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क्या आप जानते हैं कि रुपसूत्र किस विषय का ग्रंथ था

श्रीकृष्ण “जुगनू”

प्राचीन काल में जबकि अलग- अलग इलाकों में अलग-अलग सिक्कों का व्यवहार था, तब सिक्कों के मानक रूप, उनके ऊपर अंकित चिह्नों के अभिप्राय, उनके प्रचलन इलाकों और उन इलाकों की भौगोलिक स्थिति की जानकारी देने वाला एक ग्रंथ था : रूपसूत्र। आज यह ग्रंथ हम खो चुके हैं और इसकी जानकारी तक हमें नहीं होती यदि बुद्धघोष इसका उल्लेख नहीं करता।

‘रूप’ शब्द का प्रयोग मूर्ति के अर्थ में मध्यकाल में मिलता है क्योंकि सूत्रधार मंडन ने 1450 ईस्वी में ‘रूपमंडन’ और सूत्रधार नाथा ने 1480 में “रूपाधिकार” नाम से मूर्तिकला पर ग्रंथ रचे। (वास्तुमंजरी : नाथाकृत, संपादक श्रीकृष्ण जुगनू) हालांकि अष्टाध्यायी में पाणिनि ने रूप शब्द का प्रयोग बताया है ( 5, 2, 120) तथा उससे बने ‘रूप्य’ शब्द का अभिप्राय ‘सुंदर’ एवं ‘आहत’ यानी मुहर युक्त बताया है।

यही शब्द बाद में सिक्के के लिए चलन में आया क्योंकि अर्थशास्त्र ने रूप का अर्थ सिक्का ही लिया है और न केवल चांदी बल्कि तांबे के सिक्के के लिए भी यही प्रयोग किया है – ‘रूप्यारूप’ एवं ‘ताम्ररूप’। पतंजलि ने ‘रूपतके’ शब्द का प्रयोग पाणिनि के एक सूत्र (1, 4, 52) के वार्त्तिक के प्रसंग में किया है जो कार्षापणों की जांच करता था। चाणक्य ने इस पदाधिकारी के लिए ‘रूपदर्शक’ शब्द का प्रयोग किया है।

प्राचीन काल में सिक्कों के ढालने व चलाने के लिए प्राविधिक मुद्राशास्त्र था जिसकी ओर संकेत लेखक बुद्धघोष ने अपनी “समंतपासादिका” में किया है। तब अजातशत्रु या बिंबिसार के 20 माषक का कार्षापणों का चलन था और उसे नीलकाहापण नाम बुद्धघोष ने दिया था। उस समय सिक्कों के निरीक्षण का काम बड़ी जिम्मेदारी से किया जाता था। ऐ

से दायित्वबोध की चर्चा के साथ ही कौटिल्य ने ‘लक्षणाध्यक्ष’ नामक टकसाल के अधिकारी का उल्लेख किया है। उसके साथ जांच का काम ‘रूपदर्शक’ करता था। वह जांचकर बार बार सिक्कों पर मुहर लगाता जाता था। एेसी लगभग एक दर्जन मुहरों वाले सिक्के अब तक मिल चुके हैं और अधिक संख्या वाले घिस-पिट चुके हैं।

इस सिक्कों पर लगाये गए प्रतीकों और चिह्नों का पूरा अर्थ होता था जिसे आज अनुमान से ही जाना गया है जबकि बुद्धघोष का कहना है कि “रूपसूत्र” में इसका विवरण मिल जाता था। इस ग्रंथ का अभ्यासी “हेरञ्जक” कहलाता था और वह चित्र-विचित्र सिक्के देखकर निम्न बातें कह सकता था :

1. कोई सिक्का किस गांव, निगम या राजधानी है ?
2. सिक्का किस टकसाल में ढाला गया है ?
3. उसका मूल्य व धातु क्या-क्या है ?

यही नहीं, हेरञ्जक यह भी बता सकता था कि सिक्कों वाला गांव, निगम आदि किस दिशा, पहाड़ी के शिखर या नदी के तट पर मौजूद है। ( Bhudhhistic studies p. 432)

है न रोचक किताब की बात। यह पुस्तक कीमती इसलिये थी कि उसके अभ्यास से सिक्कों की पहचान करते-करते आंखें खोने का भय नहीं रहता था। इसीलिये सर्राफ लोग भी उसका अभ्यास करते थे। क्या यह ग्रंथ तक्षशिला और नालंदा जैसे विश्व विद्यालयों में पढ़ाया जाता था ?

मुझे तो मालूम नहीं मगर यह ग्रंथ एक आवश्यकता थी, यह एक प्रमाण की उपज था और इसी आवश्यता ने बाद में मुद्राशास्त्र को जन्म दिया लेकिन क्या हम वह “रूपसूत्र” लौटा सके ? आप इस कुंजी के बारे क्या जानते हैं, जरूर बताइयेगा।

 

संस्कृति विशेषज्ञ लेखक उदयपुर राज्स्थान के निवासी हैं। 

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