माँ दुर्गा के नौ स्वरूप और उनका आध्यात्मिक महत्व

विक्रम संवत के प्रथम दिवस अर्थात चैत्र मास के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से नवमीं तिथि तक मनाये जाने वाला हिंदुओं का प्रमुख पर्व नवरात्र है। इसे बासन्तीय नवरात्र के नाम से भी जाना जाता है। भगवत पुराण के अनुसार चार नवरात्र शारदीय और चैत्र नवरात्र एवं दो गुप्त नवरात्र होते हैं। नवरात्र में जगत जननी माँ भगवती दुर्गा के नौ रूपों की सिद्धि व साधना, आध्यात्मिक, मानसिक, शक्ति के लिए व्रत, संयम, नियम, यज्ञ, भज-कीर्तन द्वारा उपासना की जाती है।
नवरात्र में देवी पूजन से मन के विकारों काम, क्रोध, मोह, लोभ जैसी बुराईयों का नाश होता है। अन्तःकरण शुद्ध होता है। श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार देवासुर संग्राम के वर्णन में दुर्गा उत्पत्ति के रूप में मिलता है। जब समस्त देवताओं की शक्तियों का संग्रह आसुरी शक्तियों से देवत्व को बचाने के लिए हुआ था। अतः शक्ति की आराधना माँ दुर्गा की उपासना के रूप में आदिकाल से चली आ रही है।
माँ दुर्गा की उत्पत्ति पौराणिक मान्यताओं के अनुसार असुरों के राजा रंभ के पुत्र महिषासुर के वध से जुड़ी है। महिषासुर ने कठोर तपस्या करके ब्रह्मा जी से अमरत्व का वरदान मंगा किन्तु ब्रह्मा जी मृत्यु को अटल सत्य बताते हुए इस वरदान के अतिरिक्त अन्य वर मांगने को कहा तब उसने इच्छानुसार विकराल भैसे के रूप को धारण करने और देव-दानव, मनुष्य किसी से पराजित न होने का वरदान माँगा। महिषासुर का आतंक धरती से स्वर्ग तक फैल गया सभी देवी-देवताओं ने ब्रह्मा, विष्णु, महेश से इस असुर से रक्षा करने की प्रार्थना की, तीनों देवताओं ने शक्ति आह्वान किया।
भगवान शिव व विष्णु के क्रोध से एवं अन्य देवताओं के मुख से तेज स्वरूपा आदि शक्ति माँ दुर्गा को प्रकट किया। जिसे शिवजी ने त्रिशूल, विष्णु जी ने चक्र, ब्रह्मा जी ने कमल फूल, वायुदेवता ने नाक-कान, पर्वतराज ने वस्त्र व शेर यमराज के तेज से माँ के केश, सूर्य से पैरों की अंगुलियाँ, प्रजापति से दाँत और अग्निदेव से आँखें मिलीं। सभी देवताओं ने अपने अस्त्र शस्त्र एवं आभूषण दिए। इसप्रकार देवताओं के तेज से जो देवी प्रकट हुई वह तीनों लोकों में अजेय-दुर्गम बनी। युद्ध में भंयकर व दुर्गम होने के कारण इनका नाम दुर्गा पड़ा। माँ दुर्गा का महिषासुर के साथ नौ दिनों तक युद्ध हुआ और माँ दुर्गा ने महिषासुर का वध किया, तभी से चैत्र नवरात्रि मनाया जाने लगा। चैत्र नवरात्र की नवमीं तिथि को श्री राम का जन्म हुआ था ।जिसे रामनवमीं के रूप में मनाया जाता है।
चैत्र मास की प्रतिपदा से नवमीं तिथि तक माँ दुर्गा ने नौ स्वरूप धारण किए। प्रत्येक दिन माँ के इन्हीं स्वरुपों की पूजा की जाने से अलग अलग फलों की प्राप्ति होती है। माँ दुर्गा के नौ स्वरूप दुर्गा सप्तशती में वर्णित देवी कवच श्लोक के अनुसार देवी के नौ नाम इसप्रकार हैं—
“प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीय ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति. चतुर्थकम्।।
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति.महागौरीति चाष्टमम्।।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना:।।”
1. शैलपुत्री — माता शैलपुत्री को स्त्री के बालरूप का प्रतीक माना गया है।शैल अर्थात पिता हिमालय राज
के नाम से जानी जाती हैं।जिसप्रकार कन्या रूप में स्त्री अपने पिता के नाम से जानी जाती है।इनकी दो भुजाएं जिसमें दाहिने हाथ में त्रिशूल,बाएं में कमल पुष्प, मस्तक पर अर्धचन्द्र और नन्दी बैल पर सवार के रूप में दर्शाया गया है।
2. ब्रह्मचारिणी — यह रूप पुत्री के ब्रह्मचर्य काल को दर्शाता है।ये शिक्षा-ज्ञान अर्जन करने वाली बालिका के रूप का प्रतीक होती हैं।जो दाहिने हाथ में सूखे रुद्राक्ष की माला तथा बाएं में कमण्डल धारण किए तपस्विनी रूप में दर्शायी गईं हैं।
3. चन्द्रघण्टा — माता का यह स्वरूप शिक्षित व ज्ञान से परिपूर्ण स्त्री या बालिका का प्रतीक है।दस भुजाएं यह दर्शाती है स्त्री अब अपने ज्ञान से समाज में स्थिरता व विकास के लिए तैयार है।इनकी तीसरी आँख खुली दिखाई जाती है। माता के हाथों में त्रिशूल, गदा,धनुष बाण,खड्ग, कमल,और कमंडल है।इनका एक हाथ सदैवअभयमुद्रा में रहता है।मस्तक पर घण्टी के आकार का अर्धचंद्र है इसकारण इनका नाम चन्द्रघण्टा पड़ा।
4. कुष्मांडा — माता के हाथ में एक घड़ा होता है जो गर्भ का प्रतीक माना जाता है।अतः यह रूप गर्भवती स्त्री का प्रतीक है कु,ऊष्मा और अंडा में कु का अर्थ थोड़ा,ऊष्म का अर्थ गर्मी या ऊर्जा,अंडा का अर्थ ब्रह्मांडीय अंडा है ।अष्टभुजाओं वाली सिंह पर सवारी करने वाली कुष्मांडा को ब्रह्मांड की रचना करने का श्रेय दिया जाता है।
5. स्कंदमाता — माता का यह स्वरूप स्त्री के मातृरूप को दर्शाता है।इनकी गोद में कार्तिकेय शिशु रूप में विराजमान हैं।कार्तिकेय को स्कंद के नाम से भी जाना जाता है।इनकी चार भुजाओं में दो में कमल और
एक में कार्तिकेय और दूसरा हाथ आशीर्वाद मुद्रा में है।
6. कात्यायिनी—ऋषि कात्यायन ने देवी दुर्गा की तपस्या कर उन्हें वरदान स्वरूप पुत्री रूप में प्राप्त किया इसलिए इनका नाम कात्यायिनी पड़ा।सिंह पर सवार देवी की अठारह भुजाएं हैं।जिनमें देवताओं द्वारा दिए गए विभिन्न शस्त्र हैं।जिस प्रकार मां अपनी संतान को समस्त बुराइयों से दूर रखती है,ताकि अवगुण उसमें प्रवेश न करे।इसीलिए माँ को बुराइयों के शमन हेतु इन्हें योद्धा रूप में दर्शाया गया है।
7. कालरात्रि — माता का उग्र और शक्तिशाली स्वरूप स्त्री के पारिवारिक जीवन संघर्षों, अज्ञान और अंधकार पर विजय को दर्शाता है।ये गधे पर सवार और चार भुजाओं वाली हैं।इनकी दो भुजा में तलवार और वज्र है। दो भुजाएं आशीर्वाद व सुरक्षा मुद्रा में है।इन्हें काली के नाम से भी जाना जाता है।पति की अकारण मृत्यु को जीतने वाली माँ कालरात्रि हैं।
8 महागौरी — जीवन के संघर्षों पर विजय प्राप्त कर स्त्री परिवार को संपन्नता की ओर ले जाती है।अतः यह रूप स्त्री की परिपक्वता और स्थिरता को दर्शाता है।इसीकारण अष्टमी पूजा का विशेष महत्व है।ये चार भुजाओं वाली देवी हैं। इनकी एक भुजा में त्रिशूल,
दूसरी में डमरू एवं अन्य दो भुजाएं आशीर्वाद देने और भय दूर करने के लिए हैं।इसे वरद या अभय मुद्रा भी कहते हैं।महागौरी माँ संसार का उपकार करने वाली हैं।
9. सिद्धिदात्री — सर्वसिद्धि प्रदान करनेवाली वृद्ध और ज्ञानमय स्वरूप यह दर्शाता है कि स्त्री अपने अनुभव और समझदारी से परिवार एवं समाज का कल्याण कर संस्कारवान नई पीढ़ी तैयार करती है।इन्हें कमल पर विराजमान चार भुजाओं वाली स्त्री के रूप में दर्शाया गया है। जिन्होंने अपने हाथों में कमल, शंख, गदा, चक्र धारण किए हुए हैं। जो सर्वोच्च महाशक्ति की देवी हैं। जिन्होंने ब्रह्मांड का निर्माण किया तथा शिव जी ने सिद्धिदात्री की प्रार्थना कर सभी सिद्धियां प्राप्त की।
इस प्रकार नवदुर्गा के नौ स्वरूप,धरती पर स्त्री के जीवन के नौ प्रतिबिंब है।नवरात्रि में प्रतिपदा तिथि को उत्तम मुहूर्त में समस्त देवी- देवता, तीर्थस्थल एवं नदियों के प्रतीक स्वरूप कलश की स्थापना के साथ उनका आह्वान कर उन्हें आसन और अर्ध्य दिया जाता है । किसी भी मंगल कार्य को कलश स्थापना के साथ शुरू करने से सुख-समृद्धि, धन-धान्य में वृद्धि होती है।शेष दिन षोडशोपचार से पूजन किया जाता है।अखण्ड दीप प्रज्ज्वलित की जाती है।जौ बोया जाता है।शास्त्रों के अनुसार जौ को सृष्टि की पहली फसल माना जाता है। मान्यता है कि कलश के नीचे जौ बोने से सुख,समृद्धि, सौभाग्य में वृद्धि होती है।
नवरात्र में अष्टमी तिथि को 9 वर्ष की कन्याओं को देवी स्वरूप मानकर उनकी विधिवत पूजा कर भोजन कराया जाता है तथा यथाशक्तिदक्षिणा दी जाती है।साथ ही एक बालक को लँगूर स्वरूप मानकर उसे भी कन्याओं के साथ बैठाया जाता है।भगवत पुराण के अनुसार माता रानी जप,तप,ध्यान, होम के साथ कन्या पूजन से भी प्रसन्न हो सुख,समृद्धि, सौभाग्य का आशीर्वाद देती हैं।
नवदुर्गा की साधना से आध्यत्मिक विचार,व्यवहारिक रूप में परिणित होती है। इनकी साधनासे हमारे अन्नमय कोश, मनोमय कोश, प्राणमय कोश, विज्ञानमय कोश एवं आनन्दमय कोश उपचारित होकर ऊर्जा वान बनाते हैं।माँ की साधना से ही इन पाँचकोषों का संवर्द्धन होता है।माँ का सानिध्य प्राप्त होता है तथा माँ अपनी सन्तान को अभयदान देती है।
“ सर्वबाधा विर्निमुक्तो धन धान्य सुतान्वित:
मनुष्यों मत्प्रसादेन भविष्यति न संशय:।।”
अर्थात जो कोई आपको प्रणाम करेगा उसका भविष्य सभी बाधाओं से मुक्त होगा और धन,भोजन,और सन्तान से समृद्ध होगा।
माँ भगवती जगत जननी दुर्गा जो अपरा,प्रकृति हैं।जबकि चेतना उनकी ही ऊर्जा से संचरित होती है वे ममता की पराकाष्ठा हैं ।तेज,दीप्ति, दुति, चेतना,कांति और जीवनदायिनी ऊर्जा का समन्वित रूप और आध्यात्मिक चेतना का पर्व नवरात्र है।
ज्योतिषीय महत्व— भगवत पुराण के अनुसार 4नवरात्र मनाए जाते हैं।हिन्दू नवसंवत्सर का प्रारंभ चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से होता है।हिन्दू पंचांग के अनुसार चैत्र नवरात्र से नववर्ष की गणना प्रारंभ होती है इसी दिन से वर्ष के राजा,मंत्री,सेनापति, वर्ष,कृषि के स्वामी ग्रह का निर्धारण होता है और अन्न,धन,व्यापार, सुख-शांति के उद्देश्य से आंकलन किया जाता है।देवी देवता,नवग्रहों की पूजा-अर्चना की जाती है।
धार्मिक महत्व—– समस्त सृष्टि का संचालन करने वाली आदिशक्ति जो भोग व मोक्ष देती हैं वे धरती पर रहती हैं ,इसलिए इनकी आराधना से इच्छित फल की प्राप्ति होती है।चैत्र नवरात्र के पहले दिन आदिशक्ति प्रकट हुईं और देवी के कहने पर ब्रह्मा जी ने सृष्टि निर्माण का कार्य प्रारंभ किया।चैत्र नवरात्र के तीसरे दिन भगवान विष्णु ने मत्स्य रूप में प्रथम अवतार लेकर पृथ्वी की स्थापना की।इसके बाद सातवां अवतार चैत्र शुक्ल पक्ष की नवमीं को लिया।
आध्यात्मिक महत्व—–चिंतन- मनन,साधना ,योग से आध्यात्मिक उन्नति के लिए नवरात्रि विशेष फलदायी होती है
वैज्ञानिक महत्व—–नवरात्रि दो ऋतुओं के सन्धिकाल के समय मनाई जाती है ।इस समय व्रत,पूजा-पाठ,स्वच्छता पर विशेष ध्यान दिया जाता है जिससे शरीर का शुद्धिकरण होता है।व्रत करने से शरीर का विषाक्त पदार्थ निकल जाता है।जिससे शरीर निरोगी और स्वस्थ रहता है।ध्यान,योग,तप भक्ति की साधना ,संयम से मानसिक शांति मिलती है। सकारात्मक ऊर्जा बढ़ती है।तामसी वस्तुओं का त्याग,खान- पान में शुद्धता से शरीर तनाव मुक्त होता है।मौसम के संक्रमण से रक्षा होती है।
चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से हिन्दू नववर्ष या नव संवत्सर का आरंभ होता है ।जिसे भारत के विभिन्न राज्यों में जैसे महाराष्ट्र में गुड़ीपड़वा, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, और कर्नाटक में उगादि, जम्मू कश्मीर में नवरेह तथा मणिपुर में साजिबु नोंगमा पंबा के नाम से जाना जाता है।
लेखिका हिन्दी व्याख्याता एवं साहित्यकार हैं।
जय माँ दुर्गे🙏🙏🙏