इतिहास के आइने में बेलसंड-सीतामढ़ी
डॉ. लोकेश कुमार शरण की समीक्षा और विस्तारित संदर्भ
सीतामढ़ी का महत्व रामायण की कथा के अनुसार सही ढंग से समझा जा सकता है। राजा जनक सीतामढ़ी के पुनौरा और उर्विजा कुंड क्षेत्र में अनावृष्टि को रोकने हेतु हल चलाने, कृषि कर्म का उद्घाटन करने आये थे। इसी-के दौरान सीता जी प्राप्त हुई। इसी क्षेत्र में हलेश्वर स्थान मंडल है, जहाँ कृषि कर्म के उपरान्त हल रखा गया था। सीता जी की स्मृति से ही जुड़ा एक स्थान पंथपाकड़ है, जहाँ पर विवाह उपरान्त आयोध्या जाते हुये सीता जी की डोली रखी गयी थी, थोडे़ समय के लिये। कथा तो यह भी सुनी जाती है कि राजा जनक ने अपनी पुत्री और दामाद की कीर्ति को अमिट रखने के लिये मंदिर का निर्माण करवाया तथा उनकी मूर्तियाँ स्थापित की। सरसंड के पास का वाल्मिकी ऋषि के आश्रम के नाम से प्रसिद्ध स्थान देकुली मंदिर के विषय में विश्वास किया जाता है कि परशुराम-राम का संवाद यहीं घटित हुआ था। देकुली का मंदिर शिव मंदिर है। स्थापत्य निश्चित रूप से पुराना है।
देकुली का महत्व महाभारत काल में भी बना रहा और कुछ मुख्य घटनाओं का यहीं घटित होना बताया जाता है, जिनमें लाक्षागृह तथा दु्रपद द्वारा संतान हेतु यज्ञ किया जाना तथा अर्जुन का मछली की आँख पर निशाना लगाना भी शामिल है। दमामी का शिव मंदिर, अथरी का बाणेश्वर शिव मंदिर तथा नेपाल स्थित जलेश्वर मंदिर प्रमुख है। जलेश्वर स्थान के शिव मंदिर को भी जंगल के बीच खोजा गया। जलेश्वर पार करने के बाद जनकपुर नगर जहाँ राम-जानकी मंदिर स्थित है। इस संक्षिप्त विवरण से यह साफ तौर पर दिखता है कि सीतामढ़ी क्षेत्र में हिन्दू धर्म की राम भक्ति शाखा तथा शैव मत सर्वाधिक शक्तिशाली थे। कृष्ण शाखा समेत अन्य मत का प्रभुत्व क्षीण है। 1860 के दशक में राजपूतों तथा भूमिहारों की आवक होती है। मध्यकाल में राजा परसौनी के प्रसंग से इस्लाम का विस्तार दिखता है। यह परिवार पहले भूमिहार था, जमींदारी उत्तराधिकार विवाद में एक धड़े ने लाभ पाने के लिये धर्म बदला लिया।
सत्ता की चमक सर चढ़ती है। 1949 की घटना है। मेरे पिता जी ने किसी चश्मदीद से सुनी थी, उन दिनों जीप भी बड़ी सवारी हुआ करती थी। रूतबे का सिंबल भी। मुजफ्फरपुर सीतामढ़ी के मार्ग पर भनसपट्टी लचका के ऊपर से बागमती का पानी तेजी से बह रहा था। ड्राइव्हर ने कहा कि पानी की धार काफी तेज है। जीप से पार करना खतरनाक होगा। राजा सलाउद्दीन हैदर खाँ समझने के लिये तैयार नहीं थे। उनकी जीप के आगे पानी क्या कर सकती है। उन्होंने हिकारत के साथ ड्राइव्हर को उतारा और खुद ड्राइव करने लगे। पानी की धार ने जीप को अपनी गिरफ्त में लेना शुरू किया। जीप पानी के जोर से फिसलने लगी। स्टेरिंग का कंट्रोल खत्म हो गया। जीप सड़क से धीरे-धीरे नदी की धार में धकेली जाने लगी। अंततः जीप नदी में समाहित हो गयी। ड्राइव्हर रोता चिल्लाता रह गया। सड़क पर तमाशबीनों के साथ अपने आप की कोस रहा था कि मैं जीप से उतर क्यों गया। नहीं उतरता तो उन सब के साथ ही डूब जाता। जाहिर तौर पर यह भी समझ में आती है कि ड्राइव्हर का राजा परसौनी के यहाँ स्वागत नहीं होना था कि वह बच गया था। प्रश्न यह किया जाता कि तुम बच क्यों गये और तुम्हें लाज नहीं आई बच जाने से।
लेखक ने अपनी पुस्तक 1857 में के संदर्भ में मुजफ्फरपुर के मड़वन प्रखंड स्थित बड़कागाँव तथा बेलसंड के तरियानी प्रखंड के धरमपुर गाँव के 28 ऐसे व्यक्तियों का नाम अभिलेखीय साक्ष्य के आधार खोज पर निकाला है जिन्हें कालापानी की सजा दी गयी थी। उनकी संपत्ति जब्त कर ली गयी। इन अठाइस लोगों में राजगोपाल ज्वाला भी था जो तरियानी क्षेत्र के पोटासुरका गाँव का रहने वाला था। लेखक की पूरी कोशिश के बाद भी पोटासुरका गाँव का लोकेसन नहीं मिल सका। पुपरी थाना के बनगाँव गोट के जमींदार धर्मलाल सिंह का 36 लोगों के साथ जगदीशपुर जाकर वीर कुंवर सिंह की सेना में शामिल होने का उल्लेख करते हैं। इनमें से मात्र 11 लोग जीवित लौट पाये। नील कोठी में विल्सन नामक राजस्व अधिकारी था। उसने धर्मलाल के परिजनों को सताना शुरू किया। उनकी चाची के 56 एकड़ जमीन पर कोठी का कब्जा कर लिया। पालकी में जा रही महिला को उसने जबरन पकड़ लिया। अपनी कोठी में ले जाकर रखा। कहारों को पीट कर भगा दिया। अब इस तरह अपनी कोठी में बंद करने का आशय आसानी से समझा जा सकता है। कहारों में से एक भाग कर धर्मलाल सिंह के पास पहुंचा। इस तरह की छेड़-छाड़ और धर-पकड़ को महिला की इज्जत से जोड़ा जाना था। भीड़ जमा होने लगी। 1857 की पराजय का बहुत असर नहीं था। भीड़ पर कोठी ने हमला कर दिया। विल्सन की पिटायी उसके बेहोश होने तक की गयी और अंततः उसे मृत समझ कर छोड़ा गया। पहरेदारों के साथ हुई भिड़ंत में धर्मलाल सिंह भी घायल हुये। इस मामले में 14 लोग गिरफ्तार हुये और उन्हें जेल भेजा गया। इस घटना के बाद उनके बारे में कुछ नहीं पता चलता और वे सारे लोग गुमनाम हो गये। 1857 की परिघटना से ही ब्रिटिश पल्टन के बागी सैनिक बंशीपचड़ा का खड़न बबाका मंदिर स्थापना कार्य जुड़ा है। इस मंदिर की स्थापना के लिये रामवृक्ष बेनीपुरी जी के मामा ने जमीन उपलब्ध करायी थी।
आधुनिक भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का आखरी चरण का सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यक्तित्व महात्मा गाँधी का रहा है। उनके चंपारण आंदोलन ने निलहे साहबों से किसानों को मुक्ति दिलायी। इस मुक्ति की मात्रा पर इतिहासकार का आकलन अनेक प्रकार का रहा है। बेलसंड चंपारण से बहुत दूर नहीं है और इसका प्रभाव बेलसंड तक आता दिखता है। तिरहुत संभाग का बेलसंड इलाका तब भी और अब भी उर्वर रहा है। बागमती की अनेक धाराओं ने इस क्षेत्र को उर्वर बनाया है। पूरे प्रांत में नील की 86 कोठी थी। 1875 में बेलसंड में अंग्रेजों द्वारा नील की कोठी स्थापित की गयी। यहाँ नील तैयार होता तथा पेंटिंग की जाती थी। नील कोठी की स्थापना रून्नी, सैदपुर, बेनीपुर, कठोर, मननपुर, पताही, परसौनी, चंदौली, धापड़, रामनगर, बाराडीह, मधकौल, तरियानी, छपरा आदि क्षेत्रों में की गयी। किसानों तथा मजदूरों का शोषण होता था। बेगार नहीं करने वाले मजदूरों तथा किसानों की पिटायी होती थी। बेलसंड कोठी के बारे से एक और बुरी सूचना है। कोठी के अहाते में शादी करके आने वाली बहुओं की डोली रखी जाती थी। परंपरा के अनुसार सुंदर बहुओं को सुहागरात की रस्म अपने पति से पहले कोठी के अधिकारी के साथ बितानी होती थी। बड़ी जाति की सुंदर बहु और उसके ससुराल वालांे को इस अपमान से गुजरना होता था। तरियानी, छपरा और पास के क्षेत्र से लोगों ने बेलसंड कोठी के सामने वाली सड़क और अहाता से डोली लेकर वापस आना छोड़ दिया। डोली वैसे रास्ते से ले जायी जाती जो कोठी से चार-छह किलोमीटर दूर से गुजरती थी। कोठी का सिर्फ आर्थिक ही नहीं सामाजिक आंतक भी था। नील की खेती और इस तरह की घटना पर नजर रखने के लिये वॉच-टॉवर का निर्माण किया गया था। स्थानीय तौर पर इसे बुर्ज कहा जाता था। इस तरह के गुंबद नुमा का उल्लेख बुर्ज मदनपुर, मीनापुर में, घोसोत तथा कफेन में भी है। चंपारण में नील आंदोलन को सफलता मिली और उसका लाभ बेलसंड में हुआ। नील की कोठी वालों का मन टूटने लगा।
महात्मा गाँधी फिर बिहार से लौट गये और अहमदाबाद के मिल मजदूर तथा खेड़ा के किसानों के आंदोलन में रत हो गये। इसके बाद सरकार से किये अपने वादे के कारण सेना में किसानों की भर्ती के अभियान में निकले। खेड़ा जिले में भी किसानों ने उनकी नहीं सुनी। सवारी के लिये बैलगाड़ियाँ तक नहीं मिली। गाँव के बाहर की सीमा पर सरदार पटेल और महात्मा गाँधी तीन दिन तक पड़े रहे और टिक्कड़ बना कर खाते रहे। बीस- बीस मील तक एक दिन में पैदल चले। गाँधी जी इन तकलीफों और तनाव को बर्दाश्त नहीं कर सके और बीमार हो गये। दवा तो वह लेते नहीं थे। इंजेक्शन लेने से भी मना किया। अंबालाल सारा भाई उनको अपनी हवेली ले गये। बुखार भी आ गया। गाँधी जी को लगा कि उनके मरने का समय आ गया। तेज बुखार में ही साबरमती आश्रम पहुँचाने की जिद करने लगे और आश्रम पहुँच कर ही चैन लिया।
बिहार से महात्मा गाँधी जी का सर्वाधिक जुड़ाव था। इस नाते इस संकट की घड़ी में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद साबरमती आश्रम पहुँचे। उन्होंने देखा कि शरीर सूख कर लकड़ी हो गया था और जीवन का कोई उत्साह शेष नहीं था। गाँधी जी को अपने जीवन पर बड़ा पश्चाताप था। उन्हें लगता था कि उन्होंने किसी काम को पूरा नहीं किया। जिसे भी उठाया अधूरा ही छोड़ दिया। अन्त समय निकट आया जान कर गीता सुनने लगे और आश्रम वासियों को अपने पास बुला लिया। इस समय उन्होंने आखरी संदेश के रूप में कहा कि भारत को मुक्ति अहिंसा के माध्यम से ही मिलेगी। इसके बाद बर्फ से इलाज करने वाले डॉक्टर के इलाज में उन्हें लाभ हुआ। इस संकट के समय राजेन्द्र प्रसाद के पहुँचने से बिहार से उनका लगाव और भी गहरा हुआ। रौलट सत्याग्रह, जलियाँवाला कांड तथा सरलादेवी रानी चौधरानी वाले प्रकरण ने उन्हें फिर जीने की लालसा का बिंब दे दिया। बरास्ते खिलाफत असहयोग आंदोलन प्रारंभ हुआ तो सीतामढ़ी ने अपनी अग्रणी भूमिका निभायी।
सीतामढ़ी के एकमात्र सरकारी स्कूल के शिक्षक जानकी प्रसाद वर्मा ने अपनी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। सरकार ने इसे गंभीरता से लिया क्योंकि इसके बाद श्री फतहबहादुर सिंह, महेन्द्र सिंह तथा इसहाक साहब ने मुखत्यारी एलानिया तौर पर छोड़ दी। 10 फरवरी 1921 को सीतामढ़ी में कांग्रेस की सभा आयोजित थी। ठाकुर रामनंदन सिंह समेत अन्य पर धारा 144 के तहत् प्रतिबंध लगा कर सभा को संबोधित करने से रोका गया। इन लोगों से जमानत बाँड भराया गया। सीतामढ़ी में बड़ी संख्या में स्वयंसेवक भर्ती किये जा रहे थे। यह संख्या बीस हजार से अधिक थी। आंदोलन अपने उत्साह की चरम् सीमा पर जा रहा था। बेलसंड नील कोठी मालिक मिस्टर रिट ने अपनी कोठी समेत सारी सम्पत्ति अपने मैनेजर डायसन को बेच दी। मुजफ्फरपुर में रजिस्ट्री कर कागजी काम पूरा किया तथा इंग्लैंड वापस हो गये। चौरी-चौरा कांड के कारण असहयोग आंदोलन महात्मा गाँधी जी द्वारा वापस ले लिया गया।
सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान जनकधारी प्रसाद, रामनंदन सिंह, रामदयालु सिंह, ठाकुर नवाब सिंह के नेतृत्व में स्वयंसेवकों का जत्था मुजफ्फरपुर से मीनापुर, नरवारा, तरियानी, सोनबरसा होते हुये शिवहर पहुँचा तथा सभा की। इसी-के साथ बेलसंड, शिवहर, बाजपट्टी, सोनबरसा, रोगा सन्नी, सैदपुर आदि क्षेत्रों में नमक बनाने का आंदोलन फैल गया। तरियानी, छपरा, औरा में नूनथर अर्थात् नमकीन मिट्टी से नमक बनाने का काम किया गया। पुलिस का दमन शुरू हुआ तो स्वयंसेवक छिप गये। पुलिस ने गाँव से घड़ा और रस्सी तक जब्त कर लिया, जिससे पानी पीना भी मुश्किल हो गया। बेलसंड के कांग्रेस आश्रम को पुलिस ने ध्वस्थ कर दिया। शिवहर थाना में भीड़ जमा हो गयी थी। पुलिस को गोली चलानी पड़ी। सरकारी आँकड़ों के अनुसार इसमें चार लोग मरे तथा नौ घायल हुये। बैरगनिया में भीड़ लाठी और ढेले लेकर आयी। दारोगा कुछ नहीं कर सका। गाँधी-इर्विन समझौते के बाद सीतामढ़ी में 1500 कैदी छोड़े गये।
1942 के आंदोलन ने ब्रिटिश सरकार और प्रशासन को पूरी तरह हिला दिया। इसका असर बेलसंड, सीतामढ़ी में भी भरपूर हुआ। मुजफ्फरपुर शहर में जुब्बा सहनी के नाम पर अत्यंत ही रमणीक पार्क का निर्माण 1990 के दशक में किया गया था। यह पार्क मुजफ्फरपुर के अतिप्रसिद्ध सोनागाछी प्रकार के महल्ले चर्तुभुज स्थान को पार करके जाना होता था, अगर कलेक्ट्रेट या मोतीझील तरफ से चला जाये तो। लालूप्रसाद यादव के शासन काल में इस तरह के वंचित और उपेक्षित नायकों को प्रमुखता मिली। जुब्बा सहनी का जन्म मीनापुर थाना के चैनपुर गाँव में पांचू सहनी के परिवार में हुआ था। सहनी परिवार मछली पकड़ने के जातिगत् पेशे में था। लगभग 20 वर्ष की आयु में 1927 के वर्ष उन्होंने भिखनपुरा के चीनी मिल के लिये काम करना शुरू किया। काम था खेत में गन्ना काटना तथा गाड़ी पर लादना। भूख लगने के कारण जुब्बा सहनी ने लंच आवर शुरू होने के पहले काम छोड़ कर पनपिआई खाना शुरू कर दिया। ऐन इसी समय सुपरवाइजर आ गया। वह नशे में था। उसे लगा कि जुब्बा गलत कर रहा है। उसने जुब्बा को गाली देना और पीटना शुरू किया। भूख से परेशान लेकिन बलिष्ट जुब्बा ने सुपरवाइजर को पीटना शुरू किया और खूब पीटा। इस कांड के बाद मीनापुर थाना में उनके खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करायी गयी। जुब्बा सहनी को फरार होना पड़ा। पुलिस पकड़ नहीं सकी। सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान जुब्बा फिर पूरी तरह सक्रिय रहे और पकड़े गये। भरपूर पिटायी हुई और हड्डियाँ टूटी। इलाज के बाद ही ठीक हो पाये।
भारत छोड़ो आंदोलन के समय क्षेत्रीय असंतोष का विस्फोट हुआ। 15 अगस्त 1942 को आंदोलनकारी मीनापुर थाना पर झंडा फहराने पहुँचे। भीड़ में लोग बहुत नहीं थे। क्योंकि इसी दिन बेलसंड थाने पर भी कब्जा कर झंडा फहराने की कोशिश हुई थी और यह प्रयास कामयाब रहा था। 15 अगस्त को थाने की तैयारी देखकर भीड़ लौट गयी। यह तै हुआ कि अगले दिन फिर प्रयास किया जायेगा। कांग्रेसी आस-पास क्षेत्र में घूमें। तरियानी छपरा, और बंशी पचड़ा, सोनबरसा, नखारा, बेलसंड, रामपुर हरि तथा आस-पास के गाँव से लोग मीनापुर थाना के सामने जमा हो गये। हजार से अधिक की भीड़ थी। भीड़ ने थाना में प्रवेश किया और कब्जा कर किया। थाने पर कांग्रेसी झंडा फहरा दिया गया। अपना अपमान समझते हुये दरोगा लियो बालर ने भीड़ पर गोली चलाना शुरू किया। बांगुर सहनी की मौके पर मौत हो गयी। और लोग भी घायल हुये। बांगुर सहनी के मरते ही भीड़ में जोश का संचार हुआ। जुब्बा सहनी ने फिर अपने नेतृत्व में थाने पर हमला किया। इस दूसरे हमले के कारण दरोगा लियो बालर थाने से बाहर भागा। खेतों की तरफ दौड़ा। भीड़ ने दौड़कर पकड़ लिया। रस्सी से बाँध कर थाने में लाया गया। लकड़ी के सारे फर्नीचर जमा कर चिता की तरह बना दिया। रस्सी से बँधे बालर को उस पर डाल कर जिन्दा जला दिया। लोगों को अंदाजा था कि सरकार की तरफ से प्रतिहिंसा में क्या कुछ होने वाला है। कुछ तो भाग कर नेपाल चले गये। मीनापुर में सामूहिक जुर्माना लगाया। 188 लोगों पर मुकदमा दायर हुआ जिसमें 56 लोग दोषी घोषित हुये। जुब्बा सहनी को फाँसी को सजा दी गयी। 11 मार्च 1944 को भागलपुर जेल में उन्हें फाँसी पर लटका दिया गया। उस समय उनकी आयु 38 वर्ष की थी।
बैरगनिया, ढेंग, रीगा, सीतामढ़ी, बाजपट्टी स्टेशनों पर भीड़ ने कब्जा कर झंडा फहराने का काम किया। रेल लाइन काटी गयी। दोनों पक्ष से भरपूर हिंसा हुई और पुलिस ने अनैतिक स्तर तक हिंसा की। बेलसंड समेत अनेक थाने बंद हो गये। राजेन्द्र प्रसाद ने अपनी आत्मकथा में तरियानी छपरा की यात्रा का वर्णन किया है। इसी प्रसँग में उन्होंने शिवहर ठाकुर नवाब सिंह और उनके परिवार का वर्णन किया है। नवाब सिंह प्रमुख नेता थे और दमन से बचने तथा भूमिगत् आंदोलन के संचालन हेतु नेपाल चले गये। वहीं उनकी मृत्यु हुई।
रीगा रेल्वे स्टेशन पर भी झंडा फहराया गया। स्टेशन मास्टर एन.बी. शरण ने जी.आर.पी. में एफ.आई.आर. कराया कि 51 नामजद लोगों और 400 अज्ञात ने तोड़-फोड़ की। रीगा से परसौनी जाने के रास्ते में रेवासी गाँव है। भारत छोड़ो आंदोलन के लिए यह गाँव क्षेत्रीय मुख्यालय बन गया था। मथुरा मंडल और यमुना जी प्रमुख नेता थे। लोकस्मृति में अमिट है कि भारत में अंग्रेजों की सहायता के लिये अमेरिकी फौज भी आयी थी। रीगा से इस फौज का एक दस्ता रेवासी के लिये चला। रीगा चीनी मिल का वरिष्ठ अधिकारी मि. विंसेट इस दस्ते साथ कमांडर की भूमिका में था। खरसान की सीमा में घुसते ही दिखा कि श्रीराम विवेक सिंह, दामोदर सिंह, जमादार गुरू जी ने अपने दल-बल के साथ सड़क को काट कर दल-दल बना दिया था ताकि दस्ते की गाड़ी फँस जाये। गोरी फौज गाँव में घुसी और पिटायी हुई। युवक दल भाग चुका था। गोरा दस्ता किसी तरह रेवासी पहुँचा। वहाँ भी पिटायी शुरू हुई। मथुरा मंडल और उनके साथियों ने लाठी से हमला किया। भिड़ंत हो गयी। फौज ने गोली चलायी। मथुरा मंडल शहीद हो गये वहीं पर। आस-पास के गाँव में भी खबर फैली। गाँव कुछ समय के लिये वीरान हो गये। बैरगनिया के द्वारिका पासवान के पुत्र रामदेव पासवान ने अपनी आत्मकथा ‘एक लाचार स्वतंत्रता सेनानी की गाथा‘ नाम से लिखी। पुस्तक छोटी है पर महत्वपूर्ण। उनके माता-पिता सदा के लिये घर से चल गये। पत्नी मायके चली गयी और फिर आजादी के बाद ही लौटी । 1956 में बिहार सरकार ने इन लोगों की थोड़ी मदद की। फिर 1972 में इंदिरा जी केे समय नियमित तौर पर पेंशन की व्यवस्था की। जे.पी. तथा गिरिजानंदन सिंह को 1970 के दशक में प्रारंभ किये गये पेंशन योजना हेतु फरार क्रांतिकारियों की फरारी को प्रमाणित करने का अधिकार सरकार द्वारा दिया गया। जो स्वयंसेवक जेल गये थे उनके लिये जेलर द्वारा जेल रिकार्ड के आधार पर प्रमाण पत्र जारी किया। यह सरल तरीका था। इस आधार पर पेंशन दिया गया। पर इसमें भी गड़बड़ हुई। जो लोग अपराध के कारण जेल गये थे उनमें से कुछ धुर्त लोगों ने अपने जेल जीवन का प्रमाण पत्र प्राप्त कर पेंशन प्राप्त कर लिया।
पेंशन योजना शुरू होने के पहले काफी स्वतंत्रता सेनानी स्वभाविक मौत मर चुके थे। इनमें से एक थे श्री फतह बहादुर सिंह। तरियानी छपरा के सम्पन्न किसान जुब्बा सिंह के पुत्र। समय पर शादी हो चुकी थी। सीतामढ़ी कोर्ट में मुख्तयारी का काम करते थे। एकमात्र पुत्र विजय बहादुर सिंह। फतह बाबू राजनीति में आ गये। ठाकुर नवाब सिंह और नरेंद्र देव कृपलानी जी और अनुग्रह नारायण सिंह के सीधे संपर्क में थे। असहयोग आंदोलन के दौरान प्रथम पुत्र के जन्म उपरांत पत्नी की मृत्यु हो गयी। परिवार और समाज के दबाव में उन्हें फिर से शादी की स्वीकृति देनी पड़ी। उनके व्यक्तित्व के अनुरूप गुणवती कन्या की खोज हुई। यह खोज मोतीहारी चंपारण के फुलवार गाँव की मेधावी और सुन्दर कन्या देवमति कुमारी पर समाप्त हुई। देवमति स्कूल जाती थी और उसे छात्रवृति मिल रही थी। इस पत्नी से फतह बाबू को पांच संतानें हुई। इस नवोढ़ा बहु ने परिवार को बाँधे रखा। प्रथम पुत्र की भी सही ढंग से देख-रेख हो रही थी। तरियानी हाई स्कूल की स्थापना और संचालन में दोनों ने एक-दूसरे का हाथ बंटाया। स्वतंत्रता संग्राम में जेल गये। डिस्ट्रिक्ट लोकल बोर्ड के चेयरमैन रहे। उनके डुमरा वाले आवास पर उनके भतीजे श्री वीर शमशेर सिंह रहने आ गये। उन्होंने एम.पी. हाईस्कूल डुमरा में प्रवेश लिया था। चाचा के साथ इन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी की। पुरानी बागमती पर बने मारड़ घाट पुल को नष्ट करने में इनकी सीधी भागीदारी थी। उसके बाद ये नेपाल चले गये। घर पर कुर्की का वारंट जारी हुआ। आजादी के बाद वे तरियानी पंचायत के प्रथम मुखिया निर्वाचित हुये। दोनों परिवारों में दूसरी और तीसरी पीढ़ी में तकनीकी शिक्षा की प्रमुखता रही। काफी बच्चे डॉक्टर इंजीनियर बने। शायद यह कारण रहा हो कि बिहार सरकार द्वारा स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हेतु जारी आर्थिक सहायता लेने से उन्होंने इन्कार कर दिया था। फतह बाबू के त्याग का फल वंशजों को मिला।
रामवृक्ष बेनीपुरी के हवाले से एक रोचक पात्र रामदेव सिंह की कथा इस अंचल में व्याप्त है। संकेतों में बताया जाता है कि रामदेव बदनाम चरित्र वाला है। शायद दबंग परिवार की यौनिकता का संकेत है। रामदेव अपनी जिंदगी को कुछ सार्थक करना चाहता है तो रामवृक्ष बेनीपुरी कहते हैं कि और तो क्या ही करोगे, खादी पहनना शुरू कर दो। इस खादी ने उसकी जिंदगी में नया तूफान ला दिया। आंदोलन में शामिल हुआ और पकड़ा गया। पुलिस ने इतना पीटा कि बेहोश हो गया और नींद में भी कराहता रहता। पुलिस वाले इतने दुष्ट थे कि कुछ के मल मार्ग में डंडा घुसा दिया गया। पुलिस और फौजी दस्तों पर हिंसक हमलों और उनकी हत्या का कारण कुछ आसानी से समझ में आता है। तरियानी अंचल में मुजफ्फरपुर में विख्यात क्रांतिकारी योगेन्द्र शुक्ल और बैकुंठ शुक्ल भी जुड़े थे।
लेखक ने अपनी पुस्तक के लिये बड़े पैमाने पर 200 से अधिक साक्षात्कार लेने का परिश्रम वाला कार्य किया है। अगड़ी जातियों के संपन्न सेनानियों में टुनिचाही के हरिवंश प्रसाद गौड़, फतहपुर के राजेन्द्र प्रसाद सिंह, छतौनी में रामानंद सिंह मोख्तार, ठाकुर नवाब सिंह, बिन्देश्वरी सिंह मांची के राजा बाबू जैसे व्यक्तित्व कथा प्रसंग में आये हैं। इसी तरह वंचित तबके से चैनपुर के बांगुर सहनी, जुब्बा सहनी, माधोपुर के राम औतार सहनी, फागु मल्लिक, मधकौल के कुनकुन महतो, कंसार के राम औतार साह, मुसाई महतो, राम बुझावन राय, चलितर साह, हकनू सहनी, रामेश्वर कुर्मी, गुल्ली बैठा, बलदेव ठाकुर लोहार, दमड़ी साह, हसेरी, मोहम्मद युसुफ, इशहाक आलम, रेवासी के मधुरा मंडल तथा बैरगनिया के रामदेव पासवान की गरीबी और परिवार टूटने का मार्मिक वर्णन आया है जिसमें राष्ट्रवाद की जमीन से जुड़ी खुशबू है। इस वर्णन से समझ में आता है कि किस तरह बिहार के 395 थानों में से कुल 219 पर हमले हुये तथा 80 पर जनता ने कब्जा कर लिया। इस दौरान 940 लोग मारे गये तथा साठ हजार से अधिक लोग गिरफ्तार हुये। वंचित समाज के निम्नवर्गीय प्रसंग पर परिश्रम करने के बावजूद पुस्तक में एक शून्यता दिखती है।
शिवहर जिला के पवित्र नगर पोटा गाँव से मुसहरों का आंदोलन प्रारंभ हुआ था। बिहार के अति दुर्बल संसाधन वाले मुसहरों पर इतिहासकार, समाजशात्री तथा साहित्यकार उदासीन ही रहे हैं। स्टीफेन हेनिंघम ने 1981 के म्च्ॅ वाले आलेख में एवं प्रसन्न कुमार चौधरी तथा श्रीकांत ने ‘स्वर्ग पर धावा‘ नामक पुस्तक में एक छोटा आलेख शामिल किया है।तिरहुत प्रमंडल में संतदास के नेतृत्व में होने वाले मुसहर आंदोलन के पहले पटना के विक्रम थाने के देकुली गाँव में मुसहरों की एक सभा हुई थी। इसमें निर्णय लिया गया था कि बच्चों को पढ़ाया जाये तथा अपराध को पूरी तरह छोड़ा जाये। आर्थिक उन्नति हेतु सरकार से सहायता मांगी गयी थी। यह भी याद रखना जरूरी है कि दरभंगा जिले में ग्वाला ब्राह्मण, दुसाध कोइरी धानुक, मल्लाह और चर्मकार के बाद संख्या में आठवें नंबर पर तथा दलितों में तीसरे नंबर पर थे। 1931 की जनगणना के अनुसार इनकी संख्या राजपूतों, ब्राह्मणों तथा कायस्थ से अधिक थी।
इस समय तक नील की कोठियाँ अपना गौरव खो चुकी थीं। अनेक यूरोपीय प्लांटर अपनी कोठी स्थानीय जमींदार को बेचकर यूरोप वापस हो गये थे। जो बचे थे वे भी जेंटलमैन फार्मर बन गये थे। वे ईख आदि नगदी फसलों की खेती करने लगे थे। समस्तीपुर अनुमंडल के हरसिंहपुर नील फैक्ट्री के मुसहर श्रमिकों ने अपनी मजदूरी बढ़ाने की मांग की। कोठी के मालिक मिस्टर पर ब्रिटेन लौटना चाहते थे, इसलिये उन्होंने मुसहरों की मांग मान ली। उन्होंने अपनी कोठी बेच दी और 1943 में इंग्लैंड वापस हो गये। लेकिन इस आसान जीत से मुसहरों की सभा ने केवटा के मिल मालिक पर भी दबाव बनाया। मउ बजिदपुर की नील फैक्ट्री में भी मांग रखी गयी। मैनेजर से संतुष्ट नहीं हुये तो मुसहर, मालिक के पास जाने लगे। मालिक श्री रामाश्रम प्रसाद चौधरी थे, एमएलसी थे और जमींदार भी थे। मुसहरों की भीड़ 22 जून 1936 को दलसिंह सराय में रामाश्रय प्रसाद चौधरी के घर की तरफ बढ़ने लगी। पुलिस द्वारा रोके जाने पर वे एक स्थानीय बगीचे में जमा हो गये। जिला मजिस्ट्रेट अनुमंडलाधिकारी तथा पुलिस कप्तान, दरोगा, इंस्पेक्टर तथा दो दर्जन पुलिस बल दलसिंह सराय पहुँच गये। थाने पर रामाश्रय बाबू एवं अन्य जमींदार स्वागत के लिये उपस्थित थे। जिलाधिकारी रामाश्रय बाबू के साथ थाने पर रुके रहे। अन्य लोगों और अधिकारियों की टीम बगीचे में पहुंची। मुसहर समझाने से भी कुछ समझने को तैयार नहीं थे। पुलिस बल ने लाठी चलाना शुरू किया। मुसहर भी लाठी चलाने लगे। तीर-धनुष भी चलने लगा। 24 जून को बुरी तरह से जख्मी 35 मुसहर को समस्तीपुर भेजा गया। एक इंस्पेक्टर भी घायल हुआ। इलाके में आतंक फैल गया। मुसहर डर के मारे उस इलाके से परिवार के साथ भाग गये। इस भीड़ का नेतृत्व कर रहे थे संतदास भगत उर्फ ‘दादा जी‘ और उनकी पत्नी कमलावती उर्फ ‘सती जी।
26 जुलाई 1939 को बेलसंड थाना के पोता गाँव में मुसहरों की बैठक हुई। यह गाँव कमलावती (सती जी) का मायका था। उपद्रव की आशंका में पुलिस दल भेजा गया। अगले दिन 27 जुलाई को मुजफ्फरपुर के जिलाधिकारी मिस्टर टेलर भी घटना स्थल पहुँचे। सब कुछ शांति से गुजर गया। सीतामढ़ी में आठ मुसहर आबकारी विभाग द्वारा पकड़ कर जेल में बंद किये गये थे। जमानत नहीं हुई थी। सीतामढ़ी अपराध न्यायालय में 500 मुसहर संतदास और कमलावती के नेतृत्व में जमा हो गये। ठाकुर नवाब सिंह तथा रामदेव सिंह ने मुसहरों को समझाने का प्रयास किया। अनुमंडलाधिकारी समद खाँ जमानत पर ही छोड़ने को तैयार थे। मुसहरों की भीड़ गाँधी जी की जय के नारे लगा रही थी। अचानक खबर उड़ी कि कैदी जेल गेट पर रिहा किये जा रहे हैं। भीड़ कोर्ट से जेल की तरफ दौड़ी। इंस्पेक्टर अब्दुल रशीद को लगा कि भीड़ जेल पर हमला करेगी। वह भी दल-बल के साथ दौडे़। जेल के एक वार्डन को भी लगा और उसने एक मुसहर पर लाठी चला दी। इसके बाद फसाद शुरू हो गया। पुलिस की और टुकड़ियाँ पहुँचने लगी। मुसहर भागे भी पर संतदास और कमलावती डटे रहे। पचास मुसहरों ं ने उनकी सुरक्षा के लिये अपने घेरे में ले रखा था। मजिस्ट्रेट भी पहुंचे। संत और सती समेत मुसहरों की गिरफ्तारी का आदेश हुआ। गिरफ्तारी करने में विवाद हुआ और मुसहरों की भरपूर पिटायी हुई।
कुछ मुसहर भागे भी। लखन देई नदी में कूद गये और उनमें कुछ डूब कर मर गये। 10 सितंबर 1937 को ‘इंडियन नेशन‘ में घटना विस्तार से छपी। नवंबर मास में ‘‘इंपेरर बनाम संतदास और अन्य मुकदमा‘‘ शुरू हुआ। इसमें कुल 38 अभियुक्त थे। इन लोगों ने बिहार के प्रधानमंत्री श्रीकृष्ण सिंह से अनुरोध किया कि उनके बचाव की व्यवस्था की जाये। स्थानीय कांग्रेसी नेता बाबू कपिलदेव सहाय तथा दो अन्य मोख्तार लेकर कानूनी सहायता के लिये पहुंचे। भुवनेश्वर प्रसाद, सरकारी वकील थे तथा बचाव पक्ष की तरफ से कपिलदेव सहाय के साथ गोपाल जी सहाय। बाद के मुकदमे का विवरण उपलब्ध नहीं है। कमलावती जी पोता के मुनर मुसहर की बेटी थी। संतदास भगत जी नेपाल की तराई के रहने वाले थे। ऐसा समझा जाता है कि उनके पास दूसरी दृष्टि भी है। मुसहर आंदोलन से तथा संतदास जी से विवाह और गुणों के कारण उनका नाम ‘सतीजी‘ विख्यात हो गया। संतदास जी ‘दादाजी‘ के नाम से विख्यात हुये। इनके समर्थन में पोस्टर नहीं बने जुलुस नहीं निकले। किसी को नहीं मालूम कि सीतामढ़ी के संत और सती का कैसा अंत हुआ। समीक्षात्मक निष्कर्ष के रूप में यह महसूस होता है कि पुस्तक पढ़ी जानी चाहिये। पुस्तकालयों में इसे होना चाहिये। सहज सुलभ करने के लिये डिजिटल माध्यम का उपयोग हो तथा पुस्तक के बेसिक स्ट्रक्चर को कथा रूप में पेश किया जाये। लेखक का परिश्रम सार्थक हुआ है।
बढ़िया है। पूरा पढ़ गया।