स्त्रीत्व का उत्सव गणगौर

राजस्थान, हरियाणा और मध्य प्रदेश सहित भारत के उत्तरी प्रांतों का लोकप्रिय पर्व गणगौर गाँव-घर से जोड़ने वाला उत्सव है। महिलाओं के मन-जीवन में उल्लास और अपनेपन का संचार करने वाला लोक उत्सव है। अपनों की कुशलता और सौभाग्य की कामना के लिए गण और गौर के रूप में भगवान शिव और माता पार्वती के पूजन का यह त्योहार आज भी परंपरा के सुंदर रंग सहेजने का माध्यम बना हुआ है।

होली के अगले दिन से शुरू होने वाले आस्था के इस उत्सव का चैत्र की तृतीया तिथि पर बहुत धूमधाम एवं उत्सवीय उल्लास के साथ का समापन होता है। सामाजिक जुड़ाव और पारिवारिक सौहार्द को पोसने वाला गणगौर पर्व बहू-बेटियों की मान-मनुहार से भी जुड़ा है। यह भारतीय संस्कृति में आस्था के संग सामुदायिक भाव-चाव को सींचने वाला सुंदर उत्सव है।

गणगौर स्त्रीत्व का उत्सव है। स्त्री मन के हर भाव को खुलकर कहने और जीने के उल्लास का पर्व है। बहू बेटियों की मनुहार का त्योहार है। सबसे खूबसूरत बात यह है कि यह महिलाओं को स्नेह और साथ की डोर में बाँधने वाला पर्व भी है। माँ-बेटी, ननद -भाभी, देवरानी-जेठानी ही नहीं सखियों के आपसी जुड़ाव को भी स्नेह के रंग में रंगने वाला पर्व हैै। सोलह दिन का ऐसा उत्सव जिसमें नारीत्व के रंग बिखरते हैं।

बहू बेटियां परम्पराओं के आँगन में खुशियों भरे साथ को जीती हैं। ठिठोली और मान मनुहार का यह पर्व महिलाओं के जीवन में उल्लास की दस्तक बनता है। हर घर में इस पर्व के रंग तो बिखरते ही हैं, लोकगीत गीत भी सुनाई देने लगते हैं। गांवों से लेकर शहरों तक, आज भी महिलाएं इस पर्व को खूब उत्साह से मनाती हैं। गणगौर के गीत आज भी पूरे मनोयोग से गाये जाते हैं। साथ ही इस पर्व से जुड़ी परंपराएं भी पूरे मन से निभाई जाती है।

बिखरते सामाजिक ताने-बाने के इस दौर में यह लोकपर्व और प्रासंगिक लगता है। इस साझे उल्लास को जीने से मिली ऊर्जा सिमटते मन-जीवन को साधती है। महिलाओं का यूं मिलजुलकर यह पर्व मनाना हमारी परम्पराओं का सबसे सुखद पक्ष है। इस मेलजोल को जीते हुए परिवार के लिए आशीर्वाद मांगना, उन्हें भी एक दूजे से गहराई जोड़ देता है।

यह जुड़ाव समग्र रूप से सामाजिक परिवेश में संवेदनाओं को सींचने वाला है। इतना ही नहीं अकेलेपन और मानसिक उलझनों से घिरते पारिवारिक सम्बन्धों को यह लोकपर्व जीवंत बनाता हैै। सखियाँ हों या रिश्तों की डोर में बंधी ननद -भाभी, देवरानी-जेठानी, सभी के लिए हास परिहास का यह दौर सोलह दिन तक चलता है। वसंत और फागुन के रुत में सजी- श्रृंगारित धरती और माटी की गणगौर का पूजन प्रकृति और स्त्री के उस मेल को बताता ,है जो जीवन को सृजन और उत्सव की उमंगों से जोड़ती है ।

पौराणिक कथा के अनुसार, इस दिन को दिन को भगवान शिव और माता पार्वती के विवाह उत्सव के रूप में भी मनाया जाता है। विवाहित महिलाएं वैवाहिक जीवन की खुशहाली के लिए ईसर-गौर से से प्रार्थना करती हैं। वहीं अविवाहित युवतियां आदर्श जीवनसाथी और भावी जीवन में सुखद सम्बन्धों को जीने का आशीष मांगती हैं। मिट्टी से ईसर और गौर बनाकर पूजा की जाती है।

गणगौर की पूजा में लोकगीत और दोहे गाये जाते हैं। सोलहवें दिन गणगौर पूजने से पहले दिन सिंजारा मनाने की परम्परा है। बेटी और बहू की मान मनुहार का हमारी संस्कृति में क्या स्थान है? यह सिंजारे के दिन महसूस किया जा सकता है। मानवीय भाव और सांस्कृतिक जुड़ाव को पोसता से यह पर्व सचमुच हमारे लोकजीवन में रचा बसा है।

आलेख

डॉ मोनिका शर्मा, मुंबई

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