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जहाँ भगवान नरसिंह की माता खम्भेश्वरी देवी के रुप में पूजी जाती है : नृसिंह जयंती विशेष आलेख

आज नृसिंह जयंती है। भगवान नरसिंह की माता को छत्तीसगढ़ में लोकदेवियों में स्थान मिला है। एक जनजति इसे अपनी कुल देवी के रुप में पूजती है। इस देवी का नाम खम्भेश्वरी देबी है। भगवान नृसिंह का प्रकट याने जन्म खम्भे से हुआ इसलिए खम्भे जो माता एवं उसका गर्भ माना गया, इसलिए खम्भा याने स्तंभ खम्भेश्वरी के रुप में आज भी पूजित है। छत्तीसगढ़ के एक थाने में खम्भेश्वरी देवी स्तंभ के रुप में विराजित है। थाने का नया भवन बनने के बाद वे पुराने खम्भे यथावत हैं और सत्तत पूजित हैं।

पद्म और स्कंद पुराण के मुताबिक वैशाख महीने के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी पर भगवान नरसिंह प्रकट हुए थे। नृसिंह अवतार सतयुग के चौथे चरण में हुआ था। ये भगवान विष्णु के रौद्र रूप का अवतार है। भगवान विष्णु अपने भक्त प्रहलाद को दैत्य हिरण्यकश्यप से बचाने के लिए खम्भे स्तंभ से इस रूप में प्रकट हुए।

मान्यता है कि सिकलीगढ़ स्थित किले में भक्त प्रहलाद की रक्षा के लिए जिस खम्भे से भगवान विष्णु का नृसिंह अवतार हुआ था। वह खम्भा आज भी वहां मौजूद है, जिसे माणिक्य स्तम्भ कहा जाता है। कहा जाता है कि इस स्तम्भ को कई बार तोडऩे का प्रयास किया गया, लेकिन वह झुक तो गया लेकिन टूटा नहीं। यह स्तंभ बिहार के पूर्णिया जिले के बनमखनी प्रखण्ड के सिकलीगढ़ में स्थित है।
पौराणिक कथाओं के अनुसार नरसिंह रूप भगवान विष्णु का रौद्र अवतार है। ये दस अवतारों में चौथा है। नरसिंह नाम के ही अनुसार इस अवतार में भगवान का रूप आधा नर यानी मनुष्य का है और आधा शरीर सिंह यानी शेर का है। राक्षस हिरण्यकश्यप ने भगवान की तपस्या कर के चतुराई से वरदान मांगा था। जिसके अनुसार उसे कोई दिन में या रात में, मनुष्य, पशु, पक्षी कोई भी न मार सके। पानी, हवा या धरती पर, किसी भी शस्त्र से उसकी मृत्यु न हो सके।

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इन सब बातों को ध्यान में रख भगवान ने आधे नर और आधे मनुष्य का रूप लिया। दिन और रात के बीच यानी संध्या के समय, हवा और धरती के बीच यानी अपनी गोद में लेटाकर बिना शस्त्र के उपयोग से यानी अपने ही नाखूनों से हिरण्यकश्यप को मारा।

स्तंभ रुपी गर्भ से भगवान नृसिंह का जन्म (अहोबिलम, आंध्र प्रदेश)

कथा के मुताबिक दैत्य हिरण्यकश्यप का बेटा प्रहलाद भगवान विष्णु का भक्त था, इसलिए प्रहलाद पर अत्याचार होते थे। कई बार मारने की कोशिश भी की गई। भगवान विष्णु अपने भक्त को बचाने के लिए खंबे से नरसिंह रूप में प्रकट हुए। इनका आधा शरीर सिंह का और आधा इंसान का था। इसके बाद भगवान नरसिंह ने हिरण्यकश्यप को मार दिया।

ये अवतार बताता है कि जब पाप बढ़ता है तो उसको खत्म करने के लिए शक्ति के साथ ज्ञान भी जरूर होता है। ज्ञान और शक्ति पाने के लिए भगवान नरसिंह की पूजा की जाती है। इस बात का ध्यान रखते हुए ही उन्हें पवित्रता और ठंडक के लिए चंदन चढ़ाते हैं।

भारत के प्राचीन इतिहास के अध्ययन से ज्ञात होता है कि राजे-रजवाड़ों एवं जमीदारियों में शक्ति की उपासना की जाती थी और वर्तमान में भी की जाती है। शक्ति की उपासना से राजा शत्रुओं पर विजय के लिए शक्ति प्राप्त करता था। वह शक्ति को चराचर जगत में एक ही है पर वह भिन्न-भिन्न नामों से जानी जाती है।

लोक स्थित ऐसी ही एक शक्ति की देवी हैं खम्भेश्वरी माता, जो छत्तीसगढ़ के भैना राजाओं की कुल देवी एवं सर्वजनों की आराध्य हैं। छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले के बसना तहसील से पदमपुर रोड पर 10 कि मी की दूरी मे स्थित गढ़फ़ूलझर कौडिया-राज कहलाता है। जिसका विस्तार कोमाखान से सोनाखान तक रहा है।

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यहाँ भैना राजा का गढ़ वर्तमान मे खंडहर रुप मे विद्यमान है। यहां पर फ़ूलझर राज के भैना राजाओं की कुलदेवी खम्भेश्वरी पाटनेश्वरी और समलेश्वरी देवी की स्थापना गढ़ के अंदर एक विशालकाय इमली वृक्ष के नीचे है स्थापित है, जहाँ स्थानीय लोगों द्वरा मंदिर तैयार करवा दिया गया है।

जनश्रुति के अनुसार क्षेत्र के जनमानस खम्भेश्वरी देवी को अत्यंत शक्तिशाली देवी व महिमामयी देवी मानते है। देवी अपनी प्रजा की सुरक्षा के लिए रात्रि मे गांव मे भ्रमण करती है, जिससे उस राज्य का जनमानस सुरक्षित रहे और किसी विपदा का शिकार न हो। कहते हैं कि जब देवी निकलती है तो शेर की पदचापों की आवाज आती है।

भगवान नरसिंह नाथ जी हिरण्यकश्यप का वध करने के लिये खम्भे से प्रकट हुए तो उस खंभा स्वरूप गर्भ में धारण करने वाली देवी को खम्भेश्वरी माता के रूप मे देवी मानते आ रहे हैं।गर्भ या खंभा रुपी देवी रौद्र-रुप नरसिंह नाथ को भी अपने अंदर समाहित रखती है या धारण करती है।

जो देवी भगवान नरसिंह नाथ को खम्भे से जन्म देनी की शक्ति रखती है उसका निश्चय ही अति शक्तिशाली होना स्वभाविक है और खम्भेश्वरी देवी की स्थापना इसी कारण भैना राजाओं के द्वारा कुलदेवी के रूप में गढ़ की रक्षा हेतु गढ़ अर्थात राज्य की रक्षिका देवी के रूप में गढ़ के अंदर स्थापित की गई।

छत्तीसगढ़ में देवी देवताओं से मानता करने को बदना या गेरुआ बांधना कहा जाता है। जिस भी देवता से आप कुछ मांगते हैं तो उस मांग के संकल्प के निमित्त देव स्थान में धागा, नारियल आदि बांध दिया जाता है एवं मांग पूर्ण होने पर उसे खोला जाता है तथा देवी देवता को भेंट दी जाती है। खम्भेश्वरी माता में भी छोटा बदना एवं बड़ा बदनाबांधा जाता है। मान्यतानुसार छोटे बदना में देवी को सिंदूर चढ़ाया जाता है तथा बड़े बदना में खैरा बोकरा (गेंहूआ रंग का बकरा) दिया जाता है।

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पाटनेश्वरी देवी, खम्भेश्वरी देवी, समलेश्वरी देवी, गढ़ फ़ूलझर

गढ़फ़ूलझर का एक बाल ब्रम्हचारी प्रतापी राजा हुए जिनका नाम मानसराज सागरचंद भैना था। जिनकी समाधि मान सरोवर (गढ़ का तालाब) के तट पर विद्यमान है। उनके द्वारा ही खंभेश्वरी देवी की स्थापना कुल देवी के रूप में गढ़फ़ूलझर में की गई है क्षेत्र का जनमानस मंझला राजा के रूप में आज भी उनकी पूजा अर्चना करता है।

इस तरह गढ़फ़ूलझर के भैना राजाओं की कुलदेवी खम्भेश्वरी माता आज भी गढ़ में विराजमान है तथा मातृस्वरुपा स्नेहा देवी वर्तमान में भी अपने भक्तों की रक्षा कर रही हैं उन्हें शक्ति दे रही है। शारदीय एवं चैत्र नवरात्रि में यहाँ मेला भरता है तथा भक्तजन ज्योति जलाते हैं।

लेखक जब सिहावा थाने में पहुंचा तो देखा कि थाने के मुख्य प्रवेश द्वार के दांए बांए दो पुराने स्तंभ हैं, इस स्तंभो पर नारियल, चुनरी तथा फ़ूल आदि चढ़ाकर धूप दीप जलाया हुआ था तथा दोनों खम्भों का घेरा करके इन्हें सुरक्षित किया हुआ था। वहाँ खम्भेश्वरी देवी का नाम लिखा हुआ था। इस थाने का निर्माण जमींदारी काल में 1900 हुआ था। कुछ वर्षों पूर्व इसे नया बनाया गया।

बैगा से पूछने पर ज्ञात हुआ कि यह देवी जमींदार काल से इस थाने में शक्ति के रुप में खम्भेश्वरी देवी विराजित हैं तथा थाने का पुराना भवन जीर्ण होने पर नया बनाया गया परन्तु इन देवी रुपी स्तंभों को यथावत रखा गया। नये भवन बनाने में इन्हें हटाया नहीं गया। आज भी भक्त प्रतिदिन थाने में स्थित भगवान नृसिंह की माता खम्भेश्वरी देवी की पूजा उपासना करते हैं।

 

लेखक लोक संस्कृति एवं पुरातत्व के शोधकर्ता हैं।