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विश्व मंच पर भारत की संस्कृति, अर्थव्यवस्था और स्वाभिमान का उदय

प्रहलाद सबनानी

भारत की आर्थिक प्रगति को रोकने, कम करने अथवा प्रभावित करने के उद्देश्य से दरअसल चार शक्तियों ने हाथ मिला लिए हैं। ये चार शक्तियां हैं कट्टरवादी इस्लाम, प्रसारवादी चर्च, सांस्कृतिक मार्क्सवाद एवं वैश्विक बाजार शक्तियां। हालांकि उक्त चारों शक्तियों की अन्य देशों में आपसी लड़ाई है, परंतु भारत के मामले में यह एक हो गई हैं और भारत में यह आपस में मिलकर भारत के हितों के विरुद्ध कार्य करती हुई दिखाई दे रही हैं।

इसी संदर्भ में आज वैश्विक स्तर पर भारत के विरुद्ध कई झूठे विमर्श भी गढ़े जा रहे हैं। हाल ही के समय में इस प्रक्रिया ने कुछ रफ्तार पकड़ी है। विमर्श के माध्यम से जनता के मानस को प्रभावित करने का प्रयास किया जाता है। विमर्श सत्य, अर्द्धसत्य अथवा झूठ भी हो सकता है। भारत के बारे में पूरे विश्व में धारणा है कि यहां आध्यात्मिकता की पराकाष्ठा रही है। परंतु अब पूरे विश्व में विशेष रूप से भारत के संदर्भ में पुराने विमर्श टूट रहे हैं और नित नए विमर्श गढ़े जा रहे हैं। भारत चूंकि हाल ही के समय में वैश्विक स्तर पर एक मजबूत आर्थिक ताकत बनकर उभर रहा है, भारत की यह प्रगति कुछ देशों को रास नहीं आ रही है एवं यह सभी मिलकर भारत के संबंध में झूठे विमर्श गढ़ रहे हैं।

पश्चिमी विचारधारा में उत्पादों के अधिकतम उपभोग को जगह दी गई है। “आज को अच्छी तरह से जी लें, कल किसने देखा है”—यह पश्चिमी सोच चर्च की प्रेरणा एवं भौतिकवाद पर आधारित है। इस्लाम एवं ईसाईयत में पुनर्जन्म पर विश्वास नहीं किया जाता है। जो कुछ भी करना है वह इसी जन्म में करना है। इसके ठीक विपरीत भारतीय सनातन संस्कृति पुनर्जन्म में विश्वास करती है। इससे भारतीय नागरिकों द्वारा उपभोग में संयम बरता जाता है एवं उत्पादन में बहुलता होने की विचारधारा पर कार्य करते हुए दिखाई देते हैं। ईश्वर से प्रार्थना की जाती है कि “प्रभु इतना दीजिए कि मैं भी भूखा ना रहूं और अन्य कोई भी भूखा ना सोए।” यह भारतीय विचारधारा है।

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भारतीय सनातन संस्कृति की विचारधारा के ठीक विपरीत आज वैश्विक बाजार शक्तियां भारत में भी उपभोक्तावाद को फैलाने का प्रयास कर रही हैं। विशेष रूप से दीपावली एवं रक्षाबंधन जैसे शुभ त्यौहारों के अवसर पर “कुछ मीठा हो जाए” जैसे विज्ञापन देकर यह विमर्श खड़ा करने का प्रयास किया जाता है कि भारतीय मिठाइयों एवं व्यंजनों जैसे जलेबी, इमरती तथा दूध एवं खोए से बनी मिठाइयां खाने से मधुमेह का रोग हो जाता है। अतः सदियों से भारत में उपयोग हो रहे इन स्वादिष्ट व्यंजनों के स्थान पर केडबरी चॉकलेट अधिक स्वास्थ्यवर्धक है, जिसका अधिक उपयोग करना चाहिए। इस प्रकार भारी-भरकम राशि खर्च कर विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा निर्मित मीठे पदार्थों को विभिन्न विज्ञापनों के माध्यम से भारतीय समाज के मानस पर उतारने का प्रयास किया जाता है।

साथ ही विभिन्न भारतीय त्यौहारों के समय वैश्विक बाजार शक्तियों द्वारा यह भी कहकर कि “दीपावली के शुभ अवसर पर जलाए जाने वाले फटाके पर्यावरण का नुकसान करते हैं”, “होली पर्व पर भारी मात्रा में पानी की बर्बादी की जाती है”, “महाशिवरात्रि पर्व पर दूध की बर्बादी की जाती है”, “माई बॉडी माई चॉइस”, “हमको भारत में रहने में डर लगता है” आदि विमर्श स्थापित करने का प्रयास किया जाता है। कुल मिलाकर पश्चिमी देशों द्वारा आज भारतीय सनातन संस्कृति पर आधारित हिंदू परंपराओं पर लगातार प्रहार किए जा रहे हैं।

भारतीय सनातन संस्कारों के अनुसार भारत में कुटुंब को एक महत्वपूर्ण इकाई के रूप में स्वीकार किया गया है एवं भारत में संयुक्त परिवार इसकी परिणति के रूप में दिखाई देते हैं। परंतु पश्चिमी आर्थिक दर्शन में संयुक्त परिवार लगभग नहीं के बराबर ही दिखाई देते हैं एवं विकसित देशों में सामान्यतः बच्चों के 18 वर्ष की आयु प्राप्त करते ही वे अपना अलग परिवार बसा लेते हैं तथा अपने माता-पिता से अलग मकान लेकर रहने लगते हैं। इस चलन के पीछे संभवतः आर्थिक पक्ष इस प्रकार जुड़ा हुआ है कि जितने अधिक परिवार होंगे, उतने ही अधिक मकानों की आवश्यकता होगी, कारों की आवश्यकता होगी, टीवी की आवश्यकता होगी, फ्रिज की आवश्यकता होगी आदि। लगभग समस्त उत्पादों की आवश्यकता इससे बढ़ेगी, जो अंततः मांग में वृद्धि के रूप में दिखाई देगी एवं इससे इन वस्तुओं का उत्पादन बढ़ेगा। ज्यादा वस्तुएं बिकने से बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लाभप्रदता में भी वृद्धि होगी। कुल मिलाकर इससे आर्थिक वृद्धि दर तेज होगी।

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विकसित देशों में इस प्रकार की मान्यताएं समाज में अब सामान्य हो चली हैं। अब बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत में भी प्रयासरत हैं कि किस प्रकार भारत में संयुक्त परिवार की प्रणाली को तोड़ा जाए, ताकि परिवारों की संख्या बढ़े एवं विभिन्न उत्पादों की मांग बढ़े और इन कंपनियों द्वारा निर्मित उत्पादों की बिक्री बाजार में बढ़े। इसके लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियां इस प्रकार के विभिन्न सामाजिक सीरियलों को बनवाकर प्रायोजित करते हुए टीवी पर प्रसारित करवाती हैं, जिनमें संयुक्त परिवार के नुकसान बताए जाते हैं एवं छोटे-छोटे परिवारों के फायदे दिखाए जाते हैं। सास-बहू के बीच, ननद-देवरानी के बीच, दो बहनों के बीच, पड़ोसियों के बीच छोटी-छोटी बातों को लेकर झगड़े दिखाए जाते हैं एवं जिनका अंत परिवार की टूट के रूप में बताया जाता है, ताकि भारत में भी पूंजीवाद की तर्ज पर व्यक्तिवाद को बढ़ावा मिल सके।

भारत एक विशाल देश है एवं विश्व में सबसे बड़ा बाजार है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां यदि अपने इस कुचक्र में सफल हो जाती हैं, तो उनकी सोच के अनुसार भारत में उत्पादों की मांग में बेतहाशा वृद्धि हो सकती है। इससे विशेष रूप से बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सीधे-सीधे फायदा होगा। इसी कारण के चलते आज जॉर्ज सोरोस जैसे कई विदेशी नागरिक अन्य कई विदेशी संस्थानों एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ मिलकर भारतीय संस्कृति पर हमला करते हुए दिखाई दे रहे हैं एवं भारतीय संस्कृति को नष्ट करने का प्रयास कर रहे हैं।

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पश्चिमी देशों के नागरिकों के लक्ष्य भौतिक (जड़) हो रहे हैं और चेतना कहीं पीछे छूट रही है। केवल आर्थिक विकास, अर्थात अर्थ का अर्जन करना ही जैसे इस जीवन का मुख्य उद्देश्य हो। परंतु भारत के नागरिक सनातन संस्कृति का अनुसरण करते हुए समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी के अहसास के प्रति भी सजग दिखाई देते हैं, अर्थात उनमें चेतना के दर्शन भी होते हैं।

अब हम समस्त भारतीय नागरिकों को वैश्विक बाजार शक्तियों द्वारा फैलाए जा रहे उक्त वर्णित जाल में नहीं फंसते हुए, हमारे अपने भारतीय व्यंजनों का भरपूर आनंद उठाते हुए अपनी भारतीय परंपराओं का अनुपालन सुनिश्चित करना चाहिए। हमें अपने जीवन के लगभग प्रत्येक क्षेत्र में केवल स्वदेशी उत्पादों का ही उपयोग करना चाहिए, चाहे वह तुलनात्मक रूप से थोड़ा महंगा ही क्यों न हो।

उदाहरण के तौर पर हमारे जीवन में रोजाना उपयोग होने वाले कुछ उत्पादों के नाम यहां पर दिए जा सकते हैं, जिनका उत्पादन सदियों से भारत में ही पर्याप्त मात्रा में होता चला आया है। केवल और केवल भारतीय कंपनियों द्वारा निर्मित इन उत्पादों का उपयोग एवं विदेशी कंपनियों द्वारा निर्मित इन उत्पादों का उपयोग नहीं करने की शपथ ली जानी चाहिए। जैसे नहाने का साबुन, कपड़े धोने का साबुन, सौंदर्य प्रसाधन, औषधियां, टूथपेस्ट, दंतमंजन, टूथब्रश, दाढ़ी का साबुन, ब्लेड, रेजर, बिस्किट, चॉकलेट, दुग्ध उत्पाद, ब्रेड, चाय, कॉफी, शीतपेय, शरबत, चटनी, अचार, मुरब्बा, आइसक्रीम, खाद्य तेल, खाद्य पदार्थ, विद्युत उपकरण, गृह-उपयोगी वस्तुएं, घड़ियां, लेखन सामग्री, जूते-चप्पल, पोलिश, तैयार कपड़े, कंप्यूटर लैपटॉप एवं उपकरण, टेलीकॉम उपकरण, बाम और मरहम, दोपहिया वाहन, चारपहिया वाहन, स्वचालित वाहन एवं मोबाइल फोन आदि।

जब भी बाजार जाएंगे, सामान स्वदेशी ही लाएंगे—जैसे तथ्यों को आत्मसात करना चाहिए। इससे न केवल चीन बल्कि अमेरिका को भी संदेश जाएगा कि भारत अब कई क्षेत्रों में आत्मनिर्भर हो चुका है तथा वैश्विक स्तर पर भारत अब इनके दबाव में आने वाला नहीं है।

लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं।