विश्व सर्प दिवस एवं भागसूनाग की पौराणिक कथा
मेक्लॉडगंज नाम सुनकर किसी अंग्रेजी शैली के शहर की छवि मन में उभरती है जो प्रशासनिक छावनी जैसा हो, मगर यह धौलाधार पर्वत माला में कांगड़ा का ऐसा सुकून भरा और शांत शहर है कि आप थिम्फू को याद करने लगें।
मेरा सबसे प्यारा पर्यटन स्थल। जिसे मैं दो बार देख आया हूँ। हिमाचल के धर्मशाला से जुड़कर भी उससे पूरा अलग। धर्मशाला से ९ किलोमीटर दूर लेकिन लगता है कि भारत के शहर से अचानक आप बौद्ध मोनेस्ट्री के किसी देश पहुंच गए हो। धर्मशाला से जब अपनी कार उपर चढ़ाई चढ़ने लगती हैं सबसे पहले लाल-गेरूआ कौपिन धारण किए बौद्ध भिक्खु रास्ते में मिलते हैं, दरअसल वे चलित ध्यान मुद्रा को धारण कर चल रहे होते हैं।
मेक्लॉडगंज नाम ‘सर डोनाल्ड फ्रील मैक्लॉड’ ( पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर) के नाम पर रखा गया जबकि यह स्थान नौ हजार साल पुरानी बस्ती से आबाद जगह है। गंज का मतलब बाजार से है जो अब बौद्ध-तिब्बत संस्कृति के बाजार के रूप में समझा जा सकता है, यहां पर बुद्ध, अवलोकितेश्वर, बोधिसत्व, तारा, भैरव आदि से जुड़े शिल्प, थांग्का, पेंटिंग, खिलौने, रत्नमाला वगैरह सब मिल जाएँगे। साथ ही मिलेंगे मोहक सुस्मित तिब्बत वासी जिनके चेहरे पर निर्वासन की पीड़ा आप हर पल महसूस कर सकते हैं। यह स्थान पर्यटकों की सुविधा के हॉटल, लॉज, रेस्तरां आदि की दृष्टि से युक्त है। यहां का सौन्दर्य मन को मुग्ध करने वाला है। पहाड़ की गहरी तराई की तरफ कतार में बने सुंदर तिब्बती स्थापत्य के भवन मन को लुभाते हैं। सँकरी सड़क के दोनों ओर भरा पूरा बाजार जिसके बीच यदि पैदल भ्रमण किया जाए तो वहां कि पूरी संस्कृति के साक्षात दर्शन का सुंदर अवसर मिलता है। इस तिब्बती बाजार में बहुत कम बोलकर अपनी वस्तु की जानकारी देने वाले सरल, सहज और आकर्षक दुकानदार मिलते हैं। न आम भारतीय दुकानदारों की तरह उनका ग्राहक पकड़ू व्यवहार न वैसी धूर्तता। हां सामान मंहगे जरूर प्रतीत होंगे।
तिब्बत से सन १९५९ में निर्वासित हुए दलाई लामा का सेक्रेटेरियट, नामग्याल मोनेस्ट्री, बौद्ध – अवलोकितेश्वर, पद्म संभव मंदिर, मंदिरों में लगे प्रार्थनाचक्र (जिसमें ‘ॐ मणि पद्मे हुम’ लिखे मंत्र होते हैं जिन्हे घुमाने से माला फेरने की तरह पुण्य मिलता है, कहा जाता है) भिक्षुओं के विहार, संघाराम, तिब्बत के लिए आत्माहूति देने वाले वीरों का स्मारक, साहित्य विक्रय केंद्र आदि सभी चीजें यहां हैं। देवदार, चीड़ और शाहबलूत के वृक्षों के साथ हिमाचली बुरूश वनस्पतियों व पेड़ों से आच्छादित गिरि श्रृंखला की शीतल, शांत और स्निग्ध समीर अपने अंदर ऐसी जीवन ऊर्जा भर देती है कि वहां से लौटने का मन न करे। मेक्लॉडगंज इसी तिब्बती संस्कृति की पहचान से पूरी तरह ओतप्रोत हो चुका है।
सेंट जॉन द बॉपटिस्ट का चर्च भी अपनी शैली में खूबसूरत है और सुंदर घने ऊंचे देवदार, चीड़ वृक्षों के बीच है जो अपने अलग स्थापत्य से अनूठा भी है, मगर वहां सैलानी थोड़े कम जाते हैं। दलाई लामा परिक्षेत्र से थोड़ा आगे भागसूनाग मंदिर है, यह सबसे पुरानी जगह है जो देश की प्रथम इन्फेन्टरी गोरखा रेजिमेंट के कुल-देवता का मंदिर है, गोरखा शौर्य की गाथाएँ यहां देखी जा सकती है। कितने ही गोरखा फौजी यहां दर्शनार्थ आए हुए मिल जाते हैं। गोरखा फौजियों के बारे में एक मुहावरा है कि – “यदि कोई आदमी कहे कि वह मौत से नहीं डरता तो समझ लीजिए कि या तो वह झूठा है या गोरखा है।” यहां के स्थानीय निवासियों के हाथों बनी आइसक्रीम पेड़ के पत्तों पर खाने के लिए दी जाती है, जरूर खाएँ।
भागसूनाग को लेकर यहां जनश्रुति ध्यान देने लायक है, भागसू नामक राक्षस का राज्य अजयमेरू (अजमेर) में था यह नौ हजार साल पुरानी बात है, तब राजस्थान में अकाल पड़ा और भागसू के राज्य की जनता को पानी के लिए त्राहि त्राहि करना पड़ा, भागसू राक्षस अपनी प्रजा के लिए पानी की खोज में कांगड़ा घाटी में स्थित डल झील पहुंचा (कांगड़े में झीलों को डल कहा जाता है) और वहां के राजा नागदल की डल झील के पानी को चुरा कर उसे अपने कमंडल में ले लिया। डल झील से लौटने के दौरान भागसूनाग नामक इस जगह पर उसे नींद लग गई, तब तक नागदल की इस झील का पानी नहीं होने की खबर से जनता में चीख पुकार मच गई, वहां के राजा नागदल के पास खबर पहुंची तो वह पानी की खोज में सोए हुए भागसू के पास पहुंचा और उसने पानी की चोरी के विरूद्ध उसे ललकारा, जनश्रुति के इतिहास में पानी के लिए यह पहला युद्ध कहा जा सकता है।
नागदल अपनी प्रजा के लिए पानी की चिंता में लड़ रहा था और भागसू राक्षस अपनी प्रजा के लिए पानी की चिंता में लड़ रहा था। युद्ध में भागसू की हार हुई और अपनी मृत्यु से पहले नागदल से अपनी प्रजा की चिंता के लिए युद्ध करने के लिए क्षमा मांगी। भागसू राक्षस के प्रजाहित में युद्ध कर प्राण त्यागने के उपलक्ष्य में राजा नागदल ने भागसू को वरदान दिया कि उस स्थान का नाम, जहां युद्ध हुआ भागसूनाग नाम से जाना जाएगा, नागदल झील का नाग शब्द दल से विलग होगा और झील अब दलझील (डल झील) के नाम से जानी जाएगी।
उस डल (दल) झील से निकलने वाली नदी पर बना जलप्रपात भी भागसू प्रपात के नाम से जाना जाएगा। इस प्रकार अलिखित इतिहास का पहला जलयुद्ध इस भागसूनाग मंदिर के नाम दर्ज है। जनश्रुति है कि बाद में भागसू की प्रजा के लिए पुष्कर झील में इसी दलझील का पानी ले जाया गया। किसी स्थान के भौगोलिक पर्यावरण के साथ प्राचीन जनश्रुतियां हमें उसकी आत्मा से जोड़ती है। पर्यटन के लिए केवल हमारा शरीर ही नहीं पहुंचता. हमारी आत्मा भी उन पौराणिक कथाओं में आनंद का अनुभव करती है और पुरा काल की लोक चेतना के दर्शन होते हैं।
भागसूनाग मंदिर से थोड़ा आगे वही डल झील है। छोटी किंतु पहाड़ की तराई में स्थित यह झील सुंदर भी है और मनमोहक भी। पहाड़ की तरफ देवदार के दो सौ फीट से ऊँचे वृक्षों की आदृश्य श्रृंखला और डल झील के सभी तरफ कांक्रीट से बना पक्का घाट और सड़क टहलने के लिए कॉरिडोर का काम करते हैं। डल झील से लगा हुआ दुर्वेश्वर शिव जी का मंदिर भी है। झील में दो एक छोटी नाव भी परिवार के बोटिंग का आनंद लेने के लिए उपलब्ध है।
डल झील के आगे नड्डी गांव है। कांगड़ा घाटी के इस गांव से धौलाधार पर्वतमाला के शिखरों पर बर्फ दिखती है। नड्डी गांव भी अपनी प्राकृतिक सुंदरता में आकर्षक और नयनाभिराम दृश्यावलियों से सम्पन्न है। मैं सलाह दूंगा कि इस जगह को पूरा समय देकर घूमना चाहिए। यात्रा का आनंद तभी है जब यात्रा धीमी हो और वहां की सभी बातों को अभिव्यक्त करती हो।
मैकलोडगंज मैं भी गया हूं
उस तालाब तक भी गया है
मुझे लग रहा था कि उसका नाम वासुकि नाग के नाम पर है
बहुत ही मनोरम जगह है
अगर आपके पास तस्वीर हो तो लगा दीजिएगा
मैं तिब्बत सरकार के शासकीय होटल में टिका था
कमरे छोटे थे और बाथरूम भी छोटा था
लेकिन स्टाफ काफी शालीन थे
धर्मशाला से पहले एक और जगह है डलहौजी
जाने की इच्छा है
मुहावरा जबरदस्त है
– “यदि कोई आदमी कहे कि वह मौत से नहीं डरता तो समझ लीजिए कि या तो वह झूठा है या गोरखा है।”