नर्तन ही कीर्तन है : मनकही

प्रकृति संगीतमय है तथा नृत्य प्रकृति का मूल तत्व है। प्रकृति के साथ चराचर जगत के जीव आनंद के साथ विभोर होकर नृत्य करते हैं। आपने देखा होगा चिड़ियों को नृत्य करते, गाय के बछड़ों, हिरणी के छौनों को कुलांचे भरते हुए, यहाँ तक नाग भी मस्ती में आकर झूमने लगता है क्यों? क्योंकि प्रकृति ही लास्यमय है। मनुष्य भी जब मौज में आ जाता है तो प्रकृति के साथ ताल से ताल मिलाकर नर्तन करने लगता है, क्योंकि यही मूल तत्व उसके भीतर भी होता है।

जीवन की आपा-धापी में मनुष्य जीवन को रंगों से भरना चाहता है, जीवन को अगर उत्साह के रगों से भरना है तो कदमों का थिरकना जैसे परर्मश्वर को पाना है। नृत्य का जन्म मनुष्य के जन्म के साथ ही होता है, बच्चा जन्म लेते ही हाथ पैर चलाने लगता है, यह उसका प्रथम नर्तन होता है।

नृत्य जीवन को नया रूप प्रदान करता है, इससे शरीर तो स्वस्थ्य होता ही है साथ ही मन भी पवित्र होता है। नृत्य केवल मनोरंजन का ही साधन नही ये आत्मज्ञान भी है साधना भी है, लोकमंगल की पवित्र कामना भी है। जब मनुष्य प्रसन्नचित्त होता है, तभी लोकमंगल का भी चिंतन करता है।

वर्तमान समय मे लोग कहीं ना कहीं तनाव से घिरे रहते हैं, जिसके कारण धीरे-धीरे रोग के शिकार हो जाते है। सगींत नृत्य ऐसी दवा है, जो मनुष्य के चेतना में तनाव को बैठने ही नही देता। कोई भी परेशानी हो नृत्य करते समय बस नृत्य ही ध्यान रहेता है परेशानिया तिरोहित हो जाती है।

प्राचीन काल में नृत्य के जरिए असुरों का वध करवाया जाता था, विष्णू भगवान ने मेनका का रूप धारण करके नृत्य करके अमृत को राक्षसों से बचाया था। शास्त्रों के कथानक में स्वर्ग में अप्सराओं के नृत्य का उल्लेख है। भगवान शंकर तो नृत्य के जन्मदाता ही है, नटराज कहे जाते हैं। और तो और गणेश जी भी नृत्य करते हैं, उनकी नृत्य प्रतिमा मंदिरों की भित्तियों में मिलती है।

कहा जाता है अगर भगवान शंकर को खुश करना है तो उनके सामने तांडव कर दो, भोलेनाथ खुश हो जाते है और अगर भगवान खुश होते है तो लास्य तांडव करते है। भगवान कृष्ण जी की रासलीला तो सबके मन को मोह लेती है। नृत्य अपनी संस्कृति है धरोहर है जो प्राचीन समय से चली आ रही है। नृत्य ईश्वर की आराधना है, इसलिए कहा गया है नर्तन ही कीर्तन है।

 

आलेख

श्रीमती ममता पाठक
कत्थक, भरतनाट्यम शिक्षिका
नरसिंहपुर, मध्य प्रदेश