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मांगलिक अवसरों पर गृह अलंकरण की प्राचीन परम्परा

पर्वों पर घर को सजाने दायित्व बेटियों पर होता है, बेटियाँ मनोयोग से उपलब्ध सामग्री से घर को सजाती हैं। दीप पर्व पांच दिनों का मनाया जाता है। हमारे घर के मुख्य द्वार बड़ी रंगोली बनाई जाती है, जिसे सधे हुए हाथों से कुशलता से बनाया जाता है। मेरी बेटियाँ श्रेया, श्रुति धनतेरस से ही रंगोली बनाना प्रारंभ कर देती थी। रंगोली दीपावली की साज सज्जा का प्रमुख आकर्षण होता है, वैसे द्वार सज्जा के लिए पत्र पुष्पों का भी प्रयोग करने प्राचीन परम्परा रही है। जिसका प्रयोग हम आज भी आम की तोरण/बंदनवार रुप में परम्परा से करते आ रहे हैं।

रंगोली, अल्पना, मांडणा एवं चौक पूरने का हिन्दू पर्वो पर अपना ही महत्व है। इस अलंकरण कला का भारत के अलग अलग प्रांतों में अलग अलग नाम है। छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश में चौक पूरना, राजस्थान में मांडणा, बिहार में अरिपन, बंगाल में अल्पना, महाराष्ट्र में रंगोली, कर्नाटक में रंगवल्ली, तमिलनाडु में कोल्लम, उत्तरांचल में ऐपण, आंध्र प्रदेश में मुग्गु या मुग्गुलु, हिमाचल प्रदेश में ‘अदूपना’, कुमाऊँ में लिखथाप या थापा, तो केरल में कोलम।

इन सभी रंगोलियों में अनेक विभिन्नताएँ भी हैं। महाराष्ट्र में लोग अपने घरों के दरवाजे पर सुबह के समय रंगोली इसलिए बनाते हैं, ताकि घर में कोई बुरी ताकत प्रवेश न कर सके। भारत के दक्षिण किनारे पर बसे केरल में ओणम के अवसर पर रंगोली सजाने के लिए फूलों का इस्तेमाल किया जाता है।

दक्षिण भारतीय प्रांत- तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक के ‘कोलम’ में कुछ अंतर तो होता है परंतु इनकी मूल बातें यथावत होती हैं। मूल्यतः ये ज्यामितीय और सममितीय आकारों में सजाई जाती हैं। इसके लिए चावल के आटे या घोल का इस्तेमाल किया जाता है। चावल के आटे के इस्तेमाल के पीछे इसका सफेद रंग होना व आसानी से उपलब्धता है। सूखे चावल के आटे को अँगूठे व तर्जनी के बीच रखकर एक निश्चित साँचे में गिराया जाता है।

राजस्थान का मांडणा जो मंडण शब्द से लिया गया है का अर्थ सज्जा है। मांडणे को विभिन्न पर्वों, मुख्य उत्सवों तथा ॠतुओं के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है। इसे आकृतियों के विभिन्न आकार के आधार पर भी बाँटा जा सकता है। इसे दीवारों और आंगनों में गोबर और मिट्टी के मिश्रण से बनाया जाता है। मांडणा के डिज़ाइन में पशु, पक्षी, पौधे, और धार्मिक आकृतियाँ देखने को मिलती हैं।

कुमाऊँ के ‘लिख थाप’ या थापा में अनेक प्रकार के आलेखन प्रतीकों, कलात्मक डिजाइनों, बेलबूटों का प्रयोग किया जाता है। लिखथाप में समाज के अलग-अलग वर्गों द्वारा अलग-अलग चिह्नों और कला माध्यमों का प्रयोग किया जाता है।

छत्तीसगढ़ में पर्वों के अवसरों पर चौक पूरा जाता है, जो सफ़ेद छूही और चावल के आटे से बनाया जाता है। पूरने का अर्थ यहाँ पर पूर्णता से है। किसी भी मंगल कार्य की पूर्णता की कामना से इसका निर्माण किया जाता है। भिन्न भिन्न अवसरों पर भिन्न भिन्न आकार ज्यामितीय आकृतियाँ उकेरी जाती है। यह लोक की प्राचीन परम्परा है। तीस चालिस वर्षों में यहाँ दीपावली पर महाराष्ट्रीयन परम्परा की विभिन्न रंगों से सुसज्जित रंगोली बनाई जाने लगी है तथा इस का प्रसार ग्रामीण अंचल में भी दिखाई देने लगा है। लेकिन मांगलिक अवसरों पर परम्परागत चौक पूरना ही होता है।

वर्तमान में रंगीन रेत से रंगोली का निर्माण होता है, वैदिक काल से लेकर वर्तमान तक चौक पूरने के विषयों मे परिवर्तन हुआ है, परन्तु हर्ष एवं उल्लास के प्रदर्शन में कोई परिवर्तन नहीं। आमतौर पर दक्षिण भारतीय रंगोली ज्यामितीय आकारों पर आधारित होती है जबकि उत्तर भारत की शुभ चिह्नों पर। सारा जगत लक्ष्मी जी को रिझाने के लिए स्वागत में लगा है, हम भी लगे हैं, सभी को दीपावली की शुभकामनाएँ।

One thought on “मांगलिक अवसरों पर गृह अलंकरण की प्राचीन परम्परा

  • October 30, 2024 at 13:48
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    दीप पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं भईया
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