बंद कमरे में 97 दिन जिंदा रहने की जंग: एक सच्ची कहानी
कल्पना कीजिए, आप एक बंद, अंधेरे कमरे में अकेले हैं। खाने को कुछ नहीं, पीने को सिर्फ गंदा पानी, बाहर से कोई आवाज नहीं आ रही और हर दिन एक जैसे डर और तिल-तिल कर मरने की पीड़ा में कट रहा है। शायद यह सुनकर ही सिहरन दौड़ जाए, लेकिन 28 वर्षीय पूर्णा ने इसे सिर्फ सहा नहीं, बल्कि जीवित रहकर इतिहास रच दिया।
यह कहानी है पूर्णा की, जिसने 97 दिन एक बंद कमरे में अकेले रहते हुए, भूख, प्यास, जानवरों, सड़ांध और डर का सामना किया – और ज़िंदा वापस लौटी।
कहानी की शुरुआत: एक परियों सी दुनिया के पीछे का अंधेरा
यह घटना साल 2008 की है। नेपाल के खूबसूरत शहर पोखरा में रहने वाली पूर्णा की शादी एक अमीर और नामी व्यापारी विक्रम से हुई थी। बाहर से देखने पर उनका जीवन आदर्श दिखता था – ऐशोआराम, प्यार, प्रतिष्ठा। लेकिन उस भव्य जीवन के पर्दे के पीछे एक खतरनाक रहस्य पल रहा था।
विक्रम का दूसरी औरत से संबंध था, और पूर्णा अब उसके लिए एक बोझ बन चुकी थी।
‘सरप्राइज़’ जो ज़िंदगी बदल देगा
एक दिन विक्रम ने पूर्णा को कहा कि वह उसे एक खास सरप्राइज़ देने शहर से बाहर ले जा रहा है। पूर्णा, जो अपने पति से बेहद प्यार करती थी, बिना सवाल किए तैयार हो गई।
लेकिन वह सफर एक सुनसान खंडहर में खत्म हुआ। जैसे ही वह सीलन भरे एक कमरे में दाखिल हुई, दरवाजा पीछे से बंद हो गया। पूर्णा को कैद कर दिया गया था।
घुप्प अंधेरे में बंद अकेली औरत
कमरे में कोई खिड़की नहीं थी, बस एक दरार से आती धुंधली रोशनी। दरवाजे पर लगा ताला उसकी आज़ादी का ताबूत बन गया था। उस कमरे में पड़ा था – एक छोटा सा आटे का पैकेट और आधी बोतल पानी।
वह पहले दिन चीखती रही, दरवाजा पीटती रही, लेकिन आवाजें वीराने में खो गईं।
भूख की राक्षसी मार और पहली लड़ाई
पहले कुछ दिन उस आटे को पानी में मिलाकर छोटी-छोटी गोलियां बनाकर वह खुद को जीवित रखती रही। लेकिन पांचवें दिन वह भी खत्म हो गया। भूख ने उसकी सोचने की शक्ति छीन ली थी।
फिर एक दिन, फर्श पर एक चूहा दौड़ता दिखा। उसने उसे पकड़ने का फैसला लिया – और खाया।
यह पहली बार था जब उसने अपने डर और घिन को भूख के सामने हरा दिया।
बारिश की बूंदें और जिंदगी का स्वाद
15वें दिन तेज़ बारिश हुई। उसने दीवार की दरार में एक टूटा हुआ बर्तन अड़ा दिया। जब उसमें पानी इकट्ठा हुआ, तो पूर्णा के चेहरे पर जो मुस्कान आई, वो शायद किसी जीवनदान से कम नहीं थी।
अब वो बारिश का पानी इकट्ठा करके खुद को जीवित रखने लगी।
सांप का सामना और योद्धा की नई परिभाषा
एक रात कमरे में एक सांप घुस आया। डर से चीखना स्वाभाविक था। लेकिन पूर्णा अब सिर्फ एक आम औरत नहीं थी – वह एक योद्धा बन चुकी थी।
उसने भारी पत्थर उठाया और सांप को मार गिराया। फिर, उसे भी पका कर खा लिया।
समय का धीमा जहर: 60 से 90 दिन
वह धीरे-धीरे जीने का तरीका सीख रही थी – चूहे, कीड़े, बारिश का पानी और अंधेरे से दोस्ती। उसने उम्मीद लगभग खो दी थी। उसका शरीर हड्डियों का ढांचा बन चुका था। 90वें दिन उसे एक चूहा पकड़ते समय चोट लगी – घाव से खून बहा, पर उसने हार नहीं मानी।
हर सांस उसके इरादे की मिसाल बनती जा रही थी।
97वें दिन की सुबह: एक चमत्कार
96वें दिन वह बेहोशी और होश के बीच झूल रही थी, जब उसे भेड़ों की घंटियों की आवाज सुनाई दी। यह उसकी जिंदगी की आखिरी लड़ाई थी – उसने अपनी पूरी ताकत से मदद के लिए आवाज़ लगाई।
97वें दिन, पास के गांव का एक चरवाहा उस खंडहर से गुजर रहा था। उसे आवाज सुनाई दी। उसने दरवाजा तोड़ा – और अंदर एक हड्डियों का ढांचा, लेकिन जिंदा इंसान पड़ा था।
बचाव और इंसाफ
पूर्णा को अस्पताल ले जाया गया। डॉक्टरों के मुताबिक, उसका जिंदा रहना एक चमत्कार था। उसके शरीर के कई अंग बंद होने की कगार पर थे।
दीवारों पर 96 खरोचों के निशान थे – हर एक दिन की गिनती का सबूत।
उसकी गवाही के बाद विक्रम को गिरफ्तार किया गया और अदालत ने उसे उम्र कैद की सजा सुनाई।
एक नई शुरुआत
महीनों के इलाज और काउंसलिंग के बाद पूर्णा धीरे-धीरे सामान्य जीवन में लौटी। लेकिन वह अब पहले जैसी नहीं रही – वह अब लाखों लोगों के लिए प्रेरणा बन चुकी थी।
उसने अपने अनुभव को एक किताब में दर्ज किया और कई मंचों से लोगों को प्रेरित किया कि:
“जब तक सांस चल रही है, तब तक उम्मीद बाकी है।”
पूर्णा की कहानी एक सजीव प्रमाण है कि इंसान तब तक नहीं हारता जब तक वह खुद हार नहीं मानता। 97 दिनों का अंधकार, भूख, डर और अकेलापन – सब मिलकर भी उसकी हिम्मत को नहीं तोड़ पाए।
अगर आप कभी ज़िंदगी से हार मानने का सोचें, तो पूर्णा की कहानी को याद कीजिए।