वनवासियों के मसीहा क्रान्तिकारी अल्लूरी सीताराम राजू का बलिदान

महान क्रांतिकारी अल्लूरी सीताराम राजू का जन्म 4 जुलाई 1897 को विशाखापट्टणम जिले के पांड्रिक गांव में हुआ। क्रांतिकारी राजू ने स्कूली शिक्षा के साथ वैद्यक और ज्योतिष का भी अध्ययन किया । उनका समर्पण भारतीय संस्कृति के प्रति रहा वे छात्र जीवन में ही वनवासी समाज को संगठित कर अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष आरंभ कर दिया था । शुरू किया तो इन विधाओं की जानकारियों ने उसे अभूतपूर्व सहायता प्रदान की। राजू का पालनपोषण उसके चाचा अल्लूरी रामकृष्ण के परिवार में हुआ। इनके पिता अल्लूरी वेंकट रामराजू गोदावरी के माग्गूल ग्राम में रहते थे।

राजू के क्रांतिकारी साथियों में बीरैयादौरा का नाम विख्यात है। बीरैयादौरा का पहले में अलग संगठन था । फिर उन्होंने अपना संग़ठन राजू के साथ जोड़ लिया था । वर्ष 1918 में बीरैयादौरा गिरफ्तार कर लिये गये । लेकिन वे जेल की दीवार कूदकर जंगलों में भाग गये। उसके बाद बीरैयादौरा ने दल से संपर्क ज़ोडकर ब्रिटिश सत्ता से संग्राम तेज किया । जिसमें वो दोबारा जेल भेज दिए गए । एक दिन बीरैयादौरा को पुलिस दल बीरैया को हथकडी बेड़ियों में कसकर अदालत ले जा रहा था, तब सीताराम राजू ने धावा बोला दिया। दोनों तरफ से गोलियां चलीं, लेकिन क्रांतिकारी दल भारी पड़ा और बीरैयादौरा को मुक्त कराकर ले गये । यह घटना अंग्रेजी सत्ता के लिए एक बड़ी चुनौती थी । अंग्रेजी पुलिस ने राजू तथा बीरैया की खोज में छापे मारे और जंगलों में आग लगाने लगे ।

अंग्रेजों ने इन क्रातिकारियों को पकड़ने केलिये दस हजार रु नगद इनाम घोषित कर दिया । वर्ष 1922-23 में यह धनराशि एक ब़डा प्रलोभन था। गांधीजी ने राजू के लिए ठीक ही कहा था कि ‘उस वीरात्मा का त्याग बलिदान, मुसीबतों भरा जीवन, सच्चाई, सेवा भावना, लगन, निष्ठा और अदम्य हिम्मत प्रेरणादायक है ।

क्रांतिकारी सीताराम राजू ने आंध्र क्षेत्र के सैक़डों नौजवानों में क्रांति की अलख जगाई थी। राजू के कहने पर नौजवान साथ ख़डे हो जाते थे । क्रांतिकारी राजू ने अपना संगठन ख़डा करने के साथ उत्तराखंड के क्रांतिकारियों से सम्पर्क किया। यही नहीं गदर पार्टी के नेता बाबा पृथ्वी सिंह को दक्षिण भारत की राज महेन्द्री जेल से छ़ुडाने का भरसक प्रयास किया। सीताराम राजू गुरिल्ला पद्धति से युद्ध करते और नल्लईमल्लई पहा़डयों में अन्तर्ध्यान हो जाते। गोदावरी नदी के पास फैली यह पहा़डयां राजू व उसके साथियों की आश्रयदात्री व प्रशिक्षण केन्द्र दोनों थी। यहीं वे युद्ध के गुर सीखते, अभ्यास करते व आक्रमण की रणनीति बनाते। इसी जगह को रम्पा कहा जाता था।

राजू द्वारा चकमा देकर पहा़डयों में विलुप्त हो जाने की वजह से अंग्रेज उन्हें रम्पा फितूरी कहते थे। ब्रिटिश अफसर राजू से लगातार मात खाते रहे। आंध्र की पुलिस राजू के सामने व्यर्थ साबित हो चुकी थी। अंत में केरल की मलाबार पुलिस के दस्ते राजू पर लगाए गए, क्योंकि उन्हें पर्वतीय इलाकों में छापे मारने का अनुभव था। १२ अक्टूबर १९२२ को नल्लईमल्लई की पहा़डयों की घाटी में ये दस्ते रवाना किए गए। मलाबार पुलिस फोर्स से राजू की कई मुठभ़ेडें हुईं।

६ मई १९२४ को राजू के दल का मुकाबला सुसज्जित असम राइफल्स से हुआ, जिसमें उसके साथी शहीद हो गए, पर राजू बचा रहा। अब ईस्ट कोस्ट स्पेशल पुलिस उसे पहा़डयों के चप्पेचप्पे में खोज रही थी । ७ मई १९२४ को जब वे अकेले जंगल में जा रहे थे, तो फोर्स के अफसर की नजर राजू पर प़ड गई । पुलिस दल ने राजू पर पीछे से गोली चलाई। राजू जख्मी होकर वहीं गिर प़डे और गिरफ्तार कर लिये गये । यातनाएं शुरू हुई । अन्य साथियों के नाम पूछे गये । कठोर यातना सहकर भी उन्होंने किसी का नाम न बताया । अंततः उस महान क्रांतिकारी को नदी किनारे ही एक वृक्ष से बांधकर भून दिया गया । इस बलिदान के साक्ष्य थे गोदावरी नदी और नल्लईमल्लई की पहा़डयां हैं । जहां आज भी अल्लूरी सीताराम राजू जिंदा है ।

टिप्प्णीकार लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।