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इंद्रावती नदी घाटी की सभ्यता एवं बस्तर की सांस्कृतिक परम्परा

संजीव रंजन

हाँ मैं भारत देश के सबसे बड़े और शानदार नदी जलप्रपात चित्रकोट के सामने खड़ा हूँ, जहाँ करीब सौ फीट ऊँचाई से और करीब एक हजार फीट चौड़ाई में घोड़े के नाल के आकार में पूरी इन्द्रावती नदी जलप्रपात बनकर नीचें गिरती है। इन्द्रावती नदी का पानी फुहारें बनकर मेरे मन को प्लावित कर रहा है। इस चित्रकोट से चित्रकूट का भ्रम न बनाए। चित्रकूट उत्तर प्रदेश में मंदाकिनी नदी के तट पर है, जबकि यह चित्रकोट है, जो कि प्राचीन दण्डकारण्य और वर्तमान छत्तीसगढ़ में उड़ीसा के कालाहांडी जिले के रामपुर थुआमूल के डोंगरला पहाड़ी से बहकर छत्तीसगढ़ आती हुई इन्द्रावती नदी है।

इस नदी और इस जलप्रपात ने इस राज्य और पूरे देश में अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाए हुई है, और जिसके दर्शन के लिए पूरे देश से पर्यटक यहाँ जगदलपुर पहुँचते है। अपनी विशेष प्रकृति व पहचान के लिए इसे भारत का नियाग्रा जलप्रपात भी कहते हैं, जहाँ पर्यटक भूगर्भशास्त्री, दम्पत्ति, युवा सब इसे निहारने जगदलपुर पहुँचते है। इसे देखने का अच्छा समय मानसून के बाद का अगस्त, सितम्बर और अक्टूबर है किन्तु ज्यादातर पर्यटक जब मौका मिले तभी आ जाते हैं। मैं भी अप्रैल की गर्मी में पहुँचा और यहाँ के नयनामिराम सुन्दरता देखकर लगा कि वाह प्रकृति की असीम कृपा इस धरा पर है।
इन्द्रावती नदी धार्मिक मान्यताओं से लबरेज है। यह छत्तीसगढ़ के जगदलपुर या बस्तर संभाग को सिंचित व पल्लवित कर यहाँ के अन्तिम जिला बीजापुर मुख्यालय से करीब 75 कि.मी. दुर भद्रकाली में महाराष्ट्र के नासिक क्षेत्र से चली आ रही उफनती गोदावरी में मिलकर मानो लक्ष्य पा लेती है, जहाँ आन्ध्रप्रदेश, तेलांगना, व महाराष्ट्र की सीमा रेखा व क्षेत्र है ।

इन्द्रावती नदी पूर्वी घाट के पश्चिमी ढ़लान पर अपना यौवन पथ पूरा कर 535 किमी. का सफर गोदावरी नदी में मिलने तक करती है और इस क्रम में 41,655 वर्ग किमी. के जल निकासी क्षेत्र को तैयार करती है या सिंचित कर जाती है। बस्तर में यह 372 किमी. की यात्रा करती है, जबकि बीजापुर में कुल मिलाकर 200 किमी. से अधिक का प्रवाह है इसका। इसकी धार्मिक गाथा भी बड़ी रोचक है।

लोक मान्यता है कि एक बार देवराज इन्द्र और इन्द्राणी स्वर्ग से नीचे आए और भ्रमण के सिलसिले में वे निकटवर्ती उड़ीसा के नुआपाड़ा जिले के सुनाबेड़ा क्षेत्र में पहुँचे, और भुंजिया जनजाति के मूल केन्द्र की ओर गये। यह क्षेत्र छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले के सामने पठार पर है। वास्तव में नुआपाड़ा और गरियाबन्द जिले एक ही भूभाग है जो सीमा रेखा के चलते वर्तमान में उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में बँट गया है। किन्तु दोनों ही जगह एक ही जनजाति भुंजिया और उनकी एक ही संस्कृति है। प्रभु को वहाँ पर उदन्ती नाम की एक खूबसूरत युवती से उन्हे प्यार हो गया और वे वहीं रमण करने लग गए। जब इन्तजार कर रही इन्द्राणी को यह पता चला तो दुख से वह खुद को इन्द्रावती नदी में बदल ली। तभी से इस क्षेत्र में इन्द्रावती और उदन्ती नदियाँ उत्कल प्रदेश से आती हुई अलग-अलग मार्ग से बहती है।

पथरीली ढाल पर बहती उदन्ती नदी को हर सप्ताह या दस दिनों के बाद सीतानदी उदन्ती टाइगर रिर्जव के छः सौ वर्ग किमी. के क्षेत्र में फैले (गरियाबंद और धमतरी जिले में ) अपनी जिम्मेंदारी के क्षेत्र व पोस्ट जुगाड़ और इन्दागाँव के बीच देखता हूँ। इन्दागाँव से यही रोड आगे देवभोग होकर उड़ीसा के श्री जगन्नाथधाम लिए चली जाती है। देवभोग का अन्न करीब सन् 1850 से पुरी के धाम में देवताओं पर सबसे पहले भोग के रूप में चढ़ता है और आज भी यह परम्परा जारी है। दण्डकारण्य और समीपवर्ती उड़ीसा के सुन्दर सांस्कृतिक और धार्मिक परम्पराओं और धरोहर को छोड़कर वापस इन्द्रावती नदी का रूख करते है।

इन्द्रावती नदी की 30 से ज्यादा सहायक नदियाँ – निम्बरा, केशधारा, तेलेगीनाला, तुरीनाला, कोटरी, भास्केल, बंदिया, सबरी, शंखिनी, डंकिनी, मोडर, मर्री, चिन्तावागू, नारंगी इत्यादि है। नदियों के अलावे बस्तर के पठार के ढेरों छोटे नदी-नाले हैं, जो अन्ततः इसी में मिलकर धन्य हो जाते हैं। यूँ तो इस पर पाँच जलविद्युत परियोजना की योजना बनाई गयी किन्तु सफल मात्र इसके प्रवाह के शुरूआती दौर कालाहांड़ी के मुखीगुड़ा शहर के पास निर्मित योजना है, जहाँ 600 मेगावाट बिजली उत्पादन व सिचाई प्रबंधन होता है। इसके प्रवाह का सबसे खूबसूरत जगह जगदलपुर से 40 किमी. दूर चित्रकोट जलप्रपात है। इससे सटा कांगेर राष्ट्रीय उद्यान और आरक्षित बाघ अभ्यारण है। इस नदी के प्रवाह के किनारे कांगेर बारसुर (दंतेवाडा जिले), भैरमगढ़ और चपका इत्यादि एतिहासिक और धार्मिक जगह है।

पश्चिम और अन्त में दक्षिण

बस्तर जिले से पश्चिम और फिर उत्तर पश्चिम दिशा से बहकर यह नदी सबसे अंतिम गाँव भद्रकाली में गोदावरी में जा कर पूर्णता को प्राप्त करती है। भद्रकाली मंदिर से चार किमी. दूर इस संगम को पालामडगू कहते हैं, जिसका अर्थ होता है दूध का कुण्ड। यहाँ गौतम कुण्ड या शिवलिंग है, जहाँ प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा को लोग स्नान करते हैं। यहाँ की माहाशिवरात्रि विख्यात है, जिसमें शिवजी की बारात एदरूकोलूं निकाला जाता है। इस संगम के क्षेत्र में चूंकि तीनों राज्यों की सीमाएँ मिलती है, अतः स्थानीय लोग बड़े सहयोग से यहाँ रहते हैं और कहते भी है कि हम लोगों का बेटी और रोटी का रिश्ता है। यह एक नदी भर नहीं है बल्कि बस्तर और बीजापुर समाज व भू-भाग का मान सम्मान और गौरव है।
इन्द्रावती नदी का बस्तर संभाग के साथ सदियों से गहरा संबंध है। सच कहा जाय तो दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, और इनके अलग अस्तित्व की तो कल्पना ही नही की जा सकती। बस्तर की संस्कृति को सिंचित व परिभाषित करने का काम इस नदी ने किया है। इसलिए सुधि पाठकों के लिए थोड़ी चर्चा बस्तर की संस्कृति का करके आगे बढते है।

दण्डकारण्य, दक्षिण कोसल, बस्तर ये सब नाम ही मिलकर बस्तर को परिभाषित करते रहे है। वर्तमान बस्तर का जिला मुख्यालय जगदलपुर है, जबकि बस्तर संभाग में सात जिले हैं। इसके उत्तर में दुर्ग, दक्षिण में प्राचीनकाल से बह रही गोदावरी व गोदावरी जिला तथा महाराष्ट्र का गढ़चिरौली जिला, उत्तर पूर्व में रायपुर, पश्चिम में चांदा और पूरब में कोरापुट है। बस्तर संभाग का क्षेत्रफल 6,597 वर्ग किमी., अर्थात एक छोटे से देश के बराबर है। वर्तमान में छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से करीब 305 किमी. दूर यह प्रदेश की सांस्कृतिक राजधानी है, जो तमाम जनजातीय पहचान और धरोहरों को समेटे हुए है। प्रकृति की महिमा या कृपा से सारोबार है यह क्षेत्र। गहन जंगल, जलप्रपात, जनजातीय जीवन व समाज, प्राकृतिक सौंदर्य, आडंबर विहीन समाज यही सब खूबसूरती है इस क्षेत्र की। सात जिले बस्तर संभाग में निम्नलिखित है :- कांकेर, नारायणपुर, कोंडागाँव, बस्तर या जगदलपुर, दंतेवाड़ा, बीजापुर और सुकमा जबकि बस्तर के सात विकासखण्ड या तहसील जगदलपुर, बस्तर, बकावंड, लोडंडीगुडा, तोकापाल, दरभा और बस्तानार है। गोंड़, माड़िया मुरिया, हल्बा यहाँ की मुख्य जनजातियाँ हैं।

पर्यटन और प्राकृतिक उपहार :- चूँकि यह एक प्राचीन व व्यवस्थित साम्राज्य रहा है और इस क्षेत्र पर प्रकृति की महिमा अपरमपार है अतः यहाँ जलप्रपात, नदियाँ, मंदिर, राष्ट्रीय पार्क, गुफा और सारे अन्य प्राकृतिक सुषमाएँ भरे हुए है। इन्द्रावती नदी पर चित्रकोट के प्रसिद्ध जलप्रपात के अलावे मेंन्दी धार, चित्रधारा जलप्रपात मुनगाबहार नदी पर तीरथगढ़ जलप्रपात (20 किमी. दूर मुनगाबहार गाँव के पास कटेनार गुडमपाल पठार में इसका उदगम है ) तुमडा धुमर जलप्रपात, कांगेर नदी पर कांगेर राष्ट्रीय उद्यान यहीं है। कैलाश गुफा, दण्डक गुफा कोटसर गाँव के पास कांगेर नदी के किनारे चूना पत्थर के करीब 200 मीटर लंबी गुफा कुटुमसर यहीं है। चित्रकोट जलप्रपात के मार्ग में ही इन्दावती नदी और नारंगी नदी के संगम पर 11वीं सदी का बना स्थापत्य कला का खूबसूरत नमूना विष्णु मंदिर है। यह खजुराहों मंदिर का समकालीन हैं कहते है इसे छिंदक राजवंश की रानी मुमुंदेवी ने बनवाया था। इतिहास धर्म और स्थापत्य में रूचि रखने वाले पर्यटक इसे देखने आते हैं।

बस्तर राजमहल :- एक गौरवमय राजपाठ और इतिहास रहा है इस प्रदेश के हिस्से । यह राज्य 1324 में स्थापित किया गया जब अंतिम काकतीय राजवंश के राजा रूद्रप्रतापदेव (1290-1325) के भाई अन्नदेव ने वारंगल छोड़कर बस्तर आए। फिर यह राजवंश जनजातीय लोगों के विकास व भलाई को लेकर कई पीढ़ियों तक शासन किया। बस्तर के अंतिम शासक प्रवीरचंन्द्र भंजदेव (1937-1948 ) थे, जो बेहद लोकप्रिय राजा थे। उनके समय में देश अजाद हुआ और सन् 1948 में यह भारतीय गणराज्य का हिस्सा बना। पहली राजधानी बस्तर शहर में बसायी गयी थी और बाद में यह जगदलपुर शहर में आयी। यहीं बस्तर के शानदार महल में वर्तमान महाराजा केशवचन्द्र भंजदेव रहते थे। उनके कोई संतान न होने पर उन्होने अपने भांजे कमलचंन्द भंजदेव को गोद लिया जो वर्तमान बस्तर के राजा है और तमाम परम्पराओं का निर्वहन करते हैं। यह मडल स्थापत्य का एक अद्वितीय नमूना है और बस्तर के बारे में सब कुछ बखान करता है।
वर्तमान महाराजा की सक्रिय भूमिका वहाँ के सामाजिक कार्यो में दिखती है। जनजातीय प्रजा राजा को अभी भी वही सम्मान उसे ईश्वर का प्रतिनिधि मानकर देती है। बस्तर दशहरा यहाँ की शान और पहचान है । देश की प्रसिद्ध कुल्लू दशहरा, मैसूर दशहरा से इटकर यह एक मात्र ऐसा उत्सव है, जो लगातार 75 दिनों तक मनाया जाता है। इसमे बस्तर के राजा द्वारा देवी-देवताओं को आमंत्रित किया जाता है। इसमें हर वर्ष नयी लकड़ी को काटकर रथ बनाया जाता है और फिर रथयात्रा के दौरान राजा को बस्तर के नागरिकों के द्वारा रथ में बिठा कर बस्तर (जगदलपुर) राजा के मुख्य निवास स्थान / चौराहों पर यात्रा निकाली जाती है। पूरा बस्तर मानों उत्सव की स्थिति में आ जाता है। इसका समापन इसमें राजा की उपस्थिति, प्रजा के समस्या को सुनने और उसके समाधान से होता है। यह परंम्परा आज भी जारी है।

जनजातीय समाज और परम्पराओं की चर्चा होने पर यहाँ के गोंड़, माड़िया, मुरिया और हल्बा जनजाति में सादगी व अनूठेपन के अलावे मृतक स्तंभ या पिरामिड रचना को देखने को मिली। यह अनूठापन इस समाज के जीवन दर्शन और संस्कृति सब में विद्यमान है, और यही बस्तर की पहचान है। इसमे लोगों के स्वर्गवास के बाद उसे अग्नि संस्कार व चेचक बीमारी के मामले में मिट्टी में दफनाकर, वहाँ नजदीकी पठार से छः-सात फीट के पत्थर लाकर स्मृति में लगा दिया जाता है। पत्थर लाने का काम पूरा गाँव मिलकर करता है मानो मृतक को सम्मान दिया जा रहा हो। इसे मट कहा जाता है। मट बनने के बाद मृत्यु भोज पुरा समाज मिलकर खातें हैं। सिपाही राजू राम नेताम, जो दंतेवाडा के नेलगोडा गाँव के निवासी हैं, अपने परिवार के मट को सँभाले व संरक्षित किये हुए हैं। इसके अलावे युवा लडके – लडकियों को चुनने की प्रथा गोटुल भी इन जनजातीय समाज में लोकप्रिय है। बहुत अनुशासन व जनजातीय नियमों के साथ इस प्रथा का पालन यह समाज करता है। जिलेवार यहाँ के पर्यटन स्थल और महत्वपूर्ण बातें निम्नलिखित है।

1. कांकेर :- यह प्राचीन रियासत रहा है। दूध नदी, राजमहल, किला पहाड़, गढ़िया पहाड़, माता सिंहवासिनी का मंदिर, दक्षिणमुखी हनुमान मंदिर यहाँ के दर्शनीय स्थल है। नल राजा के वंशजों का यहाँ शासन था। राजा भानुदेव ने गढ़िया पहाड़ या किला के कण्डरा राजा को मारकर यहाँ अपनी राजधानी बनायी थी। इन राजाओं का शासन सन् 1903 में राजा नरहदेव के निधन तक रहा, जो खुद पुत्रहीन थे। इस दौरान सांस्कृतिक विकास खूब हुए। गढ़िया पहाड़ के पास राजापारा में स्थित सिंहवासिनी मंदिर प्रसिद्ध था, जिसे राजा पदमदेव ने बनवाया था। यहाँ भगवती दुर्गा के साथ भगवती काली का संयुक्त स्वरूप है, जो कहते हैं कलकत्ता के काली घाट के अलावे सिर्फ कांकेर में ही है। 1985 में आमजनों द्वारा इसका जीर्णोद्वार हुआ। किला पहाड़ पर शीतला माता मंदिर भी है। जमीन से निकली कंकालीन माता, काल भैरव, हनुमान, बेताल आदि की मूर्तियाँ यहाँ है। राजमहल में भी दंतेश्वरी मंदिर है। यहाँ चर्रे मरें जलप्रपात, सिहावा बाँध, मलाजकुंडम जलप्रपात इत्यादि घुमने लायक जगह है।

2. कोण्डागाँवः– यह रायपुर से 230 किमी. दूर है। रायपुर के तरफ से जाने पर 2250 फीट ऊँचे और पाँच किमी. के क्षेत्र में खूबसूरती से परे केशकाल घाटी की नैसर्गिक सुन्दरता को निहारने के बाद ही एक पर्यटक आगे बढ़ सकता है। यह फूलों की घाटी और मेड़का घाटी भी कहलाता था । घाटी मे तेलीन माता मंदिर मे धर्मालु पूजा करते हैं। यहाँ कुयेमारी झरना, मांझिनगढ़ जलप्रपात, केशकाल घाटी, कोपाबेड़ा का शिव मंदिर, बड़े डोंगर का दंतेश्वरी मंदिर, महालक्ष्मी शक्ति पीठ, टाटामारी, भोंगापाल, बड़ापाल, मिसरी के बौद्धकालीन ऐतिहासिक टीले, खडक घाट, धनोरा के गोबरहीन का शिव मंदिर, मुलमुला के शिवलिंग, आलोर से 3 किमी पर झांटीवन में लिंगेश्वरी माता, टाटामारी का महालक्ष्मी शक्ति पीठ यहाँ प्राचीन गौरव की चीजे हैं। इन सबों को देखने, पर्यटक यहाँ आते है।

3. जगदलपुर :- इन्द्रावती नदी बस्तर के जगदलपुर के प्राकृतिक सौंदर्य में चित्रकोट जलप्रपात से असीम बढ़ोतरी कर जाती है। करीब 543 किमी. के पठारी प्रवाह में यह नदी चित्रकोट के पास डी नारायणपाल में विष्णु मंदिर के पग पखारती है, जिसके बारे में कहा गया है कि वह विश्वकर्मा जी द्वारा निर्मित देवकला है। जगदलपुर में ही दंतेवाड़ा की सिद्ध पीठ दंतेश्वरी मंदिर के तर्ज पर राजमहल के समीप मावली माता दंतेश्वरी मंदिर है। इसके बारे में कहा जाता है कि राजा प्रवीण चंद भंजदेव ने देवी को जगदलपुर आने का निवेदन किया था। उनके उस स्थान से विस्थापित ना होने पर जगदलपुर में उन्होंने इस मंदिर को बनाया। कुटुमसर जगदलपुर से 35 किमी. दूर कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान में देश की सबसे बड़ी गहरी गुफा है। (60-125 फीट तथा लंबाई 4500 फीट) गुफा में प्रकाश पड़ने पर कई तरह की आकृतियाँ नजर आती है, और इस गुफा कई किमी. तक जाता है इसका कोई अंतिम छोर नही मिल पाया।
इन्द्रावती बस्तर के समाज के गिरती उठती लहरों को देखती और चुपचाप अपने गर्त में समेटती चली जा रही हैं एक चश्मदीद गवाह की तरह। यह नदी उफनती उछलती कूदती आगे बढ़ती है। जगदलपुर से नेशनल हाईवे 16 पर 74 किमी. बाद गीदम और फिर 20 किमी. बारसूर है। पूर्व में यहाँ 147 बड़े मंदिर और 147 जलाशय है। बस्तर को सींचने और इस क्रम में वह बारसूर पहुँचती है। यह दन्तेवाड़ा जिला में पड़ता है और वर्तमान में यह घोर नक्सलग्रस्त क्षेत्र व केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल का बटालियन मुख्यालय है। वहाँ सातधार में पुल के माध्यम से यह अबूझमाड के क्षेत्र के ओरछा, डुंगा, वेडमा नारायणपुर जिले के मुख्यालय मार्ग से जुडता है । अबूझमाड़ की अनोखी और दुनियाँ से अनजान गाथा आगे लिखी गयी है। अबूझमाड़ क्षेत्र मे मुख्यतः यहाँ के लोग निरक्षर व अपनी शरीर मे अर्द्धवस्त्र पहनकर विचरण करते हैं। माड़िया जनजाति को अबूझमाड़िया भी कहा जाता है। अबूझ शब्द का अर्थ निरक्षर । (जिसे बूझा न जा सके) और माड़ क्षेत्र होने के कारण इस क्षेत्र को अबूझमाड़ व अबूझमाड़िया भी कहा जाता है।

4. दंतेवाड़ाः– देश के 52 शक्ति पीठों में एक दंतेश्वरी माता मंदिर यहाँ है। भगवती माता का दाँत यही गिरा था जहाँ यह शक्तिपीठ शंखिनी और डंकिनी नदी के संगम पर स्थित है। चौदहवीं सदी के राजा अन्मदेव को निर्वासन पर गोदावरी पार करते समय पर यह मूर्ति मिली थी। यह वारंगल की राजाओं की कुल देवी है। यहाँ देवी के दर्शन के लिए सिले कपड़े की जगह धोती पहनना होता है। इस मंदिर की पवित्रता व नीरवता मुझे ब्रम्हपुत्र नदी के किनारे नीलांचल पहाड़ी पर स्थित माता कामाख्या के मंदिर की याद दिला गया। बारसूर मंदिरो का शहर एक समय बारसूर में 147 मंदिर थे बतीसा मंदिर के एतिहासिक भग्नावशेष, शंखिनी डंकिनी नदी के संगम पर भैरव मंदिर व 9-12 दलीय बेल पत्र वाला पेड़ इन्द्रावती राष्ट्रीय उद्यान, द्रविड़ शैली में बना मामा भांजा मंदिर जिसके विस्मयकारी 50 फीट ऊंचा गुम्बद है, कांगेर राष्ट्रीय उद्यान, गामावाड़ा के स्मृति स्तंभ (महापाषाण काल का कब्रगाह), 1000 साल पुराने नगरी व नागवंशीय राजाओं की राजधानी के भग्नावशेष यहाँ है। गंगवंशीय राजाओं ने इन्द्रावती नदी के तट पर बारसुर को अपनी राजधानी बनाया था, जिसके आठ-आठ मील दूर की परिधि में मंदिर थे और उनके भग्नावशेष आज भी विद्यमान है।

ग्यारहवीं सदी का बना मामा भांजा मंदिर खजुराहो के मंदिर का समकालीन है। उसके मूर्ति का उपरी भाग खंडित है। यहाँ के शिलालेख शक संवत 983 में तेलगू लिपि में लिखे गए। नागवंशीय राजा जगदेश भूषण धारावर्श ने बारसूर से अपनी राजधानी तरलापाल यानि वर्तमान दंतेवाड़ा ले गया। सात धाराओं में बँटे इन्द्रावती के प्रवाह यहाँ है जिसमें यह चौड़ी नदी मात्र 15-20 मीटर सँकरे मार्ग में गीदम मंडी में सिमट जाती है। चूँकि इसके दोनों ओर प्राचीन पठार है इसलिए नदी द्वारा इसके किनारों का क्षय करना मुश्किल है। इसके बाद यह अलग-अलग पड़ाव जंगलों / पठारों से होकर दंतेवाड़ा जिले के ही गीदम तहसील का छिंदनार गाँव की ओर बढ़ती है। यहाँ भी दूसरी पूल के द्वारा वह अबूझमाड़ क्षेत्र से जुड़ता है। अब नदी यहाँ से 25 किमी0 दूर नेलसनार में शंखिनी डंकिनी नदी के साथ संगम करती है। नेलसनार बीजापुर जिले का भैरमगढ़ विकासखंण्ड का क्षेत्र है। नदी अब 08 किमी. दूर एक अन्य ग्रामीण क्षेत्र पुण्डरी पहुँचती है जो घनघोर नक्सली क्षेत्र है। यहाँ बन रहे पुल से भी अबूझमाड़ क्षेत्र जाने का रास्ता प्रशस्त होता है। नक्सली इस पुल के बनने का विरोध कर रहे है क्योंकि इससे अबूझमाड़ की अबूझ दुनियाँ को जाना सरल हो जाएगा, किन्तु केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल अपने बटालियन मुख्यालय की उपस्थिति से पुल के काम को लगभग पुरा कर लिया है। कमाण्डेन्ट धर्मेन्द्र झा कहते हैं कि यह एक बड़ा काम किया गया है। यह क्षेत्र इन्द्रावती नदी का अति विशेष महत्व का है, क्योंकि भारत में मगरमच्छ द्वारा अंण्डा देने के प्रवृति सिर्फ दो ही जगह है, एक चंबल नदी में और दूसरा इस पुण्डरी क्षेत्र में, जहाँ वह रेत में दूर-दूर तक जा कर अंण्डा देती है। इसके चलते जन्तु विज्ञान के शोधकर्ता यहाँ आते हैं।

अब इन्द्रावती रूख करती है 55 किमी. दुर बेदरे (कुटरू, बीजापुर) के लिए जो केन्द्र है अति तीव्र नक्सल गतिविधि का बेदरे से 60 किमी0 दूर तिमेड़ है। इन्द्रावती में जलस्तर 10 मीटर औसत रहता है जबकि बाढ़ की स्थिति में यह 17 मीटर रहता है। धीरे-धीरे यह नदी बीजापुर जिले के अंतिम छोर तिमेड़ से महाराष्ट्र की ओर से प्रवेश करने के लिए तैयार होती है जहाँ पुल निर्मित है। तिमेड़ के बाद गढ़चिरौली जिला (महाराष्ट्र) शुरू हो जाता है। तिमेड़ से 18 किमी. दूर भद्रकाली गाँव अंततः यह पहुँचती है और गोदावरी के साथ उसका संगम उसे वहाँ पूर्णता प्रदान करता है। आगे बढ़कर चंदरूपटला में यह नदी पूर्णतः आन्ध्रप्रदेश क्षेत्र में प्रवेश कर जाती है और इन्द्रावती की जगह गोदावरी के नाम से परिभाषित हो जाती है।

5. नारायणपुर –सन् 2007 में दंतेवाड़ा जिला को काटकर नारायणपुर जिला बनाया गया। यह जिला अबूझमाड़ को लेकर जाना जाता है। महाराष्ट्र, आन्ध्रप्रदेश व छत्तीसगढ़ की सीमा पर यह अनजान और दुर्गम क्षेत्र छः टाईगर रिजर्व की सीमारेखा को छूता है। आज तक प्रशासनिक अमला यहाँ नहीं पहुँच पाया और आदिवासी जन यहाँ अपने ढंग से सदियों से जीवन जीते आ रहे हैं। कोई रोड, बिजली, स्कूल, अस्पताल और विकास के कोई भी साधन यहाँ अभी तक नहीं पहुँचे है। यह माड़िया आदिवासियों का गढ़ है जो दंतेवाड़ा, बीजापुर, सुकमा और कांकेर की परिधि के साथ महाराष्ट्र को छूता है। आज इन जगहों पर माओवादियों की पहुँच व गढ़ है। इसमें कुरूसनार बाहरी आने-जाने वाले लोगों का आखिरी पड़ाव है। इससे आगे आवाजाही प्रतिबंधित है और आज तक कोकमेरा, गार्पा, पंगुर, इरकभट्ट, कुतुल की तरफ बाहरी दूनियाँ के पैर नही बढ़े हैं जिसमें कुल 237 गुमनाम गाँवों की श्रृंखला है। नारायणपुर जिले के ओरछा में बुधवार को ग्रामीण हाट / बाजार में आकर वे अपने महुआ, टोरा, चिरौजीं, बाँस के बने चुटकी तथा मुटकी को बेचते है । ‘नक्सलवाद पुस्तक के लेखक और सी० आर० पी० एफ० के कमाण्डेंट श्री राकेश कुमार सिंह बताते है कि अबूझमाड़ को विकास की धारा में लाने और वहाँ के जनजातियों के उत्थान के लिए काफी कुछ किये जाने की जरूरत है। यहाँ आदिवासी बच्चों के उत्थान हेतु रामकृष्ण मिशन, पहाड़ी माता मंदिर, हंदवाड़ा जलप्रपात, वसवकल्याण से चार कि०मी० दूर शिव मंदिर, ओरछा ब्लाक का जलप्रपात, माता मावली मेला आदिवासी हस्त शिल्प केन्द्र, छोटे डोंगर के प्राचीन मंदिर के भग्वावशेष नारायणपुर का मड़ाई मेला प्रमुख दर्शनीय स्थल हैं।

6. सुकमाः– छत्तीसगढ़ की सर्वाधिक अनुसूचित जनजाति आबादी इसी जिले में है सुकमा का अर्थ आत्मा है आत्मा जीवन शक्त्ति मानस, आत्मा यह जनजातीय क्षेत्र है जब जनजातीय लोग यहाँ पहुंच कर सकुन पाये तब इसे सुकमा कहा गया है। यह जगह शबरी नदी के किनारे है, जो उड़ीसा स्थित कोरापुट के नन्दपुर पर्वत से निकलकर आती है। यह राज्य की एकमात्र नदी है जिस पर जलपरिवहन की सुविधा है। जो कोंटा से लेकर आन्ध्रप्रदेश के कुंनावरम तक परिवहन योग्य है। यहाँ तुंगल बाँध, दुधमा पर्यटक स्थल, चिटमिट्टीन माता मंदिर, महादेव डोंगरी का प्राचीन शिव मंदिर दर्शनीय है। शबरी नदी के किनारे बिताये अपने वाहिनी मुख्यालय में पलों को याद कर कमाण्डेंट कृष्णकांत पाण्डेय कहते है कि तमाम प्रतिकुलताओं के बावजूद प्रभु श्रीराम के वनगमन पथ पर यह एक आलौकिक जगह है जहाँ की खूबसूरती वहाँ की प्रकृति, जनजातीय समाज, उनकी सादगी और भक्ति में निहित है। यहाँ के जमींदारों की बड़ी रोचक गाथा है। श्री अनामी शरण द्वि०कमा० अधिकारी केरिपु बल वार्ता मे बताते हैं कि मुगलों के समय कुछ हिन्दू परिवार यहाँ आकर बस गये और उन्होंने आदिवासियों को स्नेह दिया। इसके बदले आदिवासी भी उन्हें श्रद्वा से अपना जमींदार मानते है।

आज भी वहाँ जमींदारी महल और परम्परा है । प्रत्येक वर्ष रामनवमी में चिरमिटिन में लगने वाले मेले में गाँवों से ग्राम देवता को लाकर सुकमा राजवाड़ा के मंदिर में पूजा करते हैं। रामाराम मंदिर तक माता की पारम्परिक ढंग से यात्रा निकाली जाती है। पूजा के बाद रामाराम के चिरमिटिन में भव्य मेला का आयोजन होता है। इस बार छत्तीसगढ़ की नयी सरकार के मुखिया श्री विष्णुदेव साय जी ने इस मेले की व्यवस्था हेतू पन्द्रह लाख रूपये और अन्य मड़ई मेले में इसी तरह सहयोग की घोषणा की है। जबकि सबसे ज्यादा 50 लाख की सहयोग राशि बस्तर दशहरा के लिए और प्रसिद्ध चित्रकोट के लिए 25 लाख दी जाती है। जमींदार द्वारा सभी गाँवों के ग्राम देवता के साथ पूजा व मेला परस्पर स्नेह, प्रकृतिपूजा, सांस्कृतिक विरासत, विभिन्न जातियों व उनके परम्पराओं के प्रति स्नेह, प्रेम, श्रद्धा आदि आयामों को दर्शाता है। जिला प्रसाशन द्वारा अवकाश व सहयोग के अलावे जनजातीय लोग चाँवल व अन्य वनोपज का दान देते है। इसके अलावे हर बारह वर्ष मे भी एक अत्यन्त भव्य और विशेष मेले का आयोजन होता है। जिसमें राष्ट्रीय स्तर के लोक कलाकार और अन्य कलाकार अपनी उपस्थिति को इसे बेहद मनमोहक और छत्तीसगढ़ की पहचान बना देते है।

7. बीजापुर :- आजादी के पूर्व से यहाँ की जमींदारियाँ छत्तीसगढ़ के अन्य हिस्सों की तरह महत्वपूर्ण थी जिनमें भोपालपटनम्, कुटरू आदि थे। भोपालपटनम् की जमींदारी सन् 1324 ई0 से शुरू होकर सन् 1947 तक रही। पहले जमींदार नाहर सिंह पामभोई और अंतिम कृष्णा पामभोई थे। सन् 1795 में कैण्डल जे. डी. ब्लंट भोपालपटनम घुसने का प्रयास किये किन्तु आदिवासियों ने उन्हे तीर-धनुष से घायल कर वापस कर दिया। यह जगह भोपालपटनम् से 30 किमी. पश्चिम है। चूँकि इन्द्रावती नदी का संगम भद्रकाली एक अति आकर्षक जगह है अतः थोड़ी चर्चा इस जगह की और कर दूँ । इन्द्रावती और गोदावरी का उसका संगम रामायणकालीन संदर्भ लेकर है और इसे लेकर संपूर्ण दण्डकारण्य में प्रभु श्री राम के वनागमन और उससे जुडी बातें आदरणीय व श्रद्वायोग्य व श्रवणीय है।

भोपालपटनम् जमींदारी की भद्रकाली मंदिर, कालिका देवी गुट्टा की छोटी टेकरी या ऊँचाई पर है। इस नक्सली क्षेत्र में एक बार माओवादियों ने यहाँ तांडव करने को सोचा किन्तु उन सबके हथियार वहाँ लाँक हो गए और उन्हें बडी परेशानी हुई। उसके बाद उस जगह से नक्सलियों ने दूरी बना ली। इस जगह की महत्ता की पुष्टि प्रशासन ने भी की है, जो रिकार्ड पर है। भद्रकाली से 20 किमी0 दूर कोत्तूर (तारलागुडा) गाँव है, जो छत्तीसगढ़ का अंतिम गाँव है और उसके बाद तेलांगना राज्य शुरू हो जाता है। हैदराबाद व नागपुर की दूरी 300 किमी. से भी कम है यहाँ से। इस तेलगुभाषी क्षेत्र में वितनमपण्डुम और इतनमपण्डुम पर्व मनाया जाता है, जो खेती-बाड़ी से जुडा है। यहाँ गोवर्धन पर्वत पर सकलनारायण गुफा देखने लोग जाते हैं। यहाँ नडपल्ली गुफा भी है। इस क्षेत्र के निकटवर्ती मद्देड का रामनवमी और केशइगुडा का दशहरा प्रसिद्ध है। माता गौरी की पूजा बतकम्मा’ भी उत्साह से मनाते है। इस क्षेत्र का मेला काफी प्रसिद्ध है। जैतालूर बीजापुर से तीन कि०मी० एक गाँव है, जहाँ कोदईमाता के मंदिर में दर्शन के बाद उत्सव व मेले होते हैं।

चिकटराज या चिकिटराज बीजापुर से गंगालूर मार्ग पर एक कि0मी0 दूर जनजातीय परम्परा की देवी वाला मंदिर है। रामनवमी के बाद यहाँ मेला लगता है। यह बीजापुर के ग्राम देवता हैं। बीजापुर जिला के सत्रह सप्ताहिक हाट बाजार भोपालपटनम्, मद्देड, मोदकपाल, आवापल्ली, गंगालूर, तोयनार, नैमेड, गुदमा, कुटरू, फरसेगढ़, नेसलनार, मिस्तुर, बासागुड़ा करकेली, गुदमा यहाँ के आदिवासी समाज की जीवन रेखा है। विभिन्न पर्व-त्यौहार, नाच-गान, नृत्य-संगीत, पारम्परिक वाद्य यंत्रो से यहाँ के लोग मनोरंजन करते हैं। भद्रकाली क्षेत्र में बहुपयोगी ताड़ पेड और उससे निकलने वाले रस ताडी (ट्री – बीयर) की लोकप्रियता है। सौ फीट तक के इसके पेड़ की 100-125 वर्ष तक की आयु और पेड़ के नर व मादा दो प्रकार भी होते है। नर पेड़ में 5-6 गोला होता है जिससे रस (पंटा) निकलता है जबकि मादा में 15-20 गोला से अधिकतम ताडी (नापा कल्लू) निकलता है जो मिट्टी के हांडी में जमा होता है। मादा वृक्ष में मार्च में फल लगता है और अगस्त में पककर जमीन में गिरता है। छिंद का रस भी नशे के रूप में इस्तेमाल होता है। जबकि बस्तर बीयर के नाम से प्रसिद्ध सल्फी पेड़ बस्तर का कल्पवृक्ष है। धनी बस्तर संस्कृति ने कालान्तर में खून-खराबे और मओवादियों के विनाश भी खूब झेले। यहाँ के प्रसिद्ध महादेव घाटी में रोड़ निर्माण व अन्य विकास कार्यो के लिए सुरक्षा कर्मियों ने अपना बलिदान दिया है।

बीजापुर प्रशासन द्वारा उनकी याद में बनाया गया स्मृति द्वार हमारे नमन योग्य है जहाँ 29 जवानों के बलिदान के बाद बासागुड़ा / जगरगुंडा रोड बन पाया, यह बताते है कि स्मृति स्थल के निकट के बटालियन के कमाण्डेंट श्री राजीव कुमार बस्तर की चर्चा होने पर सलवा जुडुम की चर्चा स्वाभविक हो जाता है। यह 04 जून 2005 को बीजापुर जिले में कुटरू के पास अम्बेली गाँव से शुरू हुआ जिसे बाद में अदालत द्वारा अवैध घोषित कर दिया गया। समस-समय पर बस्तर की खूबसूरती के साथ नक्सलियों के तांडव का खौफ यहाँ के समाज ने झेला है। नवसली स्थानीय लोगों को व पुलिस बलों के लोगों को गाड़ियों में ढूँढते है, और मिलने पर उन्हें अगवा कर उनकी हत्या कर देते हैं। बीजापुर के मुरकीनार/रानीबोदली कैम्प पर हमला व मुरदण्डा (दुर्गा मंदिर ) के पास मांइन्स प्रोटेक्ट व्हीकल को आई० ई० डी० से ब्लास्ट करना और सुकमा के ताड़मेटला, चिंतलनार आदि में इस प्रकार का हमला बस्तर के सौन्दर्य को कलंकित करता है। अप्रैल 2005 को जब वहाँ के आम नागरिकों खासकर माड़िया मुरिया और गोंड आदिवासियों को नक्सली मारने लगे थे। तब आम नागरिकों द्वारा एकजुट होकर नक्सलियों को भगाने का निर्णय लिया गया। इस प्रयास को सलवा जुडुम कहा जाता है।

समाज व देश को दर्द देते हुए नक्सलवाद को छोड़कर अब इस क्रम में इन जनजातीय समाज के देवता, ग्राम देवता आदि की चर्चा करें। छत्तीसगढ़ की संस्कृति पर मजबूत पकड़ रखने वाले पुरातत्ववेता डा० हेमु यदु जो हाल ही में दिवंगत हुए, ने यहाँ की संस्कृति को रामायण युग से प्रभावित और बेहद सरल, सहज और प्रकृति से जुड़ा बताया। हर गाँव में जिमिदारिन माता होती है। इसके अलावे, गोत्रदेव, कुलदेव, इत्यादि भी होते हैं। नंदराज पेन (बैलाडीला), पाल बोमडा (समलुर), गुज्जेडोकरी पेन (फरसपाल) होदाल कोसा (चोलनार) कूम हिर्रया (मदाडी) डुंगा लडमा पेन (गायरापाता) भंगाराम देवी ( केशकाल) खण्डा मुरिया (धनोरा), बार गठिया (आलोर) जिमीदारिन माता (कांकेर) व चारामा, दोरनापाल मावली माता (कांकेर) आमाबुदीन माता (अंतागढ़), आंगा देवता (आमागढ) पाटदेव (नारायणपुर), रामारामीन (सुकमा), कनपराज (जगरगुण्डा) सोनकुवर पेन (चित्रकोट), नागा भीमा पेन (गंगालूर), भैरमपेन/ भैरमदेव (भैरमगढ़), कोकोट मुरिया नारायणपुर आदि इनके ग्राम देवी-देवता और लोक देवता व अन्य पूजनीय शक्तियाँ हैं। जबकि इनके पुजारी, गायता, पेरमा, सिरहा है।

इसके अलावे बस्तर का भू-भाग वनोत्पाद जैसे इमली, महुआ और टोरा (महुआ का फल टोरा से तेल निकालने हेतू), लाख, चिरौंजी, आँवला, तेन्दूपत्ता, सागौन, बाँस, नाना प्रकार की जडी-बूटी खनिज – कोयला और बैलाडिला से लौह अयस्क, भोपालपटनम् से कोरण्डम, आदि से भरपूर है। दंतेवाड़ा का बैलाडीला की पहाड़ी सिर्फ खनिजों को ढो रही है। इस तरह प्राचीन दंण्कारण्डय, जो त्रेतायुग में प्रभु श्रीराम के इस क्षेत्र में वनागमण का साक्षी बना, कालान्तर में एक सुन्दर, सुसंस्कृत व स्वस्थ जनजातीय व्यवस्था को अपने आँचल में पनपने दिया। आदिवासियों की विशिष्ट पहचान है यह पूरा क्षेत्र। आदिवासियों के निश्चलता व भोलेपन की चर्चा करते हुए बीजापुर के नैमेंड के कमाण्डेंट श्री विनोद कुमार मोहरील बताते है कि जनजाति लोगों की सहजता और सादगी के वे कायल है। के.रि. पु. बल के द्वारा चलाये जाने वाले सिविक एक्सन प्रोग्राम और मेडिकल कैंप दूर दराज के क्षेत्र में बेहद लोकप्रिय और उपयोगी है।

बाहर के समाज व दूनियाँ से आए बल के जवानों को देखकर गाँव के लोग प्रोत्साहित होते हैं और प्रेरणा पाते हैं। आकर पुछते है कि उनके बच्चे कैसे बल के जवान बनेंगे और उसकी क्या प्रक्रिया है। के.रि.पु.बल का हर कदम उनके जीवन में बुनियादी सुविधा लेकर परिवर्तन लाता है और भोलेभाले गाँव वाले बेसब्री से बल के सदस्यों का इन्तजार करते हैं। एक कमांडर के रूप में वे भी अपने जवानों से गाँव वालों के साथ शिष्ट व बेहतर व्यव्हार की ब्रीफिंग करते है। समय के साथ राजनीति के चलते नक्सलवाद का कर्मस्थल भी बना यह भू-भाग, किन्तु अब धीरे-धीरे स्थितियाँ बदल रही है। सरकार के विकास संबंधी कार्यकमों, नक्सलियों के आत्मसमर्पण व पुनर्वास के लचीले विरोधी व्यवस्था, सरकार के नक्सल अभियान में गति, वार्त्ता के लिए माओवादियों को निमंत्रण और जनमानस द्वारा मार काट से हटकर एक शांत व व्यवस्थित जीवन की कामना से बस्तर की फिजा बदलनी शुरू हो गयी है। हम कामना करते हैं कि परिस्थिति और सुधरेगी और हम सब गुनगुनाएँगे ।

पहुँच :- राजधानी रायपुर से बस्तर की दूरी 300 किमी. और शानदार राष्ट्रीय राजमार्ग 30 पर चार–पाँच घंण्टे की यात्रा के बाद आता जगदलपुर है। जो रेल लाईन से विशाखापटनम् और रायपुर से भी जुड़ा है, जबकि तेलांगना राज्य परिवहन निगम की बसें इसे हैदराबाद से जोडती है और आन्ध्रा परिवहन विशाखापटनम् और विजयवाडा से, जबकि उड़ीसा की बसों द्वारा यह कोरापुट, भुवनेश्वर से जुड़ी है। हवाई सेवा जगदलपुर से अब बेहतर की गई है और यह रायपुर, हैदराबाद और दिल्ली से अब जुडा हुआ है। किसी भी माध्यम से यहाँ पहुँचना सुगम है।

लेखक केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल में कमांडेंट हैं एवं 211 वाहिनी के०रि०पु०बल थनौद नया रायपुर (छ.ग.) में पदस्थ हैं।

तिरंगा झण्डा पोर्रो तरगते
पटेल दादा वास्तोर झण्डा फहरा किस्तोर
रे रे….. लोया ।

छत्तीसगढ़िया सबले बढ़िया..
हवन गा छत्तीसगढ़िया..
हवन गा सबले बढ़िया.
धरतीदाई के सपूत बेटा..
कइथे गा मोला छत्तीसगढ़िया..
छत्तीसगढ़िया सबले बढ़िया..

 

 

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