\

सैन्य संबल और राष्ट्र धर्म की आवाज़ : श्रीमद्भगवद्गीता

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र, JNU

श्रीमद्भगवद्गीता न केवल एक आध्यात्मिक ग्रन्थ है, बल्कि यह एक गूढ़ युद्ध शास्त्र भी है। यह ग्रन्थ केवल साधना, मोक्ष, और भक्ति की बातें नहीं करता, बल्कि यह हमें धर्म के लिए, राष्ट्र के लिए, और न्याय के लिए संगठित, सजग, और सक्रिय रूप से युद्ध के लिए तत्पर रहने की शिक्षा भी देता है। महाभारत का युद्ध कोई सामान्य युद्ध नहीं था, बल्कि यह धर्म और अधर्म के बीच का युद्ध था। इसी युद्धभूमि में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युद्ध हेतु प्रेरित किया, और वहीं श्रीमद्भगवद्गीता का उदय हुआ।

श्रीमद्भगवद्गीता: युद्ध प्रेरणा का स्रोत
गीता का आरम्भ ही युद्ध से होता है, जब अर्जुन अपने सगे-संबंधियों के सामने युद्ध करने से पीछे हटता है। उस समय भगवान श्रीकृष्ण उसे याद दिलाते हैं कि यह युद्ध केवल व्यक्तिगत स्वार्थ का नहीं, बल्कि धर्म की रक्षा का माध्यम है। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि पलायन नहीं, पराक्रम ही जीवन का मार्ग है।

प्रेरणादायक श्लोक :

धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते।
(भगवद्गीता 2.31)
“धर्म के लिए किए गए युद्ध से बढ़कर कोई कार्य क्षत्रिय(भारतीय सेना) के लिए नहीं है।”

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः॥
(भगवद्गीता 2.37)
“मरोगे तो स्वर्ग(सम्मान) मिलेगा, जीतोगे तो धरती पर राज्य मिलेगा; इसलिए हे अर्जुन(भारतीय सेना और सभी जन)! युद्ध के लिए संकल्प करके खड़े हो जाओ।”

युद्ध शास्त्र के तत्त्व गीता में:
धर्म युद्ध की आवश्यकता:
युद्ध तब आवश्यक हो जाता है जब अधर्म और आतंक विश्व समाज में व्याप्त हो। गीता हमें बताती है कि युद्ध तब पाप नहीं होता जब वह धर्म और न्याय की रक्षा हेतु लड़ा जाए।

नैतिकता और रणनीति:
गीता में युद्ध की नैतिकता, मनोबल, शौर्य और रणनीति को केंद्र में रखा गया है। अर्जुन का मनोबल गिरने पर कृष्ण उन्हें मनोवैज्ञानिक रूप से युद्ध के लिए सुदृढ़ और प्रेरित करते हैं।

निष्काम कर्म:
गीता युद्ध करते हुए फल की चिंता न करने की प्रेरणा देती है। एक योद्धा को निष्काम भाव से युद्ध करना चाहिए।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
(भगवद्गीता 2.47)
“स्वात्म की रक्षा और विश्व बंधुत्व कल्याण में ही तुम्हारा(भारतीय जनता और सेना का) कर्तव्य और अधिकार । केवल कर्म(आतंक के विरुद्ध युद्ध)करने में है, फल में नहीं।” क्योंकि बहुत सारे कार्य और युद्ध, स्वात्म की रक्षा, विश्व बंधुत्व हेतु कल्याण, राष्ट्र की रक्षा, ग्रंथों और शास्त्रों की रक्षा संस्कृति, सभ्यता, परंपरा की रक्षा तथा आने वाली पीढ़ी की रक्षा के लिए भी किया जाता है।

आधुनिक परिप्रेक्ष्य में गीता: सैन्य प्रेरणा
आज के भारत में, जहाँ देश को बाहरी और आंतरिक शत्रुओं से निरंतर संघर्ष करना पड़ता है, वहाँ श्रीमद्भगवद्गीता सैनिकों, देशभक्तों और नीतिनिर्माताओं के लिए एक अमूल्य युद्धशास्त्र है। जब भारतीय सैनिक ऑपरेशन “सिन्दूर” जैसे अभियानों में भाग लेते हैं, तब उनका प्रेरणास्त्रोत श्रीकृष्ण की वह वाणी है जो कहती है : युद्धाय कृतनिश्चयः “युद्ध का पक्का निश्चय करके खड़े हो जाओ।”

यह भारत के सैन्य बलों के लिए एक राष्ट्रीय, मानसिक, नैतिक और आध्यात्मिक संबल है।

गीता: विश्व बंधुत्व और युद्ध शास्त्र दोनों है:
गीता न केवल युद्ध की प्रेरणा देती है, बल्कि धर्म-संयमित युद्ध की शिक्षा भी देती है। इसमें अधर्म के विरुद्ध संघर्ष के साथ-साथ सर्वात्म भाव, करुणा, और आत्मबोध की भावना भी है। यही कारण है कि यह एक समग्र जीवन-दर्शन और प्रबुद्ध युद्ध शास्त्र दोनों है।

अंतिम प्रेरक श्लोक :
यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर:।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥ (भगवद्गीता 18.78)

“जिस राष्ट्र, संस्कृति, सभ्यता, परंपरा विश्व बंधुत्व और शास्त्रों में जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं और जहाँ धनुर्धारी अर्जुन हैं, वहाँ विजय, समृद्धि और नीति सदा विद्यमान रहती है। तथा ऑपरेशन सिन्दूर का सफल होना सुनिश्चित ही है।
श्रीमद्भगवद्गीता केवल मोक्ष का मार्ग नहीं दिखाती, वह वीरता, धर्म, नीति और युद्ध कौशल का अमृत ग्रंथ है। आज जब भारत को आतंकी ताकतों, वैचारिक प्रदूषण और बौद्धिक एवं राजनैतिक आतंकी इत्यादि आंतरिक विघटन से जूझना पड़ रहा है, तब गीता हमें प्रेरणा देती है — “धर्मस्थापनार्थ युद्ध करो, शत्रुनाशार्थ संग्राम करो, और सत्य की विजय हेतु सन्नद्ध रहो।” यही गीता का युद्ध शास्त्र स्वरूप है।