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हिन्दू महासभा के प्रेरणास्रोत डॉ. बालकृष्ण शिवराम मुंजे का जीवन और योगदान

सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, चिंतक और विचारक बालकृष्ण शिवराम मुंजे का जन्म 12 दिसम्बर 1872 को छत्तीसगढ प्रांत के बिलासपुर में हुआ था। यद्धपि उनका परिवार महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र का ही रहने वाला था पर कार्य के संदर्भ में बिलासपुर बस गया था। डाक्टर मुंजे का जन्म यहीं हुआ। उन्होंने 1898 में मेडिकल कॉलेज मुम्बई से मेडिकल डिग्री ली और मुम्बई में ही नगर निगम के चिकित्सा अधिकारी नियुक्त हो गये। अपनी चिकित्सा सेवा के साथ उन्हे सैन्य कार्यों में रुचि रही इसका उन्होंने प्रयास किया और सेना की चिकित्सा शाखा में कमीशन अधिकारी नियुक्त हो गये। उन्हे सेना के चिकित्सा अधिकारी के रूप में उन्हे दक्षिण अफ्रीका भेजा गया।

जहाँ उनकी भेंट गाँधी जी और अन्य प्रमुख भारतीय जनों से हुई। दक्षिण अफ्रीका भारतीयों के साथ अंग्रेजों का व्यवहार देखकर वे व्यथित हो गये। उनकी पदस्थापना बोअर युद्ध मोर्चे पर की गई।  वे युद्ध में घायल सैनिकों को छोड़कर नहीं लौटना चाहते थे। अतएव युद्ध के चलते तो वे वहीं रहे फिर 1899 में उन्होंने त्यागपत्र दे दिया और भारत लौट आये। यहाँ वे अंग्रेजों से भारत की मुक्ति के उपाय सोचने लगे और कांग्रेस से जुड़ गये। उन दिनों काँग्रेस में एक प्रकार का वैचारिक युद्ध चल रहा था।

एक पक्ष स्वायत्ता तो चाहता था पर अंग्रेजों के कानून के ही अंतर्गत। लेकिन दूसरा पक्ष अंग्रेजों से पूरी तरह मुक्ति चाहता था। इन दोनों समूहों को नरम दल और गरम दल के नाम  जाना जाता था। डाक्टर मुंजे भी चाहते थे कि भारत को अंग्रेजों से पूरी तरह मुक्ति मिले। इसलिये 1907 में सूरत में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में डाक्टर मुंजे ने खुलकर तिलक जी का समर्थन किया और इसी के साथ वे तिलक जी के निकटस्थ लोगों में माने जाने लगे।

यद्धपि वे भले काँग्रेस के एक समूह को पसंद न थे किंतु डाक्टर मुंजे अपनी ओर से पार्टी की सेवा में कोई कमी न छोड़ते। एक चिकित्सक और उस पर सेना के चिकित्सीय अधिकारी के रूप में काम करने के कारण उनकी लोकप्रियता अपेक्षाकृत अधिक थी। इसका लाभ पार्टी के लिये कार्यक्रमों में धन संग्रह के लिये मिलता। उनकी प्रतिभा को देखकर तिलक जी ने उन्हे पूरे मध्यभारत में भ्रमण करने और जन जागरण का काम सौंपा वे तिलक जी के आदेश पर भ्रमण कर जन जागरण के काम में जुट गये।

इसका एक लाभ कांग्रेस को हुआ कि कार्यकर्ता बढ़ने लगे। दूसरा लाभ स्वयं डाक्टर मुंजे को मिला कि उनका व्यकातिगत सम्पर्क देश भर में बन गया। जब राष्ट्रभाव जागरण को के लिए लोकमान्य तिलक जी ने गणेश पूजा परंपरा आरंभ की तो मुंजे ने न केवल पुणे से मुम्बई तक पंडाल लगाने, मूर्ति बैठाने से लेकर  विसर्जन तक के आयोजन का संयोजन किया बल्कि तिलक जी के विभिन्न स्थानों पर लोकमान्य तिलक ने जो व्यवस्था भी की। इसके बाद वे कोलकाता गए और वहाँ भी गणेशोत्सव या अन्य कोई उत्सव परंपरा आरंभ करने की पहल की।

1920 में लोकमान्य तिलक जी की मृत्यु होने के बाद उनके कामों को आगे बढ़ाने के काम में लग गये। 1921 में असहयोग आंदोलन में शामिल हुये और गिरफ्तार कर लिये गये। लेकिन असहयोग आँदोलन के साथ खिलाफत आँदोलन को जोड़ने पर वे सहमत न हो सके। इस विषय पर उनके काँग्रेस नेताओं से मतभेद हुये। तभी मालाबार में साम्प्रदायिक हिंसा हुई। यह हिंसा एक तरफा थी। तब डाक्टर मुंजे डाक्टर हैडगेवार और स्वामी श्रद्धानंद जी ने मालाबार की यात्रा की। लौटकर उन्होंने गाँधीजी से भेंट की मालाबार के पीडितों के समर्थन ब्क्त्व्य देने की बात की। किन्तु गाँधी जी को लगता था कि वह हिंसा साम्प्रदायिक नहीं थी। डाक्टर मुंजे इससे सहमत न हुये।

काँग्रेस की नीतियों पर तुष्टीकरण का आरोप पहली बार डाक्टर मुंजे ने ही लगाया था जो समय के साथ गहरा होता गया। इस विषय पर काँग्रेस से मतभेद बढ़ने पर डाक्टर मुंजे ने काँग्रेस से त्यागपत्र दे दिया। वे सावरकर जी मिले और हिन्दू महा सभा की सदस्यता ले ली।

डॉ. बीएस मुंजे को 1927 में हिन्दू महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष मनोनीत किया गया। वे इस पद पर 1937 तक रहे। उनके बाद ही में सावरकर राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। 1930 और 1931 के गोलमेज सम्मेलनों में वे हिन्दू महासभा के प्रतिनिधि के रूप में गए थे जबकि गांधीजी केवल 1931 के सम्मेलन में कांग्रेस के प्रतिनिधि के रूप में सम्मिलित हुये। गोलमेज सम्मेलन के बाद डाक्टर मुँजे फरवरी से मार्च 1931 तक यूरोप का भ्रमण पर रहे।

1934 में मुंजे ने सेंट्रल हिंदू मिलिट्री एजुकेशन सोसाइटी की स्थापना की जिसका उद्देश्य मातृभूमि की रक्षा के लिए युवाओं को सैन्य प्रशिक्षण देना था और साथ ही, निजी सुरक्षा और राष्ट्रीय सुरक्षा की कला में प्रशिक्षित करना भी था।

डाक्टर भीमराव अंबेडकर जी द्वारा छुआछूत के विरुद्ध अभियान छेड़ने से पूर्व डाक्टर मुंजे से भेंट की। छुआछूत मिटाकर सनातनी समाज को एक सूत्र में पिरोने के पक्ष में थे। उन्होंने सहयोग करने का आश्वासन दिया। मत परिवर्तन के पूर्व डाक्टर मुंजे ने ही बौद्ध परंपरा अपनाने की सलाह दी थी। डाक्टर मुंजे ने 1937 में हिन्दु महासभा का अध्यक्ष पद छोड़ा और पूरी तरह सामाजिक एवं सांस्कृतिक जागरण के लिये स्वयं को समर्पित कर दिया। उन्होंने कांग्रेस से भले त्यागपत्र दे दिया था।

हिन्दु महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे पर कांग्रेस में उनका सम्मान कम न हुआ। काँग्रेस के अधिकांश सदस्य उनके पास धन संग्रह और मार्गदर्शन के लिये आते। संभवतः यही कारण था कि 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में उनकी अकादमी के युवाओं ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। डाक्टर मुंजे ने 1915 में अंग्रेजों भारत से भगाने केलिये करो या मरो का आव्हान करने की बात कही थी वह 1942 में जन सामान्य का नारा बना। डाक्टर मुंजे भारत विभाजन के निर्णय से बहुत आहत थे। वे इसके लिये वे कथित रूप से तुष्टीकरण नीति को ही दोषी मानते थे। इसके बाद वे अस्वस्थ रहने लगे और 3 मार्च 1948 को इस संसार से विदा हुये।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं।

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