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भारत में आतंकवाद और माओवाद का छिपा गठजोड़: हाल की घटनाओं से उजागर हुआ सच

दिल्ली के लालकिला क्षेत्र में हुए विस्फोट और छत्तीसगढ़ में कुख्यात नक्सली हिड़मा के एनकाउंटर के बाद घटे घटनाक्रम ने कट्टरपंथी आतंकवाद और माओवादियों के बीच आंतरिक गठबंधन को फिर सामने ला दिया है। वहीं, क्रूर षड्यंत्रों पर परदा डालने के लिए कुछ राजनेताओं की राजनीति भी उतनी ही हैरान करने वाली है।

हिंसा, आतंकवाद, सामूहिक नरसंहार और अमानवीय यातनाएँ देकर भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक ढांचे को बदलने का प्रयास नया नहीं है। इस काम में कई शक्तियाँ लगी हुई हैं। बाहर से देखने पर इनके नाम, रंग, रूप, पहनावा और कार्यशैली अलग दिखती हैं। कोई खुद को कट्टरपंथी धर्म समर्थक कहते हैं और कोई धर्म विरोधी माओवादी। लेकिन भारत विरोधी गतिविधियों में इनके तार आपस में जुड़े दिखते हैं, मानो इन्हें किसी एक ही सूत्र से संचालित किया जा रहा हो।

भारत के कुछ राजनीतिक दलों से जुड़े नेताओं द्वारा इनके समर्थन और संरक्षण के लिए सामने आना भी कम चौंकाने वाला नहीं है। इसकी झलक देश में हाल में घटी दो बड़ी घटनाओं में फिर दिखाई दी। पहली घटना दिल्ली के लालकिला क्षेत्र में हुए विस्फोट के बाद सामने आए नेटवर्क की है। दूसरी घटना दूरस्थ छत्तीसगढ़ में कुख्यात नक्सली हिड़मा के एनकाउंटर की है। इन दोनों घटनाओं ने इस आंतरिक गठजोड़ और उसके समर्थकों को एक बार फिर बेनकाब किया। पुलिस एनकाउंटर में मारे गए नक्सली हिड़मा के समर्थन में भी वैसे ही नारे लगे जैसे 2016 में आतंकवादी अफजल के समर्थन में लगे थे।

छत्तीसगढ़ सरकार इन दिनों नक्सलवाद को समाप्त करने का अभियान चला रही है। इसी अभियान के तहत कुछ दिन पहले कुख्यात नक्सली हिड़मा मार गिराया गया। हिड़मा साधारण नक्सली नहीं था। वह एक कमांडर था और उसके नेतृत्व में कई हिंसक नक्सली समूह सक्रिय थे। छह राज्यों की पुलिस उसे खोज रही थी। अलग-अलग राज्यों द्वारा घोषित कुल इनामी राशि लगभग एक करोड़ अस्सी लाख रुपये थी, जिससे उसकी खूंखार छवि का अंदाजा लगाया जा सकता है।

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केवल छत्तीसगढ़ में ही हिड़मा पर दो दर्जन से अधिक मामले दर्ज थे। अकेले एर्राबोर क्षेत्र में उसने डेढ़ सौ से अधिक निर्दोष नागरिकों की हत्या की। इनमें सुरक्षा बल के अस्सी से अधिक जवान शामिल हैं। इसके अलावा आसिरगुड़ा, चिंतागुफा, कासलपाड़, बुरकापाल, मिनपा, टेकलगुड़म और पिडमेल जैसी जगहों पर घात लगाकर सुरक्षा बलों पर किए गए निर्मम हमलों में भी उसका नाम आता है।

इतने दुर्दांत हत्यारे के समर्थन में देश के तीन अलग-अलग स्थानों से आवाजें उठीं। सबसे पहले छत्तीसगढ़ से एक वीडियो जारी हुआ जिसे देशभर में वायरल किया गया। इसे नक्सल समर्थक सोनी सोढ़ी ने बनाया था जिसमें हिड़मा की मौत को एनकाउंटर नहीं बल्कि हत्या कहा गया। वीडियो में कोर्ट जाने की बात भी कही गई। इस वीडियो को कांग्रेस नेता और मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने शेयर किया और एनकाउंटर पर सवाल उठाए। इससे पहले छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल भी सरकार के नक्सल विरोधी अभियान पर प्रश्न उठा चुके थे और इसे आदिवासियों पर हमला बताया था।

लेकिन जो नारा दिल्ली में सुनाई दिया, उसने माओवाद और कट्टरपंथी आतंकवाद के तारों को फिर उजागर कर दिया। इन दिनों दिल्ली में प्रदूषण को लेकर एक प्रदर्शन चल रहा है। प्रदर्शन प्रदूषण पर है, लेकिन नारे हिड़मा के समर्थन में लगे। एक नारा था, “तुम कितने हिड़मा मारोगे, हर घर से हिड़मा निकलेगा।” यह वही शैली है जो 2016 में अफजल गुरु की बरसी पर सुनी गई थी। तब कहा गया था, “तुम कितने अफजल मारोगे, हर घर से अफजल निकलेगा।” फर्क सिर्फ नाम का था; अंदाज और मंशा वही।

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कहने को कट्टरपंथी आतंकवाद और माओवाद दो अलग धाराएँ हैं। एक खुद को धर्म के लिए कट्टर बताता है तो दूसरा धर्म विरोधी है। विचारों में कोई मेल नहीं। लेकिन भारत की सांस्कृतिक पहचान पर हमला करने के लिए दोनों एक साथ खड़े दिखते हैं। यह भी याद रखने योग्य है कि आतंकवादी अफजल की बरसी जेएनयू में मनाई गई थी, जिसे माओवाद और मार्क्सवाद का वैचारिक केंद्र माना जाता है। तब भी यह सवाल उठा था कि कट्टर जेहादियों और माओवादियों के बीच आंतरिक गठजोड़ कितना गहरा है। हिड़मा के एनकाउंटर के बाद यह सवाल फिर जीवित हो गया है।

आतंकवाद समर्थक राजनीति

एक तरफ भारत विरोधी हिंसक शक्तियाँ नया एजेंडा चलाने में जुटी हैं, वहीं दूसरी तरफ कुछ राजनीतिक दलों के नेताओं के बयान और भी चिंताजनक हैं। हिड़मा एनकाउंटर पर कांग्रेस के दो पूर्व मुख्यमंत्रियों के बयान आए। लालकिला क्षेत्र में हुए विस्फोट के बाद कांग्रेस के तीन नेताओं ने ऐसे बयान दिए जिनमें आतंकवादियों के प्रति सहानुभूति झलकती है।

यह विस्फोट कोई साधारण घटना नहीं थी। इससे जुड़े आतंकी न तो सीमा पार से आए थे, न ही किसी जंगल में बने कैंप में प्रशिक्षण लिया था। ये सब बड़े शहरों में रहने वाले उच्च शिक्षित युवा थे। विश्वविद्यालय परिसर इनके नेटवर्क का केंद्र था। इनका नेटवर्क पंद्रह राज्यों में फैला था और पाकिस्तान, सऊदी अरब, तुर्की और हमास तक इनके संपर्क थे। वे ड्रोन से हमला करने और हिंदू धार्मिक स्थलों के पानी में जहर मिलाकर लाखों लोगों को मारने की योजना बना रहे थे। गिरफ्तारियों से कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं।

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इसके बावजूद कांग्रेस से जुड़े नेता उनके समर्थन में खड़े दिखे।
पहला बयान कांग्रेस नेता राशिद अल्वी का था। उन्होंने पूछा, “आखिर किस मजबूरी में ये हिंसा की राह पकड़ रहे हैं? पढ़ा-लिखा युवक एमबीबीएस और एमडी करने के बाद आतंकवाद क्यों अपनाएगा? इस पर मोदीजी विचार करें।”
दूसरा बयान कांग्रेस सांसद इमरान मसूद का था। उन्होंने आरोपियों को गुमराह बताया, ठीक उसी तरह जैसे कश्मीर में आतंकवाद को छिपाने के लिए कुछ नेता भटके हुए युवक कहा करते थे।
इसके बाद जमीयत उलेमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी ने गिरफ्तारियों को मुसलमानों से जोड़कर सवाल उठाए। उनके बयान का समर्थन कांग्रेस नेता उदित राज ने भी किया और सुरक्षा बलों की कार्रवाई को उत्पीड़न बताया।

एक तरफ हिंसक समूहों का गठजोड़ भारत की सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान को चुनौती दे रहा है और दूसरी तरफ कुछ नेताओं के बयान तुष्टीकरण की राजनीति को ही मजबूत करते हैं। ये बातें उनकी राजनीतिक रणनीति के लिए भले कारगर हों लेकिन ये राष्ट्रहित के खिलाफ ही मानी जाएंगी।