से परे है। दो शब्दों का यह वाक्य कितना गहरा है, लगातार स्मरण करने से सांसारिक जीवन के प्रति मोह भंग कर सदैव ईश्वर के मार्ग की ओर अग्रेषित करता है, उसे भूलने नहीं देता। पथभ्रष्ट नहीं होने देता। कितनी शक्ति इस शब्द में।
इस शब्द का प्रयोग घोष रुप में हिन्दू धर्म के विभिन्न सम्प्रदाय करते हैं। भारतीय परम्परा के संतों ने इसे आजमाया है तथा भक्तिकाल में यह प्रमुख उद्घोष रहा है। इसका प्रभाव समाज पर दिखाई देता है। वैसे इस शब्द का उद्भम नाथ संप्रदाय से माना जाता है। भगवान शिव के उपासक इस सम्प्रदाय के प्रमुख गुरु गोरखनाथ हैं, इनके साधुओं द्वारा ही यह शब्द उच्चारित होता है, अलख निरंजन कहना के अलख जगाना भी कहते हैं। क्योंकि यह शब्द मनुष्य को उस दिव्य शक्ति की ओर ले जाता है जो अदृश्य एवं पवित्र है।, जो मल रहित है, जो निर्मल है।
“अलख निरंजन” का गहरा आध्यात्मिक अर्थ है। यह उस अनंत और अज्ञेय शक्ति का संदर्भ है जिसे मानव इंद्रियों से नहीं देखा जा सकता, लेकिन वह सर्वव्यापी और शुद्ध है। इसे ईश्वर के निराकार स्वरूप का प्रतीक भी माना जाता है। ईश उपनिष भी कहता है ‘ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्॥’ जड़-चेतन प्राणियों वाली यह सृष्टि सर्वत्र परमात्मा से व्याप्त है। इसके पदार्थों का आवश्यकतानुसार भोग करें, किंतु ‘यह सब मेरा नहीं है के भाव के साथ’ पदार्थों का संग्रह न करें। इस तरह अलख निरंजन शब्द ईश्वर के निराकार एवं निर्मल होने का लगातार स्मरण कराता है तथा सद्गति के लिए त्याग की भावना को बलवती करता है।
अलख शब्द की महिमा का गुणगान तत्कालीन साधु संतों ने अपने वाणी में किया है तथा इसके महत्व को जनमानस को समझाने का प्रयास किया है। भक्तिकाल के संतों ने इसका भरपुर उपयोग किया और अलख को निरंजन होकर प्राप्त भी कर लिया, जिनका अनुसरण हम आज भी कर रहे हैं।
कबीर दास जी कहते हैं –
लख निरंजन लखै न कोई, निरगुन रूप निरंजन सोई।
जो जानै सो कहि न सकै, कहि जानै सो नाहिं।
अर्थात-अलख निरंजन (परमात्मा) को कोई देख नहीं सकता। वह निर्गुण रूप में है। जो उसे जानता है, वह उसे व्यक्त नहीं कर सकता, और जो उसके बारे में बोलता है, वह वास्तव में उसे नहीं जानता।
तुलसी दास जी रामचरित के बालकांड में कहते हैं –
अलख अगम अनादि अनंता। निर्गुन निरंजन ज्ञानवंता।।
ता कर नाम जपत जग जाना। बेद पुरान विदित विज्ञाना।।
अर्थात – इस चौपाई में तुलसीदास जी ईश्वर के गुणों का वर्णन करते हैं, जिसे अलख (अदृश्य), अगम (पहुँच से परे), अनादि (जिसका कोई आदि नहीं), अनंत (असीम), निर्गुण (गुणों से परे) और निरंजन (निर्दोष) कहा गया है।
कवि रैदास भगत कहते हैं –
अलख निरंजन एक है, दूजा नाहीं कोय।
जहाँ देखूँ तहाँ रमि रहा, रैदास रहा समोय।।
अर्थात – अलख निरंजन (परमात्मा) एक है और उसके सिवा कोई दूसरा नहीं है। वह हर जगह व्याप्त है और रैदास उसी में समाए हुए हैं।
गुरु नानक देव कहते हैं –
अलख अपार अगम अगोचर, ना तिस काल न करमा। जाति अजाति अजोनि संभउ, ना तिस भाउ न भरमा।।
अर्थात वह अलख (अदृश्य), अपार (असीम), अगम (पहुँच से परे) और अगोचर (इंद्रियों से परे) है। वह काल और कर्म से परे है, जाति-पाति से ऊपर है, और भय या भ्रम से मुक्त है।
भक्तिकाल में अलख निरंजन का उपयोग समाज में जागरुकता फ़ैलाना रहा, यह आध्यात्मिक जागरुकता का माध्यम बना, जिसे अलख जगाना कहते हैं, जो कि अब कहावतों में भी सम्मिलित हो गया है। इस उद्घोषणा से जनमानस में अदृश्य एवं पवित्र शक्ति के प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती है। भक्ति आंदोलनों में इसका प्रयोग सिर्फ़ गोरखपंथी ही नहीं, अन्य साधु सम्प्रदायों ने भी किया जिससे समाज में भक्ति और साधना का वातावरण बना।
इस शब्द ने समाज में भेद को समाप्त करने के प्रयासों में महती भूमिका निभाई, इसकी उद्घोषणा ने धार्मिक एवं सामाजिक समानता को बढ़ावा दिया। साधु चाहिए किसी भी वर्ग या जाति से हो, परन्तु एक दूसरे का सम्मान ‘अलख निरंजन’ कहकर ही करते हैं। इन सम्प्रदायों एवं संत परम्परा ने इस शब्द के माध्यम से सामाजिक बुराइयों का विरोध किया तथा समाज में सुधार की दिशा में कार्य किया।
शब्द की महिमा अपरम्पार बताई गई, इसलिए संत नाम जप पर जोर देते हैं। नाम जप ध्यान में सहायक माना जाता है क्योंकि चित्त को एकाग्र कर मन को शुद्ध करके उसे विकारों की ओर जाने से रोकता है। जिससे मानसिक शांति मिलती है और आध्यात्मिक सकारात्मक ऊर्जा का निर्माण एवं संचरण होता है। यह साधक और ईश्वर के बीच एक सेतु का काम करता है। व्यक्ति की आंतरिक शक्ति बढ़ती है। यह सबसे सरल साधना वह रुप है जो मनुष्य के जीवन को रुपांतरित करता है। इसलिए भक्तिकाल में अलख निरंजन जप का अधिक बोलबाला था। वर्तमान में भी इसका प्रयोग होता है।
इस तरह वर्षों पूर्व सुने हुए एक शब्द का चिंतन आज हुआ, ज्ञात हुआ कि यह सिर्फ़ एक उद्घोषणा ही नहीं है, बल्कि एक गहरा आध्यात्मिक और सामाजिक संदेश भी है, इस शब्द ने न केवल धार्मिक एवं आध्यात्मिक जागरुकता को बढ़ाया है, बल्कि सामाजिक सुधार और समानता के सामाजिक समरसता स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आज भी अलख निरंजन का उद्घोष समाज में अलख जगाए हुए है, जिससे सामाजिक एकता और समरसता की वृद्धि के साथ आध्यात्मिक चेतना जागृत हो रही है। अलख निरंजन
लेखक भारतीय संस्कृति, पुरातत्व एवं इतिहास के जानकार हैं।