सड़क एवं मनुष्य का जीवन एक जैसा : मनकही
बस शब्द के चार पर्याय है बस ,वश ,बस और बस। यहां पहले बस का अर्थ पर्याप्त या काफी है से है जो संतुष्टि को दर्शाता है। दूसरे वश या अपभ्र।श में हम बस कहतें है जिसका अर्थ अपने अधीन रहने से है। तीसरा बस को वाहन के रूप से जानतें है एवं चौथे बस का अर्थ है बैठ, बसना = बैठना।
आइये अब हम बस आपको यात्रा करातें है। इसके आनन्द नजारा कुछ हट कर है। यायावरी स्वाभाव के लोगों में यात्रा के कष्टदायक क्षणों में भी आनन्द खोज लेने की अद्भुत क्षमता होती है, ऐसा गुण कम से कम मुझमें तो नही, मेरे एक दोस्त में है। बस में हमें एक सच्चे भारतीय होने का गर्व महसूस होता है, आखिर अनेकता में एकता के दर्शन जो होतें है।
चलिये एक-एक कर के बस में बैठे लोगों पर दृष्टिपात करते हैं, कुछ सीधे, शांत, सरल, कुछ अक्खड़, जाहिल कुछ मद मस्त। कुछ को देखकर मेरा धैर्य भी समाप्त हो जाता है, कब वे बस में बजने वाले कानफोड़ू गानों में भी कान में ईयर फोन लगाकर एक हाथ से टंगे, इधर-उधर डोलते हुए गाना सुनतें है। ऐसे में कुछ महान लोग जीवन भर की नींद बस में ही पूरा करतें है। विषम परिस्थिति में योगी सी एकाग्रता, क्या बात है।
एक बात जो बहुत महत्वपूर्ण है, भीड़ में बैठने का जुगाड़ बनाना, इसके लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती है तब कही सफलता मिलती है। बस के सफर के आनंद में सड़क का बहुत बड़ा योगदान होता है, गड्ढे, पत्थर, कीचड़ आपको ऊंट की सवारी का आनन्द तो देतें ही है साथ में ब्रेक डांस भी सिखा देतें हैं।
आइये अब बाहर झांकते है,प्राकृतिक सुंदरता ,मिट्टी की सोंधी खुशबु जो शांति और सुकून देती है उसे स्वयं महसूस किया जा सकता है। लेकिन यहां भी अपना बस नहीं चलता, बाहर की शुद्ध हवा का भी बस के अंदर दम घुटने लगता है। मुंह नाक ढांके अपनी मंजिल तक पहुंचना बहुत मुश्किल होता है।
ये तो कुछ भी नही जब गुटका ,तम्बाखू की तीव्र गंध और मुह से पिचकारी मारते थूकते हुए लोगों को देखो तो लगता है वो अपने को किसी हीरो से कम नही समझते। खिड़कियों से थूको की बौछार मारते हुए गर्व महसूस करते हैं, तब मन करता है कि उन्हें थूक सहित बाहर फेंक दो, पर ये तमन्ना भी करना बेकार है,सारा समाज इसी में डूबा है।
बस की पिछली सीट पर बैठी सवारी मटकटी बहुत है, ऐसा लगता है कि वह सवारी का आनंद ले रहा है, पर उसका दुखड़ा वही वही जान सकता है, यदि सहारा नही मिला पकड़ने का तो सर फुड़वाने और बत्तीसी तुड़वाने को तैयार रहिये। एक-दो फुट की ऊंचाई तो आप एक गड्ढे से बस गुजरने से नाप सकतें है।
बस की बात ही निराली है,जनाब आप एक बार सार्वजनिक बस में सफ़र तो करिये, मुकेश जी का गाया गाना भूल जाएंगे “सुहाना सफर और ये मौसम हंसी” बस की यात्रा में किसी का बस नही चलता,और आप कह उठते हो,” बस हो गया ,बस में सफ़र करना ,अपने बस की बात नही। बस की सड़क एवं मनुष्य के जीवन की राह एक जैसी है, दोनों को किसी भी परिस्थिति में मंजिल तक पहुंचना है।
आलेख
बहुत सुन्दर विश्लेषण
आपने बस में यात्रा करते हुए सबके मनोभाव को व्यक्त किया।बस मे चलने वालो की भावना ।बहुत अच्छा लिखा आपने,